अपरिष्कृत अहंकार से बचे

- आशा 'अपूर्वा'

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अहंकारी अपने को मिटाना नहीं जानता, गलाना नहीं सीखता और इसी कारण वह सृजनशीलता से कोसों दूर रहता है। जिस क्षण किसी का अहंभाव विलीन-विसर्जित होता है, उसी क्षण उसमें सृजनशीलता के गुण फूटने लगते हैं।

अहं के विसर्जन से आध्यात्मिकता का अंकुरण होने लगता है। इसमें अवरुद्ध सृजनशील ऊर्जा बहने लगती है और जीवन में अनेक रचनात्मक कार्य होने लगते हैं। निषेधात्मक विचारों के स्थान पर शुभ और विधेयात्मक विचारों की बा़ढ़ आने लगती है। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और अन्य ऐसी ही विध्वंसात्मक वृत्तियाँ मिटने लगती हैं और शुभकामनाएँ, शांति और क्षमा के स्पंदनों से मन का आँगन भर उठता है।

अहंकाररहित ऐसी मनःस्थिति में सृजन-संवेदनाएँ अपने चरम पर होती हैं। ऐसा अंतःकरण अनंत सद्गुणों से भरा होता है। इसकी सुरभि से समूचा वातावरण सुरभित होता है। इसमें स्वयं को तृप्ति मिलती ही है, आसपास रहने वालों का जीवन भी पूरी तरह तृप्त हो जाता है।

अहंकार का नकारात्मक स्वरूप जितना भीषण होता है, उसका विधेयात्मक पक्ष उतना ही सृजनशील हो सकता है। अहंकार की प्रकृति प्राण, साहस, दृढ़ निश्चय और संकल्प से भरी-पूरी होती है। सृजन के अभाव में अपरिष्कृत अहंकार जब विनाश में प्रयुक्त होता है तो कहर ढाने लगता है, परंतु यदि इसे परिष्कृत-परिमार्जित कर सदुपयोग किया जा सके तो सृजन की असीम संभावनाएँ बन सकती हैं। यह विष को अमृत बनाने की जटिल परंतु उपयोगी प्रक्रिया है।

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