जब बढ़ते गए हम, तो सिखाते रहे वो, अच्छी-बुरी बातें और कई कामों को करने का तरीका-सलीका। और बढ़े हम, तो बने दोस्त भी। हां रोक-टोक भी की, डांटा भी...लेकिन खड़े रहे साथ, हर मुश्किल एक्जाम में। जब और बढ़े हम, तो बांधा भी उन्होंने...पर पीठपीछे चिंता में जागते रहे वो भी। हम बढ़ रहे थे...वो बुन रहे थे, हमारे सपनों का आशियां...। हमारी पसंद-नापसंद के बीच पापा को मैनें टहलते देखा है। हां, पापा को मैंने बदलते देखा है...।