प्रयाग में स्थित अक्षयवट के 6 चमत्कारिक रहस्य, आप भी देखने जरूर जाएं

अनिरुद्ध जोशी

शनिवार, 7 मार्च 2020 (14:39 IST)
वैसे तो इस धरती पर करोड़ों वृक्ष हैं, लेकिन उनमें से कुछ वृक्ष ऐसे में भी हैं जो हजारों वर्षों से जिंदा है और कुछ ऐसे हैं जो चमत्कारिक हैं। कुछ ऐसे भी वृक्ष हैं जिन्हें किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति ने हजारों वर्ष पहले लगाया था या उस व्यक्ति ने उस वृक्ष ने नीचे बैठकर ध्यान या समाधी लगाई थी।
 
 
तीर्थदीपिका में पांच वटवृक्षों का वर्णिन मिलता है-
वृंदावने वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः।।
त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम्, वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयाग: तीर्थ नायकम्।
 
 
भारत में ऐसे सैंकड़ों वृक्ष हैं लेकिन पांच वृक्षों का पुराणों में उल्लेख मिलता है। पहला प्रायागराज में अक्षयवट, दूसरा उज्जैन में सिद्धवट, तीसरा मथुरा में वंशीवट, चौथा गया में गया वट और पांचवां नासिक पंचवटी में पंचवट। आओ जानते हैं अक्षयवट के 5 रहस्य।
 
 
1.त्रिदेवों ने लगाया था अक्षयवट : 3. पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे।  तब अंत में तीनों देवताओं ने अपनी शक्ति पुंज के द्वारा पृथ्वी के पाप बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया। यह एक बरगद का वृक्ष था जिसे आज अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। यह आज भी विद्यमान है।

 
2. अमर है अक्षयवट : जैसा की इसका नाम ही है अक्षय। अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी क्षय न हो, जिसे कभी नष्ट न किया जा सके। इसीलिए इस वृक्ष को अक्षय वट कहते हैं। पुरात्व विज्ञान के वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस वृक्ष की रासायनिक उम्र 3250 ईसा पूर्व की बताई जाती है अर्थात 3250+2017=5270 वर्ष का यह वृक्ष है।
 
 
3. मोक्ष देने वाला वृक्ष : इस वृक्ष को मनोरथ वृक्ष भी कहते हैं अर्थात मोक्ष देने वाला या मनोकामना पूर्ण करने वाला। यह वृक्ष प्रयाग (इलाहाबाद) के संगमतट पर स्थित है। व्हेनत्सांग 643 ईस्वी में प्रयाग आया था तो उसने लिखा- नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्‍यात है। इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहां एक पैसा चढ़ाता है वह मानो और तीर्थ स्थानों में सहस्र स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाने जैसा है और यदि यहां आत्मघात द्वारा कोई अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग चला जाता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएं और पत्तियां बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं।
 
 
4. मुश्किल से होते हैं वृक्ष के दर्शन : पर्याप्त सुरक्षा के बीच संगम के निकट किले में अक्षय वट की एक डाल के दर्शन कराए जाते हैं। पूरा पेड़ कभी नहीं दिखाया जाता। सप्ताह में दो दिन, अक्षय वट के दर्शन के लिए द्वार खोले जाते हैं। हालांकि देखरेख के अभाव में अब यह वृक्ष सूखने लगा है।
 
5. कई महात्मा और भगवान यहां बैठे हैं : धार्मिक महत्व : द्वादश माधव के अनुसार बालमुकुन्द माधव इसी अक्षयवट में विराजमान हैं। यह वही स्थान है जहां माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी और जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना पूरी हुई थी। भगवान राम और महर्षि भारद्वाज ने इसी वटवृक्ष ने नीचे रात गुजारी थी। जैनों का मानना है कि उनके तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी।
 
 
6.वृक्ष को तोड़ने के हुए कई प्रयास : अकबर ने इस वृक्ष और इससे लगे मंदिर के आसपास एक किला बनाने की सोच और इसी के चलते उसने वृक्ष और मंदिरों को तोड़ दिया था। लेकिन वृक्ष पूर्णत: नष्ट नहीं हुआ और उसकी जड़ों एवं बच गई शाखाओं से फिर से वृक्ष फूट पड़ा। हिन्दुओं की इस वृक्ष से आस्था जुड़ी होने के कारण प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया। बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया। जिस जगह पर अक्षयवट था वहां पर रानीमहल बन गया। आज सामान्य जन उसी पातालपुरी के अक्षयवट के दर्शन करते हैं जबकि असली अक्षयवट आज भी किले के भीतर मौजूद है।
 
 
पठान राजाओं और उनके पूर्वजों ने भी इसे नष्ट करने की असफल कोशिशें की हैं। जहांगीर ने भी ऐसा किया है लेकिन पेड़ पुनर्जीवित हो गया और नई शाखाएं निकल आईं। वर्ष 1693 में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है कि जहांगीर के आदेश पर इस अक्षयवट को काट दिया गया था लेकिन वह फिर उग आया। औरंगजेब ने इस वृक्ष को नष्ट करने के बहुत प्रयास किए। इसे खुदवाया, जलवाया, इसकी जड़ों में तेजाब तक डलवाया। किन्तु वर प्राप्त यह अक्षयवट आज भी विराजमान है। आज भी औरंगजेब के द्वारा जलाने के चिन्ह देखे जा सकते हैं।
 
 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने और इसके पुन: जीवित होने संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों में सत्यता पाते हैं और उसे सही भी ठहराते हैं। दरअसल, इस वृक्ष की जड़ें इतने गहरी गई है जिसे जानना मुश्किल है।

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