क्या था तुम्हारी उस एक छुअन में,
कि वो शाम याद आती है, तो जाती नहीं।
अजब-सा खुमार था तुम्हारे सुरूर का,
जो आग लगाती है, पर जलाती नहीं।
इबादत कुछ और भी हो सकती थी क्या,
जो मुझे खुदा बनाती है, और बताती नहीं।
गर था यूं ही आंखों से ही पिलाना,
तो आगोश में सुला के, फिर जगाती ही नहीं।
हुआ नहीं बेचैन कभी इस कदर,