उज्जैन के चिंतामण गणेश के प्रसिद्ध मंदिर के आसपास बहुत सी चाय की दुकाने हैं। उन्ही में से एक चाय की दुकान पर अपने कुछ मित्रों के साथ चाय पीते हुए बतिया रहे थे, तभी कुछ भीख मांगने वाली महिलाएं आईं और याचना करने लगीं। बड़ी मुश्किल से उनसे छुटकारा पाया ही था कि बड़ी-बड़ी दाढ़ी बढ़ाए साधुओं का एक झुंड आया और वह भी वही काम करने लगा जो कुछ देर पहले वे महिलाएं कर रही थीं। बस अंतर इतना था कि वे याचना कर रही थी और ये अधिकारपूर्वक जबरदस्ती कर रहे थे।
बहुत देर तक उनकी दादागिरी, धमकी चलती रही लेकिन हमने ध्यान न देकर वहां से चलने का ही निश्चय किया क्योकि जिस काम के लिए (चाय पीने के लिए) हम रुके थे, वह पूरा हो चुका था। वहां से हमें लेकोड़ा गांव जाना था। कार में जाकर बैठे ही थे कि एक टाटा मैजिक वहां आकर रुकी, जिसमें किसी एक महाराज का गुरु-पूर्णिमा महोत्सव में शामिल होने के लिए प्रचार हो रहा था।
हम वहां से आगे बढ़ गए लेकिन ये तीनों घटनाएं वस्तुतः देखने में भले ही अलग हो लेकिन है तो एक ही। भीख मांगना (याचना) बस तरीके अलग अलग हैं, जो लोग गुरु पूर्णिमा के नाम अपनी पूजा करवाते हैं तथा जितने भी गुरु भगवान का स्थान हड़पने में दिलो जान से लगे हुए हैं एवं जो गुरु लोग विभिन्न तरह का पंथ चलाकर खूद को भगवान् घोषित कर रहे हैं, उन तमाम देवभक्षी गुरु और उनकी तथाकथित संस्थाओं की इन करतूतों (गुरु-पूर्णिमा महोत्सव,पाद-पूजन) में उपस्थित रहने की याचना करते है क्या यह जरुरी है?
विचार चक्र चल ही रहा था कि मेरे एक मित्र स्वरुप ने प्रश्न किया भाई साहब आप के गुरु है..???
मैंने कहा है-हां, है
थोड़ी चुप्पी के बाद फिर प्रश्न आया कहां है ...? कौन है...?? क्या कार्यक्रम होते हैं???
मैंने उत्तर न देते प्रति प्रश्न किया मित्र गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा क्यों कहते है?
कोई उत्तर नहीं आया
... शांति ...
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वैसे देखा जाए तो यह व्यास पूर्णिमा है, गुरु पूर्णिमा नहीं। गुरुओं ने व्यास पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में माना है। महर्षि वेदव्यास ही एक मात्र गुरु हैं। अतः व्यास पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहा जाने लगा। लेकिन व्यास इतने बड़े गुरु होकर भी उन्होंने अपने को कहीं भी भगवान् नहीं कहा और न ही पाद-पूजन के ऐसे महोत्सव करवाए...
महर्षि वेदव्यास तरह तरह के पंथों एवं मतों के खिलाफ थे। उनकी अंतिम रचना श्रीमद्भागवत पर उन्होंने तरह-तरह के पंथवादों और सनातन धर्म के खिलाफ रहने वाले सभी हथकंडों का विरोध किया है। इतने सारे वेदों सहित अनेक सनातन ग्रंथों के रचयिता होने पर भी उन्होने अपने को भगवान् नहीं बताया जब कि वे स्वयं 24 अवतारों में आते हैं। हम सभी को महर्षि वेदव्यास की जयंती मनानी चाहिए और उनकी दी गई सीख को याद करना चाहिए।
वेदव्यास जिन्होनें कभी लोगों को भगवान् से दूर नहीं किया। महर्षि व्यास ने कभी भी भगवान् को हड़पने की कोशिश नहीं की जैसे आजकल हर गली मोहल्ले के पाखंडी गुरु कर रहे हैं ...
गुरु होना एक व्यवस्था है जैसे शिक्षक होना जीवन के दायरे में मार्गदर्शन देना इस कारण जब हम इस व्यवस्था को तोड़ते हैं उनकी दी सीखों के स्थान पर उन्हीं को पूजते है तो शायद हम गलती करते हैं दुनिया में अनेक तरह के गुरु संभव हैं।
एक तो जो गुरु कहता है, गुरु के बिना नहीं होगा। गुरु बनाना पड़ेगा। गुरु चुनना पड़ेगा। गुरु बिन नाहीं ज्ञान। यह सामान्य गुरु है। इसकी बड़ी भीड़ है। और यह जमता भी है। साधारण बुद्धि के आदमी को यह बात जमती है। क्योंकि बिना सिखाए कैसे सीखेंगे ? भाषा भी सीखते, तो स्कूल जाते। गणित सीखते, तो किसी गुरु के पास सीखते। भूगोल, इतिहास, कुछ भी सीखते हैं, तो किसी से सीखते हैं। तो परमात्मा भी किसी से सीखना होगा। यह बड़ा सामान्य तर्क है-थोथा, ओछा, छिछला-मगर समझ में आता है आम आदमी के कि बिना सीख कैसे सीखोगे। सीखना तो पड़ेगा ही। कोई न कोई सिखाएगा, तभी सीखोगे।
इसलिए 99 प्रतिशत लोग ऐसे गुरु के पास जाते हैं, जो कहता है, गुरु के बिना नहीं होगा और स्वभावतः जो कहता है गुरु के बिना नहीं होगा, वह परोक्षरूप से यह कहता हैः मुझे गुरु बनाओ। गुरु के बिना होगा नहीं। और कोई गुरु ठीक है नहीं। तो मैं ही बचा। अब तुम मुझे गुरु बनाओ! गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है- इस बात का शोषण गुरुओं ने किया गुलामी पैदा करने के लिए; लोगों को गुलाम बना लेने के लिए। सारी दुनिया इस तरह गुलाम हो गयी। कोई हिंदू है; कोई मुसलमान है कोई ईसाई है; कोई जैन है।
यह सब गुलामी के नाम हैं। अलग-अलग नाम। अलग-अलग-ढंग! अलग-अलग कारागृह! मगर सब गुलामी के नाम हैं।
अतः वेदव्यास की इस गरिमामयी पूर्णिमा पर पाखंडी, देवद्रोही, देवठग गुरुओं की पूजा नहीं की जाए। भक्तों को भगवान् से जोड़ने वाले वेदव्यास जिन्दाबाद।
भगवान् से तोड़नेवाले पाखंडी देवठग गुरुलोग मुर्दाबाद।