एक कदम अखंड गणराज्य की ओर

'सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य' कितने खूबसूरत, सटीक, सारगर्भित शब्द है हमारे संविधान की प्रस्तावना में।
26 जनवरी 1950, को भारत का संविधान लागू किया गया। जिसने भारत को संसार के समक्ष एक नए गणतंत्र के रूप में प्रस्तुत किया, परंतु समसामयिक परिदृश्य को देखते हुए लगता है कि इसके मायने बदल से गए हैं। भारत विविधताओं से भरा एक रंगीन देश माना जाता है। रंगीन इसलिए क्योंकि यहां हर धर्म, हर समुदाय के त्यौहारों को उमंग के साथ व्यापक रूप में मनाया जाता है। पर्वों का देश है यह, इसलिए दो महापर्व अपना अलग ही महत्व रखते हैं  स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस। दोनों चरम उल्लास व उमंग से मनाए जाते हैं । बरहाल हम अब गणतंत्र दिवस को मनाने जा रहे हैं। 
 
गण+तंत्र - जनता और तंत्र (शासन-प्रशासन) या कहे जनता का तंत्र, जनता के लिए तंत्र चलिए कुछ भी कह लें, समझ लें पर यह बात तो स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे से मजबूती से जुड़े हैं। यदि एक भी कमजोर होता है तो सीधा असर दूसरे पर होगा ही, तो क्या आज के हालातों को देखते हुए हम गण और तंत्र दोनों को दुरूस्त पाते हैं? ये विचारणीय प्रश्न है। 
 
जैसे ही जनवरी माह प्रारंभ होता है चारों ओर उसाह का वातावरण निर्मित हो जाता है। सड़कों को छोटी-बड़ी दुकानों को, कार्यालयों को, बड़ी-बड़ी इमारतों को रंग-बिरंगी रोशनी से सजा दिया जाता है, क्योंकि गणतंत्र दिवस या कह ले 26 जनवरी मनाना है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का  का शोर-शराबा और परेड की तैयारी होने लगती है। चौराहों को सजाया दिया जाता, बड़े-बड़े लाउड स्पीकर लगाकर देश भक्ति के गीत बजाए जाते हैं, गलियों में डीजे पर धुन बजाती गाड़ियां घुमने लगती है, हर तरफ तिरंगा लहराता है, देशभक्ति चरमोत्कर्ष पर नजर आती है, परंतु ये जोश सुबह 8 से 11 के मध्य ही होता है, बाद में सारे कर्त्तव्यों को दरकिनार कर बस अधिकारों का हल्ला शुरू कर दिया जाता है। उसके बाद आयोजन स्थल पर कुड़ा-करकट का ढेर, तिरंगे झंडे (हमारी शान?) का अपमान (पैरों तले कुचल दिया जाता है), डीजे पर कानफोड़ू संगीत और उस पर थिरकते मदहोश युवा, सारे तंत्र की मर्यादा को तहस-नहस कर डालते हैं... क्यों? क्या देशभक्ति, सम्मान महज 4 या 5 घंटे के लिए होता है?
 
देश युवाओं के कंधों पर टिका है यह बात पूर्णतया सत्य है, परंतु प्रस्तावना में अंतर्निहित बातों को पुनः आत्मसात करने का वक्त आ गया है। विशाल गणराज्य जो प्रभुता संपन्न है उसकी एकता और अखंडता को कोई भी अराजकतावादी नष्ट करने का प्रयास कैसे कर सकता है? हमें मिली संपूर्ण स्वतंत्रता का हनन हम खुद ही कैसे कर सकते हैं?
 
यदि विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है तो क्यों ना हम एक नई वैचारिक, प्रगतिशील सोच को विस्तार दें और देश की आर्थिक, सामाजिक प्रगति में योगदान दें। क्यों ना हम समानता की केवल बात ही न करें वरन्‌ समरसता को बढ़ावा दें। 
 
हमारा देश वाकई अद्भुत है, और हमारे युवा वर्तमान क्योंकि वर्तमान का दरवाजा ही भविष्य की ओर खुलता है। आज भले ही कितनी भी विसंगतियां हो परन्तु उम्मीद कायम है कि हम एक 'सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न' गणराज्य को यूं ही अखंड बनाए रखेंगे।

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