Dol Gyaras Katha 2025: भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को जलझूलनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसे परिवर्तिनी एकादशी एवं डोल ग्यारस आदि नामों से भी जाना जाता है। इस दिन भगवान वामन की पूजा का विशेष महात्म्य है। कुछ स्थानों पर इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की सूरज पूजा की जाती है। डोल ग्यारस की पौराणिक कथा क्या है? इस लेख में जानें भगवान कृष्ण के बाल रूप की लीला और इस त्योहार से जुड़ी रोचक कहानी जो आपको भक्ति से भर देगी।
पहली कथा: भगवान कृष्ण और मां यशोदा की कहानी:
यह कथा भगवान कृष्ण के जन्म से जुड़ी है। माना जाता है कि जब भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, तब उनकी माँ यशोदा ने उन्हें एक पालने में झुलाया था। इसी कारण इस एकादशी को जलझूलनी एकादशी या डोल ग्यारस के नाम से जाना जाता है। एक और मान्यता के अनुसार, जन्माष्टमी के बाद आने वाली एकादशी को भगवान कृष्ण पहली बार घर से बाहर निकले थे। यह उनका पहला सामाजिक उत्सव था, जिसमें उन्हें पालकी या डोल में बिठाकर बाहर ले जाया गया था। इसलिए, इस दिन भगवान कृष्ण की प्रतिमा को एक सुंदर डोल या पालकी में बैठाकर यात्रा निकाली जाती है और उन्हें नदियों या तालाबों के पास ले जाकर स्नान कराया जाता है।
दूसरी कथा: माता देवकी के व्रत की कथा:
एक अन्य कथा के अनुसार, माता देवकी ने अपने आठवें पुत्र, भगवान कृष्ण को कंस से बचाने के लिए एक व्रत रखा था। इस व्रत का नाम कल्याणी एकादशी था। इस व्रत के प्रभाव से ही भगवान कृष्ण का जन्म हुआ और वह कंस के अत्याचारों से बच पाए। माना जाता है कि डोल ग्यारस का व्रत रखने से भक्तों के सभी पाप धुल जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह व्रत संतान की लंबी आयु के लिए भी रखा जाता है। इस प्रकार, डोल ग्यारस का पर्व भगवान कृष्ण की लीलाओं और उनकी दिव्यता को समर्पित है। यह दिन भक्ति, उल्लास और धार्मिक अनुष्ठानों के साथ मनाया जाता है।
तीसरी कथा: बालि वामन की कथा:
त्रेतायुग में बलि नामक एक दैत्य था, उसने इंद्र से द्वेष के कारण इंद्रलोक तथा सभी देवताओं को जीत लिया। इस कारण सभी देवता एकत्र होकर भगवान के पास गए और नतमस्तक होकर वेद मंत्रों द्वारा भगवान का पूजन और स्तुति करने लगे। अत: श्रीकृष्ण ने वामन रूप धारण करके पांचवां अवतार लिया और फिर अत्यंत तेजस्वी रूप से राजा बलि को जीत लिया। तब बलि से तीन पग भूमि की याचना करते हुए उससे तीन पग भूमि देने का संकल्प करवाया और अपने त्रिविक्रम रूप को बढ़ाकर एक पद से पृथ्वी, दूसरे से स्वर्गलोक पूर्ण कर लिए। अब तीसरा पग रखने के लिए राजा बलि ने अपना सिर झुका लिया और पैर उसके मस्तक पर रख दिया जिससे वह पाताल चला गया।