पुराणों अनुसार ब्रह्मांड के भेद

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ब्रह्मांड संबंधी पुराणों की धारणा को समझते हुए उनमें जो समानता है यहाँ प्रस्तुत है वह समान क्रम जिसका जिक्र सभी पुराणों में मिलता है। वेदों में यह सृष्टि भेद अलग तरह से व्यक्त होते हैं। वेदों को ही आधार बनाकर पुराणकारों ने वैदिक भेदों का विस्तार किया है।
 
यह ब्रह्मांड अंडाकार है। इस ब्रह्मांड का ठोस तत्व जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍घिरा हुआ और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है। वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है वहाँ से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है।
 
और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत्तत्व से घिरा हुआ है जो असीमित, अपरिमेय और अनंत है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है।
 
इसे उल्टे क्रम में समझे महत्तत्व से घिरा अनंत तामस अंधकार और उससे ही घिरे आकाश को स्थान और समय कहा गया है। इससे ही दूरी और समय का ज्ञान होता है। आकाश से ही वायुतत्व की उत्पत्ति होती है। वायु से ही तेज अर्थात अग्नि की और अग्नि से जल, जल से पृथ्‍वी की सृष्‍टी हुई। इस पृथ्‍वी पर जो जीवन है उनमें पृथ्‍वी और आकाश दोनों का ही योगदान माना गया है। मानव या अन्य सिर्फ माटी का पुतला ही नहीं है, पाँचों तत्व का जोड़ है।
 
सरल भाषा : आज की भाषा में इसे कहें तो हमारी धरती पर जल तत्व की मात्रा अधिक है अर्थात यह धरती जल से घिरी हुई है। जल से भी अधुक वायु तत्व है तो यह धरती और जल वायु तत्व से घिरा हुआ है। वायु अर्थात जहाँ तक ऑक्सिजन है वहाँ तक ही है उसके ऊपर से अंतरिक्ष होता है जिसे आकाश भी कह सकते हैं तो यह वायु आकाश से घिरा हुआ है। फिर जहाँ तक प्रकाश फैला हुआ है वहीं तक आकाश या जहाँ तक ग्रह-नक्षत्र विद्यमान है वहीं तक आकाश माना जाता है फिर यह आकाश भी तामस अंधकार से घिरा हुआ है।
 
ब्रह्मांड का विभाजन या भेद : पुराणों ने ब्रह्मांड को मूलत: तीन भागों में विभक्त किया है:- (1) कृतक त्रैलोक्य (2) महर्लोक (3) अकृतक त्रैलोक्य।
 
(1) कृतक त्रैलोक्य-
कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन भी कहते हैं। इसके बारे में पुराणों कि धारणा है कि यह नश्वर है, कृष्ण इसे परिवर्तनशील मानते हैं। इसकी एक निश्‍चित आयु है। उक्त त्रैलोक्य के नाम है- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक।
 
A. भूलोक : जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है। सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं और भी पृथवियाँ।
B. भुवर्लोक : पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है। और भी कई सूर्य है जिनकी पृथवियाँ होगी।
C. स्वर्लोक : सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक या स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है।
 
पुराणों में उक्त त्रैलोक्य के भी कई तरह के विभाजन बताएँ गई है।
 
(2) महर्लोक - 
ध्रुवलोक से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है। कृतक के बाद जन, तप और सत्य नामक तीन लोक होते हैं जिन्हें अकृतक लोक कहते हैं। कृतक और अकृतक लोक के बीच स्थित है 'महर्लोक' जो कल्प के अंत की प्रलय में केवल जनशून्य हो जाता है, लेकिन नष्ट नहीं होता। इसीलिए इसे कृतकाकृतक भी लोक कहते हैं।
 
(3) अकृतक त्रैलोक्य -
कृतक और महर्लोंक के बाद जन, तप और सत्य लोक तीनों अकृतक लोक कहलाते हैं। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात जो नश्वर नहीं है अनश्वर है। जिसे मनुष्य स्वयं के सदकर्मो से ही अर्जित कर सकता है।
 
A. जनलोक : महर्लोक से बीस करोड़ योजन ऊपर जनलोक है।
B. तपलोक : जनलोक से आठ करोड़ योजन ऊपर तपलोक है।
C. सत्यलोक : तपलोक से बारह करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है।
 
नोट : उक्त सात लोकों के बारे में पुराणों ने विस्तार से अलग-अलग तरीके से लिखा है। पुराणों का यह ब्रह्मांड भेद वेदों पर ही आधारित माना जाता है, लेकिन वेदों में ब्रह्मांड को पंच कोशों वाला माना गया है। जहाँ तक 'योजन' का सवाल है तो यह स्पष्ट नहीं है। इसे अनुमानत: ही माने।
- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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