संस्कृति में पिता का महत्व

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न तो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्‌।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिपा॥

(पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।)
- वाल्मीकि (रामायण, अयोध्या काण्ड)।

ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति।
त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धर्मे च पथि वर्तिनः॥

(बड़ा भाई, पिता तथा जो विद्या देता है, वह गुरु है- ये तीनों धर्म मार्ग पर स्थित रहने वाले पुरुषों के लिए पिता के तुल्य माननीय हैं।)
- वाल्मीकि (रामायण, किष्किन्धा काण्ड)।

दारुणे च पिता पुत्रे नैव दारुणतां व्रजेत्‌।
पुत्रार्थे पदःकष्टाः पितरः प्राप्नुवन्ति हि॥

(पुत्र क्रूर स्वभाव का हो जाए तो भी पिता उसके प्रति निष्ठुर नहीं हो सकता क्योंकि पुत्रों के लिए पिताओं को कितनी ही कष्टदायिनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं।)
- हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व)।

जनिता चोपनेता च, यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता, पंचैते पितरः स्मृताः॥

(इन पाँच को पिता कहा गया हैः जन्मदाता, उपनयन करने वाला, विद्या देने वाला, अन्नदाता और भयत्राता।)
- चाणक्य नीति।

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