उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित, 'गेटवे ऑफ इंडिया' के नाम से प्रसिद्ध जोशीमठ अपने पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व के कारण प्रसिद्ध है। यह इलाका ट्रैकिंग, पर्वतारोहण आदि गतिविधियों एवं टूरिस्ट आकर्षण का भी केंद्र रहा है।
हाल ही में भूस्खलन के कारण जोशीमठ के 700 से अधिक घरों एवं सड़कों पर मोटी-मोटी दरारें देखने को मिलीं और अब तक 130 से ज्यादा ज्यादा परिवारों को खतरे के क्षेत्र से बहार निकाल लिया गया है। उत्तराखंड के ही कर्णप्रयाग में भी घरों में दरारें आने की शुरुआत हो चुकी है। हालांकि आपदा को लेकर 1976 में ही मिश्रा कमेटी ने चेतावनी दी थी, लेकिन राज्य से लेकर केन्द्र सरकार तक किसी की भी नींद नहीं टूटी।
स्थानीय लोगों को अपने घरों से पलायन करना पड़ रहा है। वहां रह रहे लोगों को अपनी जान का खतरा निरंतर बना हुआ है। उनका कहना है कि प्रशासन और सरकार जोशीमठ की स्थिति को लेकर गंभीर नहीं है। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) के सचिव रंजीत कुमार सिन्हा ने जोशीमठ की वर्तमान स्थिति के लिए मिट्टी के ढीलेपन और इसकी कम असर क्षमता को जिम्मेदार ठहराया है।
1976 की चेतावनी : 1976 की मिश्रा कमेटी ने भारी निर्माण कार्य, ढलानों पर कृषि, पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध, वर्षा जल के रिसाव को रोकने के लिए पक्की जल निकासी का निर्माण, उचित सीवेज सिस्टम और नदी के किनारों पर सीमेंट ब्लॉक को न हटाने के सुझाव दिए थे। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि जोशीमठ रेत और पत्थर के ढेर पर स्थापित किया गया है। यदि अनियोजित भारी निर्माण कार्य, विस्फोट से उत्पन्न कम्पन, भारी ट्रैफिक जैसी समस्याएं जारी रहीं तो जोशीमठ ढह भी सकता है। जोशीमठ टाउनशिप प्लानिंग के लिए अनुकूल नहीं है।
केवल जोशीमठ ही नहीं, उत्तराखंड राज्य के कई जिले हाई सिस्मिक से वेरी हाई सिस्मिक ज़ोन 4 एवं ज़ोन 5 के अंतर्गत आते हैं। पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, चंपावत आदि जिले जोन-5 (वेरी हाई रिस्क) में आते हैं।
दरसअल, इंडियन टेकटोनिक प्लेट हर साल उत्तर की ओर 5-10 सेंटीमीटर यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट से टकराती है, जिसके कारण निरंतर भूमिगत तनाव बना रहता है। भारतीय हिमालयी क्षेत्र 13 भारतीय राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों (अर्थात जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में फैला हुआ हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो भूकंपीयता पहले से मौजूद कमज़ोर क्षेत्र और हिमालय की नियो-टेक्टोनिक गतिविधियां मिलकर इसे और भी ज्यादा कमजोर बनाते हैं।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि भूकंप की स्थिति में नुकसान मुख्य रूप से भूकंप की अधिकता वाले क्षेत्रों में अनियोजित विकासात्मक गतिविधियों के परिणामस्वरूप होता है, जो जीवन और संपत्ति के नुकसान को कई गुना बढ़ा देता है, इसलिए प्रमुख विकासात्मक गतिविधियों जैसे मानव बस्तियों, शहरीकरण, सड़क निर्माण, रेलवे ट्रैक बिछाने आदि पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
पिछले कुछ सालों में बड़ी प्राकृतिक आपदाएं-
18 सितंबर 1948 : असम के गुवाहाटी जिले में भारी वर्षा के कारण भूस्खलन से करीबन 500 लोगों की मौत हुई एवं पूरा गांव तबाह हो गया।
4 अक्टुम्बर 1968 : पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में बाढ़ के कारण भूस्खलन से 1000 से ज्यादा लोगों की जानें गईं और 60 किलोमीटर लंबा हाईवे 91 टुकड़ों में विभाजित हो गया।
11-17 अगस्त 1998 : उत्तराखंड के मालपा में 7 दिनों तक लगातार भूकम्पों के कारण भूस्खलन से एक पूरा गांव साफ़ हो गया, जिसमें 380 लोगों की जाने गईं।
16 जुलाई 2013 : उत्तराखंड के केदारनाथ की आपदा में करीब 5700 लोगों की मौत हुई और 4200 गांव प्रभावित हुए।
30 जुलाई 2014 : महाराष्ट्र के मलिन गांव में 150 से ज्यादा लोगों की मौत हुई।
13 अगस्त 2017 : हिमाचल प्रदेश के कोटरूपी में 50 से ज्यादा लोगों की मौत।
10 मार्च 2018 : उत्तराखंड के कुवारी में 400 लोगो की मौत और 106 लोगों के घर तबाह।
6 अगस्त 2020 : केरल के पत्तिमूड़ी में 80 लोगों की जानें गईं।
23 जुलाई 2021 : महाराष्ट्र के आंबेघर में 14 लोगों की मौत।
भूस्खलन से बचने के उपाय -
1. ज्यादा से ज्यादा वनीकरण होना चाहिए।
2. सीधी ढलानों पर मकान या दूसरे निर्माण नहीं होने चाहिए।
3. मलबे के रास्तों को मोड़ना और पानी के नीचे के जल निकासी प्रणालियों का मार्ग बदलना चाहिए।
4. समुदाय को दरारों की पहचान करने, सुरक्षात्मक उपायों को लागू करने और खुद को और समुदाय को बचाने के लिए प्रशिक्षित करने के लिए जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए।
5. स्थानीय लोगों को अनिवार्य रूप से इंश्योरेंस पॉलिसी लेनी चाहिए, जिससे की उनके घर एवं मूल्यवान वस्तुओं की रक्षा हो सके।