प्रेम-कविता : सजा रही हूं फिर से
फाल्गुनी
साथ की सुंदर यात्रा के तीन बरस होने को है
और मैं अपनी मन-मंजूषा में रखे
तुम्हारे दिए हर शब्द-मोती, मनके और सितारे देख रही हूं
बीती स्मृतियों की माला पिरो रही हूं..
कुछ 'मनके' चुन रही हूं, बिन रही हूं, गिन रही हूं
हाथों में लिए सोच रही हूं...
सुंदर है वह मोती, सितारे और कुंदन-जरी
जो रखती गई मैं इस मंजूषा में,
यह हैं वह नन्हे रंगीन सितारे
जिन्हें अरमानों की चूनर पर
टांका था मैंने
जब मेरे कानों में
तुमने अपनी 'हां' की
शहद-बूंद गिराई थी. ..
सुहाग की लाल चूडियों के साथ
मेरे सपनों में खनखनाए थे यह स्वच्छ मोती
जब तुम्हारी आंखों में झांका था मेरा स्वीकार,
मेरी नींदों में लजाई-खिलखिलाई थी
रेशमी प्यार की कुंदन-जरी
जब तुम्हारे गर्म हाथों में सकुचाया मेरा नर्म हाथ था
जीवन की सबसे मंगल, सरल और मधुर यात्रा के लिए...
पर इनमें कुछ मनके ऐसे हैं जो हमारे 'मन' के नहीं हैं
इन्हें अपनी मन-मंजूषा से हटाते हुए
सजा रही हूं फिर से
कुछ मोती, कुछ मनके, कुछ सितारे, कुछ कुंदन, कुछ जरी
दो मुझे बस इतना सा जगमगाता विश्वास
... कि इस बार हर मोती में स्नेह ज्योति हो
... कि इस बार हर सितारे में स्वीकार हो
कि इस बार संजोया हर 'मनका' हमारे मन' का हो...