रिश्‍तों में संवाद जरूरी

NDND
-प्रीता जै

बोली गई बातें किसी भी रिश्ते की एक महत्वपूर्ण कड़ी होती हैं। यदि उन्हें समझने में जरा भी भूल की जाए तो बात का बतंगड़ बन जाता है और फिर रिश्तों में दरार तो आनी ही है।

कई बार ऐसा देखने-सुनने में आता है कि जरा-सी गलतफहमी के कारण आपसी संबंधों में दरार पड़ जाती है व तनाव होने से रिश्तों में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं।

ऐसा अधिकतर तभी होता है जब आपके द्वारा कही गई किसी भी सीधी-सही बात का अनुचित अर्थ निकालकर उसका वास्तविक मतलब ही बदल दिया जाए। आज समय बहुत बदल गया है जहाँ पहले परिवार में 'हम' की भावना होती थी अब 'मैं और सिर्फ मैं' की भावना हावी है। यही कारणहै कि प्रेम तथा अपनत्व के स्थान पर स्वार्थ व राग-द्वेष प्रबल होता जा रहे हैं और जहाँ सोचने, समझने की क्षमता कम हो रही है, वहीं विशेषकर धैर्य व एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक संवेगों की भी अत्यधिक कमी भी दृष्टिगोचर हो रही है।

मेरी एक परिचिता का अपने रिश्तेदार के यहाँ काफी आना-जाना था, एक बार मेरी परिचिता ने उनसे बातों ही बातों में कह दिया कि तुम खूब खिलाने-पिलाने वाली हो, सारा दिन तुम्हारे यहाँ तो कुछ ना कुछ बनता ही रहता है, बस इसी में व्यस्त रहती हो। इस बात को उक्त रिश्तेदार ने गलत तरह से लिया। उन्होंने सोचा कि मुझ पर व्यंग्य किया जा रहा है। मैं बहुत चटोरी हूँ सारा दिन खाने के अलावा मुझे और कुछ काम नहीं है और इसी में अपना वक्त खराब करती हूँ।

बस फिर क्या था, जो आपसी संबंध इतने अच्छे थे कि एक-दूसरे के साथ ही हर समय का उठना-बैठना मिलना-जुलना था वे ना के समान रह गए। ऐसा ही एक और वाकया याद आ रहा है। मेरी सहेली नीरा ने एक दिन अपनी मौसेरी बहन से कह दिया। 'यार मौसी हैं तो तेरे तो आराम ही आराम है, हर सुख-सुविधा का वही खयाल रख लेती हैं। यहाँ तक कि रसोई के लिए मसाले तक तुझे पिसे हुए मिल जाते हैं। देखा जाए तो यह बात बहुत अपनत्व व अधिकार के साथ कही गई थी, पर इसका भी गलत मतलब निकालकर यह समझा गया कि नीरा को मेरी माँ का होना अच्छा नहीं लग रहा है व वो चाहती है कि मेरी माँ ना रहे ताकि मुझे काम करने का पता चले।

प्रायः इस तरह की बातें हर घर में ही होती रहती हैं, जिनका असल में कोई औचित्य ही नहीं है। किंतु यदि नासमझी में इनको गलत या सही मानें तो जरा-सी लापरवाही से बात का बतंगड़ बन जाता है व हम अपने को अपनों से दूर कर लेते हैं।

यह तो हम सभी जानते हैं कि जिंदगी बहुत छोटी है। फिर क्यों हम छोटी-छोटी-सी बातों पर आपसी मतभेद कायम कर मनमुटाव की स्थिति
SubratoND
उत्पन्कर लेते हैं व शारीरिक-मानसिक रूप से स्वयं को कमजोर बना लेते हैं। सौ फीसदी सच है कि रिश्तों में खटास आने पर हममें से किसी को भी अच्छा नहीं लगता, बात कहने वाला यह सोचकर दुःखी रहता है कि मेरा कहने का यह मतलब नहीं था व जिसके लिए बात कही जाती है या जो सुनता है वो यह जानकर परेशान होता है कि उसने मेरे बारे में ऐसा क्यों कहा? परंतु यदि आपस में प्यार है, संबंधों की डोर में स्नेह व विश्वास की गाँठ है तो निश्चित ही इस स्थिति को नकारा जा सकता है तथा अलगाव के पलों को भी रोका जा सकता है।

हर रिश्ते की अपनी अहमियत होती है, कोई भी रिश्ता छोटा-बड़ा या फिर कम या ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता, इसलिए कभी इस तरह का अहसास भर भी हो कि आपकी किसी बात से दूसरे व्यक्ति को दुःख या पीड़ा पहुँची है तो बिना किसी विचार-विमर्श के सीधे ही अपनी बातको सही मायने में समझाने की कोशिश करें कि आपका ऐसा मतलब कतई नहीं नहीं था। ताकि आपस में माधुर्य बना रहे। ऐसा ही प्रयत्न सामने वाले व्यक्ति की ओर से भी होना चाहिए कि वह दूसरे के स्नेह व भावनाओं की कद्र करते हुए बात को बढ़ने से रोकें और बिना किसी जल्दबाजी के सोच समझकर रिश्तों को टूटने से बचाएँ। क्योंकि जुड़ने की अवधि बड़ी होती है, जबकि अलग होने की सिर्फ एक क्षण।

इस दुनिया में हर किसी को साथ व सहारे की जरूरत है और मिल-जुलकर रहने में ही हम सब की भलाई है। छोटी-छोटी बातों को तूल या बढ़ावा देने से सिर्फ अहं की ही तुष्टि होती है और कुछ भी हासिल नहीं होता।यदि हर बात को नाप-तौलकर परखने की मूल्यांकनकरने की हमारी आदत बनी रहेगी, तो जो समय हम आपस में हँस-बोलकर, मिल-बाँटकर साथ-साथ बिता सकते थे उसको यूँ ही व्यर्थ में गँवा देंगे और सिर्फ क्षोभ व निराशा ही हमारे हाथ लगेगी। एक बात और जरूरी है कि कभी भी सुनी सुनाई बातों पर विश्वास ना करें, कभी किसी कारणवश या अनजाने में किसी की बातों से आपके मन में ठेस भी लगी हो तब भी उसकी मनःस्थिति को जानते हुए शब्दों को भूलने की हरसंभव कोशिश करें। यकीन मानिए इनका कोई अर्थ नहीं होता है और ध्यान से देखा जाए तो कहीं ना कहीं इसमें भी आपके लिए प्यारही छुपा रहता है, अतः थोड़ी-सी समझदारी व बदलाव से एक होकर रहें व बिना किसी तनाव के भरपूर जिएँ।