तुम नयनों का नीर न दोगी सावन प्यासा मर जाएगा चू पड़ने को आतुर इतना रूप समाता नहीं देह में और स्वभाव कि भिगो शहद में पुन: डुबोया गया स्नेह में
दरस न दोगी अगर रूप का सूरज कभी न घर जाएगा खजुराहो की प्रतिमा जैसा शुभ्रवसन में रूप हिमानी क्या संयोग कि एक साथ हैं कुछ कुछ ज्वाला, कुछ-कुछ पानी घूँघट यदि खोला न चंद्रमा सोपानों से गिर जाएगा हम संपन्न भले हों तन से मन से रस के रहे भिखारी हम विफल हों किंतु रूप पर सौ-सौ प्राणों से बलिहारी तुम हँस भर दो मोती से पात्र हमारा भर जाएगा नाश अवश्यंभावी लेकिन फिर भी कब निर्माण रुका है सिर्फ तुम्हारे कारण अब तक सृजन-देवता नहीं थका है तुम हारीं तो निश्चित जीवन यहाँ मौत से डर जाएगा
बिना सीखचों जेल ज़िंदगी बिना तुम्हारे जी न सकेंगे और अधर के अमरित के बिन कोई भी विष पी न सकेंगे बिना प्यार के जगत ऊबकर कभी खुदकुशी कर जाएगा।