भारत का इतिहास अंग्रेजों ने लिखा जिसके चलते देश के हिन्दू और मुसलमानों में भ्रम और द्वेष की स्थिति फैल गई, जो आज तक फैली हुई है। इतिहास के इस भ्रम और झूठ को हटाकर अब लोगों को सत्य बताने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन इतिहास के सच को उसी तरह लिखा जाना चाहिए, जैसा कि वह है। जस का तस। किसी भी प्रकार की सचाई को छिपाना इतिहास के साथ खिलवाड़ करना है। जिस देश के पास अपना खुद का कोई सच्चा इतिहास नहीं, उस देश के नागरिकों में राष्ट्रीयता और गौरवबोध की भावना का विकास होना भी मुश्किल होता है।
उल्लेखनीय है कि संपूर्ण भारत पर कोई विदेशी पूर्णत: शासन नहीं कर पाया। हिन्दूकुश से लेकर अरुणाचल तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक युधिष्ठिर और उसके पूर्ववर्ती राजाओं के अलावा राजा विक्रमादित्य, चंद्रगुप्त मौर्य और मिहिरकुल ने ही संपूर्ण भारत पर शासन किया था। इसके बाद अंग्रेज काल में अफगानिस्तान को भारत से मुगल काल में ही अलग कर दिया गया था। ऐसे में अंग्रेजों ने जिस भारत पर शासन किया, वह एक खंडित भारत था।
सन् 187 ईपू में मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता बिखर गई। अब हिन्दूकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक एक ही राजवंश का आधिपत्य नहीं रहा और छोटे-छोटे जनपदों में देश बिखर गया। इस खंडित एकता के चलते देश के उत्तर-पश्चिमी मार्गों से कई विदेशी आक्रांताओं ने आकर अनेक भागों में अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए। इन विदेशियों के कारण ही भारत में एक ओर जहां वैचारिक भिन्नता का जन्म हुआ, वहीं विदेशी धर्मों का भी विकास हुआ। विदेशी लोगों के आगमन से जो एक सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ, उसका असर आज तक भारत पर देखने को मिलता है। उनके कारण जहां अखंड भारत खंड-खंड होता गया, वहीं भारतीयों में ही अब धर्म, जाति आदि के नाम पर फूट हो गई। जातियों के प्रति गहरी आस्था का कारण वर्ण संकर समाज से बचने का था। आज भारत में जो भी जातियां, धर्म या समाज नजर आते हैं, उन सभी की शुरुआत ईसा की प्रारंभिक तीन-चार शताब्दियों में हुई थी।
आओ, हम जानते हैं उन विदेशी आक्रांताओं के बारे में जिन्होंने भारत पर शासन करके भारतीय अस्मिता और गौरव को लगभग नष्ट करने का भरपूर प्रयास किया। उनमें से कुछ ऐसे भी शासक थे जिन्होंने भारतीय धर्म और संस्कृति को संरक्षण भी प्रदान कर भारतीय जनता को जीने का अधिकार दिया।
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यूनानी शासन (ईसा पूर्व) : यूनानियों ने भारत के पश्चिमी छोर के कुछ हिस्सों पर ही शासन किया। बौद्धकाल में अफगानिस्तान भी भारत का हिस्सा था। यूनानियों ने सबसे पहले इसी आर्याना क्षेत्र पर आक्रमण कर इसके कुछ हिस्सों को अपने अधीन ले लिया था। भारत पर आक्रमण करने वाले सबसे पहले आक्रांता थे बैक्ट्रिया के ग्रीक राजा। इन्हें भारतीय साहित्य में यवन के नाम से जाना जाता है। यवन शासकों में सबसे शक्तिशाली सिकंदर (356 ईपू) था जिसे उसके देश में अलेक्जेंडर और भारत में अलक्षेन्द्र कहा जाता था।
सिकंदर ने अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ भाग पर कब्जा कर लिया था। बाद में इस भाग पर उसके सेनापति सेल्यूकस ने शासन किया। हालांकि सेल्यूकस को ये भू-भाग चंद्रगुप्त मौर्य को समर्पित कर देने पड़े थे।
बाद के एक शासक डेमेट्रियस प्रथम (ईपू 220-175) ने भारत पर आक्रमण किया। ईपू 183 के लगभग उसने पंजाब का एक बड़ा भाग जीत लिया और साकल को अपनी राजधानी बनाया। युक्रेटीदस भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। डेमेट्रियस का अधिकार पूर्वी पंजाब और सिन्ध पर भी था। भारत में यवन साम्राज्य के दो कुल थे- पहला डेमेट्रियस और दूसरा युक्रेटीदस के वंशज।
मीनेंडर (ईपू 160-120) : यह संभवतः डेमेट्रियस के कुल का था। जब भारत में नौवां बौद्ध शासक वृहद्रथ राज कर रहा था, तब ग्रीक राजा मीनेंडर अपने सहयोगी डेमेट्रियस (दिमित्र) के साथ युद्ध करता हुआ सिन्धु नदी के पास तक पहुंच चुका था। सिन्धु के पार उसने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस मीनेंडर या मिनिंदर को बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा जाता है। हालांकि बाद में मीनेंडर ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था।
मिलिंद पंजाब पर राज्य करने वाले यवन राजाओं में सबसे उल्लेखनीय राजा था। उसने अपनी सीमा का स्वात घाटी से मथुरा तक विस्तार कर लिया था। वह पाटलीपुत्र पर भी आक्रमण करना चाहता था, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया।
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शक शासन (123 ई.पू–200 ईस्वी): हम यहां शक की बात कर रहे हैं शाक्यों की नहीं। शक और शाक्य मे फर्क है। शाक्य नेपालवंशी है तो शकों को विदेशी माना जाता है। शक कौन थे, इस पर विवाद हो सकता है। जो भी हो, शकों का भारत के इतिहास पर गहरा असर रहा है। शकों ने ही ई. 78 से शक संवत शुरू किया था। महाभारत में भी शकों का उल्लेख है। शुंग वंश के कमजोर होने के बाद भारत में शकों ने पैर पसारना शुरू कर दिया था।
कौन थे शक : शक शासकों को भी विदेशी माना जाता है, क्योंकि इन्होंने भारत के बाहर से आकर भारत के एक भू-भाग को हड़पकर भारत में शासन किया था। शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है। हालांकि यह शोध का विषय है। इसतिहाकारों में इसको लेकर मतभेद हैं।
ऐसा कहा जाता है कि पुराणों में शक जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए।
इतिहासकार मानते हैं कि शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था। 'युइशि' लोग तिब्बत के उत्तर-पश्चिम में तकला-मकान की मरुभूमि के सीमांत पर निवास करते थे। युइशि लोगों पर जब चीन के हूणों ने आक्रमण किया तो उनको अपना स्थान छोड़कर जाना पड़ा। उन्होंने शकों पर आक्रमण कर उनका स्थान हड़प लिया तब शकों को अपना स्थान छोड़कर जाना पड़ा। हूणों ने युइशियों को धकेला और युइशियों ने शकों को। शकों ने बाद में बैक्ट्रिया पर विजय प्राप्त कर हिन्दूकुश के मार्ग से भारत में प्रवेश किया। बैक्ट्रिया के यवन राज्य का अंत शक जाति के आक्रमण द्वारा ही हुआ था। शकों ने फिर पार्थिया के साम्राज्य पर आक्रमण किया। पारसी राजा मिथिदातस द्वितीय (123-88 ईपू) ने शकों के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा की। मिथिदातस की शक्ति से विवश शकों ने वहां से ध्यान हटाकर भारत की ओर लगा दिया।
भारत में शकों का शासन : संपूर्ण भारत पर शकों का कभी शासन नहीं रहा। भारत के जिस प्रदेश को शकों ने पहले-पहल अपने अधीन किया, वे यवनों के छोटे-छोटे राज्य थे। सिन्ध नदी के तट पर स्थित मीननगर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया। भारत का यह पहला शक राज्य था। इसके बाद गुजरात क्षेत्र के सौराट्र को जीतकर उन्होंने अवंतिका पर भी आक्रमण किया था। उस समय महाराष्ट्र के बहुत बड़े भू भाग को शकों ने सातवाहन राजाओं स छीना था और उनको दक्षिण भारत में ही समेट दिया था। दक्षिण भारत में उस वक्त पांडयनों का भी राज था।
एक जैन जनश्रुति के अनुसार भारत में शकों को आमंत्रित करने का श्रेय आचार्य कालक को है। ये जैन आचार्य उज्जैन के निवासी थे और वहां के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से तंग आकर सुदूर पश्चिम के पार्थियन राज्य में चले गए थे। कालकाचार्य ने शकों को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कालक के साथ शक लोग सिन्ध में प्रविष्ट हुए और इसके बाद उन्होंने सौराष्ट्र को जीतकर उज्जयिनी पर भी आक्रमण किया और वहां के राजा गर्दभिल्ल को परास्त किया।
शक राजाओं ने गांधार, सिन्ध, महाराष्ट्र, मथुरा और अवंतिका आदि क्षेत्रों के कुछ स्थानों पर लंबे काल तक राज किया था। उज्जयिनी का पहला स्वतंत्र शक शासक चष्टण था। इसने अपने अभिलेखों में शक संवत का प्रयोग किया है। इसके अनुसार इस वंश का राज्य 130 ई. से 388 ई. तक चला, जब संभवतः चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने इस कुल को समाप्त किया। उज्जैन के क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध रुद्रदामा (130 ई. से 150 ई.) था।
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कुषाण (लगभग 60–240 ई. तक) : कुषाण कौन थे यह भी शोध का विषय है, लेकिन उनमें से कुछ पारसी थे और भारत में रहने वाले बौद्ध थे। कुषाणों के बारे में मथुरा के इतिहासकार मानते हैं कि वे शिव के उपासक और कुष्मांडा जाति के थे। इस जाति के लोग प्राचीन काल में भारत से बाहर जाकर बस गए थे और जब वे शक्तिशाली बन गए तो उन्होंने भारत में अपने साम्राज्या का विस्तार किया। शक और कुषाणों के काल में रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था। पार्थियन, शक और कुषाणों ने मिलकर मध्य एशिया पर लंबे समय तक राज किया था।
कौन थे कुषाण ?: हालांकि इतिहासकार मानते हैं कि ये तिब्बत के युइशि (यूची) कबीले के लोग थे। यूची कबीले के लोगों ने हूणों के आक्रमण से घबराकर अपने क्षेत्र को छोड़कर उस समय सीर नदी की घाटी में रहने वाले शकों पर आक्रमण कर दिया। 25 ईपू के लगभग इस राज्य का स्वामी कुषाण या कुसान नाम का वीर पुरुष हुआ। उसने धीरे-धीरे अन्य युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। बाद में इनकी एक शाखा को शकों की तरह मध्य एशिया से खदेड़ दिया गया तो उन्होंने भी काबुल-कंधार का रुख किया।
कुषाणों का भारत में शासन : उस काल में यहां के हिन्दी-यूनानी कमजोर राजा थे। उनको आसानी से पराजित करने के बाद कुषाणों ने काबुल और कंधार पर अपना अधिकार कायम कर लिया। इस दौरान उनके प्रथम राजा का नाम कुजुल कडफाइसिस था। कुजुल ने भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसे हुए पल्लहवों को भी पराजित कर अपना शासन विस्तार कर लिया। बाद में कुषाणों का शासन पश्चिमी पंजाब तक हो गया था। कुजुल के पश्चात उसके पुत्र विम तक्षम ने कुषाण राज्य का और भी अधिक विस्तार किया। बाद में कुषाणों ने शुंग साम्राज्य के पश्चिमी भाग को अपने अधिकार में ले लिया। भारत में उन्होंने अपने विजित प्रदेशों का केंद्र मथुरा को बनाया। कुषाणों का शासन कभी भी पूर्वोत्तर भारत, दक्षिण भारत और गुजरात में नहीं रहा। हालांकि कुषाणों का साम्राज्य भारत से बाहर कहीं ज्यादा विशाल था। उनका सम्राज्य चीन, मंगोल, कजाकिस्तान तक फैला था। दक्षिण भारत में उस वक्त सातवाहन और पांडयन राजाओं का राज था, तो ओड़िसा, बंगाल आदि क्षेत्र में कलिंग का राज था।
सम्राट कनिष्क प्रथम (127 ई. से 140-50 ई. लगभग) : कुषाणों में सबसे शक्तिशाली सम्राट हुआ कनिष्क। अफगानिस्तान के बच्चों के नाम और उनके यहां के स्थानों के नाम आज भी कनिष्क के नाम पर मिल जाएंगे। सम्राट कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिन्ध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था। कुषाण राजाओं में क्रमश: कुजुल कडफाइसिस, विम तक्षम, विम कडफाइसिस, कनिष्क प्रथम, वासिष्क, हुविष्क, वासुदेव कुषाण प्रथम, कनिष्क द्वितीय, वशिष्क, कनिष्क तृतीय और वासुदेव कुषाण द्वितीय का नाम प्रमुख है। 151 ईस्वी में कनिष्क की मृत्यु हो गई थी।
कनिष्क का साम्राज्य बहुत विस्तृत था। उसकी उत्तरी सीमा चीन के साथ छूती थी। चीन की सीमा तक विस्तृत विशाल कुषाण के लिए कनिष्क ने एक नए कुसुमपुर (पाटलीपुत्र) की स्थापना की और उसे 'पुष्पपुर' नाम दिया। यही आजकल का पेशावर है, जो अब पाकिस्तान में है। पेशावर में कनिष्क ने एक प्रमुख एक स्तूप बनाया था। महाराज हर्षवर्धन के शासनकाल (7वीं सदी) में जब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-एन-त्सांग भारत भ्रमण करने के लिए आया, तो इस विशाल स्तूप को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया था।
उल्लेखनीय है कि कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरंभ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय (शिव के पुत्र) और उसके अन्य नामों- विशाख, महासेना और स्कंद का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया। माना जाता है कि इराक के यजीदी लोग भी कार्तिकेय की पूजा करते हैं और उनका संबंध भी कनिष्क से था।
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हूणों का शासन : हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश और बर्बर जाति थी। भारतीय इतिहास में हूणों के राजा तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरगुल का नाम प्रसिद्ध है। हूणों ने पंजाब और मालवा की विजय करने के बाद भारत में स्थायी निवास बना लिया था। उत्तर-पश्चिम भारत में हूणों द्वारा तबाही और लूट के अनेक उल्लेख मिलते हैं। हूणों का राज अफगानिस्तान सहित पश्चिम, उत्तर और मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर ही रहा। दक्षिण भारत पर नहीं।
हूणों के बारे में जानने के लिए उपरोक्त लिंक पर क्लिक करें...। इतिहासकार मानते हैं कि हूण उत्तरी चीन की एक बर्बर जाति थी। हालांकि भारत के पौराणिक इतिहास में इनके बारे में कुछ और ही उल्लेख मिलता है। मथुरा, उत्तरप्रदेश में हूणों ने मंदिरों, बुद्ध और जैन स्तूपों को क्षति पहुंचाई और लूटमार की। मथुरा में हूणों के अनेक सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
अंत में मालवा के राजा यशोवर्मन और बालादित्य ने मिलकर 528 ईस्वी में हूणों के राजा तोरमाण को हरा दिया। हूण भारत में ही बस गए और उन्होंने यहां के धर्म, कला और संस्कृति को बढ़ाने में बहुत योगदान दिया।
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अरब-ईरानी शासन (711-715 ई.) : शक, कुषाण और हूणों के पतन के बाद भारत का पश्चिमी छोर कमजोर पड़ गया, तब अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्से फारस साम्राज्य के अधीन थे तो बाकी भारतीय राजाओं के, जबकि बलूचिस्तान एक स्वतंत्र सत्ता थी। 7वीं सदी के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान भारत के हाथ में ज्यादा रहा। भारत में इस्लामिक शासन का विस्तार 7वीं शताब्दी के अंत में मोहम्मद बिन कासिम के सिन्ध पर आक्रमण और बाद के मुस्लिम शासकों द्वारा हुआ। लगभग 712 में इराकी शासक अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिन्ध के अभियान का सफल नेतृत्व किया।
इस्लाम के प्रवेश के पहले अफगानिस्तान (कम्बोज और गांधार) में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म यहां के राजधर्म थे। मोहम्मद बिन कासिम ने बलूचिस्तान को अपने अधीन लेने के बाद सिन्ध पर आक्रमण कर दिया। सिन्ध के ब्राह्मण राजा दाहिरसेन का बेरहमी से कत्ल कर उसकी पुत्रियों को बंधक बनाकर ईरान के खलीफाओं के लिए भेज दिया गया था। कासिम ने सिन्ध के बाद पंजाब और मुल्तान को भी अपने अधीन कर लिया।
इस्लामिक खलीफाओं ने सिन्ध फतह के लिए कई अभियान चलाए। 10 हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिन्ध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया।
उस दौर में अफगानिस्तान में हिन्दू राजशाही के राजा अरब और ईरान के राजाओं से लड़ रहे थे। अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे और वे सभी वैदिक धर्म का पालन करते थे, फिर बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया। 6ठी सदी तक यह एक हिन्दू और बौद्ध बहुल क्षेत्र था। यहां के अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दू राजा राज करते थे। उनकी जाति कुछ भी रही हो, लेकिन वे सभी आर्य थे। वे तुर्क और पठान (पख्तून) आर्यवंशीय राजा थे। हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह' या ‘महाराज धर्मपति' कहा जाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनंदपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं।
इन काबुलशाही राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिन्धु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया, लेकिन 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू हुआ। सैकड़ों सालों तक लड़ाइयां चलीं और अंत में 1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया। काफिरिस्तान को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए।
714 ईस्वी में हज्जाज की और 715 ई. में मुस्लिम खलीफा की मृत्यु के उपरांत मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। कासिम के जाने के बाद बहुत से क्षेत्रों पर फिर से भारतीय राजाओं ने अपना अधिकार जमा लिया, परंतु सिन्ध के राज्यपाल जुनैद ने सिन्ध और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक शासन को जमाए रखा। जुनैद ने कई बार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण किए लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। नागभट्ट प्रथम, पुलकेशी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे वापस खदेड़ दिया।
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गजनवी तुर्क शासन (977 से) : अरबों के बाद तुर्कों ने भारत पर आक्रमण किया। अलप्तगीन नामक एक तुर्क सरदार ने गजनी में तुर्क साम्राज्य की स्थापना की। 977 ई. में अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी पर शासन किया। सुबुक्तगीन ने मरने से पहले कई लड़ाइयां लड़ते हुए अपने राज्य की सीमाएं अफगानिस्तान, खुरासान, बल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैला ली थीं। सुबुक्तगीन की मुत्यु के बाद उसका पुत्र महमूद गजनवी गजनी की गद्दी पर बैठा। महमूद गजनवी ने बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करना शुरू किए।
इस्लाम के विस्तार और धन, सोना तथा स्त्री प्राप्ति के उद्देश्य से उसने भारत पर 1001 से 1026 ई. के बीच 17 बार आक्रमण किए। गजनवी के आक्रमण के समय भारत में अन्य हिस्सों पर राजपूत राजाओं का शासन था। 10वीं शताब्दी ई. के अंत तक भारत अपने पश्चिमोत्तर क्षेत्र जाबुलिस्तान तथा अफगानिस्तान खो चुका था। 999 ई. में जब महमूद गजनवी सिंहासन पर बैठा, तो उसने प्रत्येक वर्ष भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करने की प्रतिज्ञा की।
महमूद गजनवी के आक्रमण के समय पंजाब एवं काबुल में हिन्दूशाही वंश का शासन था। कश्मीर की शासिका रानी दिद्दा थीं। दिद्दा की मुत्यु के बाद संग्रामराज गद्दी पर बैठा। सिन्ध पर पहले से ही अरबों का राज था। मुल्तान पर शिया मुसलमानों का राज था। कन्नौज में प्रतिहार, बंगाल में पाल वंश, दिल्ली में तोमर राजपूतों, मालवा में परमार वंश, गुजरात में चालुक्य वंश, बुंदेलखंड में चंदेल वंश, दक्षिण में चोल वंश का शासन था।
महमूद गजनवी के 17 आक्रमण : दूसरे आक्रमण में महमूद ने जयपाल को हराया। जयपाल के पौत्र सुखपाल ने इस्लाम कबूल कर लिया। 4थे आक्रमण में भटिंडा के शासक आनंदपाल को पराजित किया। 5वें आक्रमण में पंजाब फतह और फिर पंजाब में सुखपाल को नियुक्त किया, तब उसे (सुखपाल को) नौशाशाह कहा जाने लगा। 6ठे और 7वें आक्रमण में नगरकोट और अलवर राज्य के नारायणपुर पर विजय प्राप्त की। आनंदपाल को हराया, जो वहां से भाग गया।
आनंदपाल ने नंदशाह को अपनी नई राजधानी बनाया तो वहां पर भी गजनवी ने आक्रमण किया। 10वां आक्रमण नंदशाह पर था। उस वक्त वहां का राजा त्रिलोचन पाल था। त्रिलोचनपाल ने वहां से भागकर कश्मीर में शरण ली। नंदशाह पर तुर्कों ने खूब लूटपाट ही नहीं की बल्कि यहां की महिलाओं का हरण भी किया। महमूद ने 11वां आक्रमण कश्मीर पर किया, जहां का राजा भीमपाल और त्रिलोचन पाल था।
इसके बाद महमूद ने कन्नौज पर आक्रमण किया। उसने बुलंदशहर के शासक हरदत्त को पराजित किया। अपने 13वें अभियान में गजनवी ने बुंदेलखंड, किरात तथा लोहकोट आदि को जीत लिया। 14वां आक्रमण ग्वालियर तथा कालिंजर पर किया। अपने 15वें आक्रमण में उसने लोदोर्ग (जैसलमेर), चिकलोदर (गुजरात) तथा अन्हिलवाड़ (गुजरात) पर आक्रमण कर वहां खूब लूटपाट की।
महमूद गजनवी ने अपना 16वां आक्रमण (1025 ई.) सोमनाथ पर किया। उसने वहां के प्रसिद्ध मंदिरों को तोड़ा और वहां अपार धन प्राप्त किया। इस मंदिर को लूटते समय महमूद ने लगभग 50,000 ब्राह्मणों एवं हिन्दुओं का कत्ल कर दिया। इसकी चर्चा पूरे देश में आग की तरह फैल गई। 17वां आक्रमण उसने सिन्ध और मुल्तान के तटवर्ती क्षेत्रों के जाटों के पर किया। इसमें जाट पराजित हुए।
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गोर तुर्क शासन : मोहम्मद बिन कासिम के बाद महमूद गजनवी और उसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर अंधाधुंध कत्लेआम और लूटपाट मचाई। इसका पूरा नाम शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद गौरी था। भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय मुहम्मद गौरी को ही जाता है। गौरी गजनी और हेरात के मध्य स्थित छोटे से पहाड़ी प्रदेश गोर का शासक था। मुहम्मद गौरी ने भी भारत पर कई आक्रमण किए।
उसने पहला आक्रमण 1175 ईस्वी में मुल्तान पर किया, दूसरा आक्रमण 1178 ईस्वी में गुजरात पर किया। इसके बाद 1179-86 ईस्वी के बीच उसने पंजाब पर फतह हासिल की। इसके बाद उसने 1179 ईस्वी में पेशावर तथा 1185 ईस्वी में स्यालकोट अपने कब्जे में ले लिया। 1191 ईस्वी में उसका युद्ध पृथ्वीराज चौहान से हुआ। इस युद्ध में मुहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस युद्ध में गौरी को बंधक बना लिया गया, लेकिन पृथ्वीराज चौहान ने उसे छोड़ दिया। इसे तराईन का प्रथम युद्ध कहा जाता था। इसके बाद मुहम्मद गौरी ने अधिक ताकत के साथ पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया। तराईन का यह द्वितीय युद्ध 1192 ईस्वी में हुआ था। अबकी बार इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान हार गए और उनको बंधक बना लिया गया, लेकिन उनकी हत्या कर दी गई।
पृथ्वीराज चौहान के बाद मुहम्मद गौरी ने राजपूत नरेश जयचंद्र के राज्य पर 1194 में आक्रमण कर दिया। इसे चन्दावर का युद्ध कहा जाता है जिसमें जयचंद्र को बंधक बनाकर उनकी हत्या कर दी गई। जयचंद्र को पराजित करने के बाद मुहम्मद गौरी खुद के द्वारा फतह किए गए राज्यों की जिम्मेदारी को उसने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दी और वह खुद गजनी चला गया।
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गुलाम वंश (1206-1290) : 1206 से 1290 ई. के मध्य 'दिल्ली सल्तनत' पर जिन तुर्क शासकों द्वारा शासन किया गया उन्हें गुलाम वंश का शासक कहा जाता है। गुलाम वंश का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था। उसने 1194 ई. में अजमेर को जीतकर यहां पर स्थित जैन मंदिर एवं संस्कृत विश्वविद्यालय को नष्ट कर उनके मलबे पर क्रमशः ‘कुव्वल-उल-इस्लाम’ एवं ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ का निर्माण करवाया। इसके अलावा उसने दिल्ली स्थित ध्रुव स्तंभ के आसपास को नक्षत्रालयों को तोड़कर बीच के स्तंभ को 'कुतुबमीनार' नाम दिया।
ऐबक ने 1202-03 ई. में बुन्देलखंड के मजबूत कालिंजर किले को जीता। 1197 से 1205 ईस्वी के मध्य ऐबक ने बंगाल एवं बिहार पर आक्रमण कर उदंडपुर, बिहार, विक्रमशिला एवं नालंदा विश्वविद्यालय पर अधिकार कर लिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद क्रमश: ये शासक हुए- आरामशाह, इल्तुतमिश, रुकुनुद्दीन फिरोजशाह, रजिया सुल्तान, मुइजुद्दीन बहरामशाह, अलाउद्दीन मसूद, नसीरुद्दीन महमूद। इसके बाद अन्य कई शासकों के बाद उल्लेखनीय रूप से गयासुद्दीन बलबन (1250-1290) दिल्ली का सुल्तान बना। गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक शासन किया। दिल्ली पर यह प्रथम मुस्लिम शासक था। इस वंश का संपूर्ण भारत नहीं, सिर्फ उत्तर भारत पर ही शासन था।
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खिलजी वंश (1290-1320 ई.) : गुलाम वंश के बाद दिल्ली पर खिलजी वंश के शासन की शुरुआत हुई। इस वंश या शासन की शुरुआत जलालुद्दीन खिलजी ने की थी। खिलजी कबीला मूलत: तुर्किस्तान से आया था। इससे पहले यह अफगानिस्तान में बसा था।
जलालुद्दीन खिलजी प्रारंभ में गुलाम वंश की सेना का एक सैनिक था। गुलाम वंश के अंतिम कमजोर बादशाह कैकुबाद के पतन के बाद एक गुट के सहयोग से यह गद्दी पर बैठा।
जलालुद्दीन के भतीजे जूना खां ने दक्कन के राज्य पर चढ़ाई करके एलिचपुर और उसके खजाने को लूट लिया और फिर 1296 में वापस लौटकर उसने अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और स्वयं सुल्तान बन बैठा। जूना खां ने 'अलाउद्दीन खिलजी' की उपाधि धारण कर 20 वर्ष तक शासन किया। इस शासन के दौरान उसने आए दिन होने वाले मंगोल (मुगल) आक्रमणों का मुंहतोड़ जवाब दिया। इसी 20 वर्ष के शासन में उसने रणथम्भौर, चित्तौड़ और मांडू के किलों पर कब्जा कर लिया था और देवगिरि के समृद्ध हिन्दू राज्यों को तहस-नहस कर अपने राज्य में मिला लिया था।
जलालुद्दीन खिलजी के बाद दिल्ली पर इन्होंने क्रमश: शासन किया- अलाउद्दीन खिलजी, शिहाबुद्दीन उमर खिलजी और कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी। इसके अलावा मालवा के खिलजी वंश का द्वितीय सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी भी खिलजी वंश का था जिसने मरने के पहले ही अपने पुत्र को गद्दी पर बैठा दिया था।
अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने 1308 ईस्वी में दक्षिण भारत पर आक्रमण कर होयसल वंश को उखाड़ मदुरै पर अधिकार कर लिया। 3 वर्ष बाद मलिक काफूर दिल्ली लौटा तो उसके बाद अपार लूट का माल था। 1316 ई. के आरंभ में सुल्तान की मृत्यु हो गई। अंतिम खिलजी शासक कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी की उसके प्रधानमंत्री खुसरो खां ने 1320 ईस्वी में हत्या कर दी। बाद में तुगलक वंश के प्रथम शासक गयासुद्दीन तुगलक ने खुसरो खां से गद्दी छीन ली।
तुगलक वंश : खिलजी वंश के बाद दिल्ली सल्तनत तुगलक वंश के अधीन आ गई। गयासुद्दीन तुगलक 'गाजी' सुल्तान बनने से पहले कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी के शासनकाल में उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत का शक्तिशाली गवर्नर नियुक्त हुआ था। उसे 'गाजी' की उपाधि मिली थी। गाजी की उपाधि उसे ही मिलती है, जो काफिरों का वध करने वाला होता है।
तुगलक वंश के शासकों ने भी गुलाम, खिलजी की तरह दिल्ली सहित उत्तर और मध्यभारत के कुछ क्षेत्रों पर राज्य किया जिसमें क्रमश: गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक, फिरोजशाह तुगलक, नसरत शाह तुगलक और महमूद तुगलक आदि ने दिल्ली पर शासन किया। यद्यपि तुगलक 1412 तक शासन करता रहा तथापि 1399 में तैमूरलंग द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के साथ ही तुगलक साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए।
इस वंश का आरंभ तुगलक वंश के अंतिम शासक महमूद तुगलक की मृत्यु के पश्चात खिज्र खां से 1414 ई. में हुआ। इस वंश के प्रमुख शासक थे- सैयद वंश (1414-1451 ईस्वी) : खिज्र खां, मुबारक शाह, मुहम्मद शाह और अलाउद्दीन आलम शाह। अंतिम सुल्तान ने 1451 ई. में बहलोल लोदी को सिंहासन समर्पित कर दिया।
लोदी वंश (1451 से 1426 ईस्वी) : कई अफगान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। इन सरदारों में सबसे महत्वपूर्ण बहलोल लोदी था। दिल्ली के शासक पहले तुर्क थे, लेकिन लोदी शासक अफगान थे। बहलोल लोदी के बाद सिकंदर शाह लोदी और इब्राहीम लोदी ने दिल्ली पर शासन किया। इब्राहीम लोदी 1526 ई. में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर के हाथों मारा गया और उसी के साथ ही लोदी वंश भी समाप्त हो गया।
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मुगल और अफगान (1525-1556) : चंगेज खां के बाद तैमूरलंग शासक बनना चाहता था। वह चंगेज का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। चंगेज खां तो चीन के पास मंगोलिया देश का था। चंगेज खां एक बहुत ही वीर और साहसी मंघोल सरदार था। यह मंघोल ही मंगोल और फिर मुगल हो गया। सन् 1211 और 1236 ई. के बीच भारत की सरहद पर मंगोलों ने कई आक्रमण किए। इन आक्रमणों का नेतृत्व चंगेज खां कर रहा था। मंगोलों के इन आक्रमणों से पहले गुलाम वंश, फिर खिलजी और बाद में तुगलक और लोदी वंश के राजा बचते रहे। चंगेज 100-150 वर्षों के बाद तैमूरलंग ने पंजाब तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। तैमूर 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। तैमूर भारत में मार-काट और बरबादी लेकर आया। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। तैमूर मंगोलों की फौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और हिन्दू और मुसलमान दोनों ही कत्ल किए गए। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह वापस समरकंद लौट गया।
1494 में ट्रांस-आक्सीयाना की एक छोटी-सी रियासत फरगना का बाबर उत्तराधिकारी बना। उजबेक खतरे से बेखबर होकर तैमूर राजकुमार आपस में लड़ रहे थे। बाबर ने भी अपने चाचा से समरकंद छीनना चाहा। उसने दो बार उस शहर को फतह किया, लेकिन दोनों ही बार उसे जल्दी ही छोड़ना पड़ा। दूसरी बार उजबेक शासक शैबानी खान को समरकंद से बाबर को खदेड़ने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसने बाबर को हराकर समरकंद पर अपना झंडा फहरा दिया। बाबर को एक बार फिर काबुल लौटना पड़ा। इन घटनाओं के कारण ही अंततः बाबर ने भारत की ओर रुख किया।
1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में दिल्ली सल्तनत के अंतिम वंश (लोदी वंश) के सुल्तान इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ ही भारत में मुगल वंश की स्थापना हो गई। इस वंश का संस्थापक बाबर था जिसका पूरा नाम जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर था। इतिहासकार मानते हैं कि बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर का 5वां एवं माता की ओर से चंगेज खां (मंगोल नेता) का 14वां वंशज था। वह खुद को मंगोल ही मानता था, जबकि उसका परिवार तुर्की जाति के 'चगताई वंश' के अंतर्गत आता था। पंजाब पर कब्जा करने के बाद बाबर ने दिल्ली पर हमला कर दिया।
बाबर ने कई लड़ाइयां लड़ीं। उसने घूम-घूमकर उत्तर भारत के मंदिरों को तोड़ा और उनको लूटा। उसने ही अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी। बाबर केवल 4 वर्ष तक भारत पर राज्य कर सका। उसके बाद उसका बेटा नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं दिल्ली के तख्त पर बैठा। हुमायूं के बाद जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, अकबर के बाद नूरुद्दीन सलीम जहांगीर, जहांगीर के बाद शाहबउद्दीन मुहम्मद शाहजहां, शाहजहां के बाद मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब, औरंगजेब के बाद बहादुर शाह प्रथम, बहादुर शाह प्रथम के बाद अंतिम मुगल बहादुर शाह जफर दिल्ली का सुल्तान बना।
इसके अलावा दक्षिण में बहमनी वंश (347-1538) और निजामशाही वंश (1490-1636) प्रमुख रहे, जो दक्षिण के हिन्दू साम्राज्य विजयनगरम साम्राज्य से लड़ते रहते थे।
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अंग्रेज काल...
कंपनी का राज : 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंबई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर कब्जा कर लिया। उधर फ्रांसीसियों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज जब भारत पर कब्जा करने में लगे थे तब भारत में मराठों, राजपूतों, सिखों और कई छोटे-मोटे साम्राज्य के साथ ही कमजोर मुगल शासक बहादुर शाह जफर का दिल्ली पर शासन था तो हैदराबाद में निजामशाही वंश का शासन था। अंग्रेजों को सबसे कड़ा मुकाबला मराठों, सिखों और राजपूतों से करना पड़ा।
मैसूर के साथ 4 लड़ाइयां, मराठों के साथ 3, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ 2-2 लड़ाइयां तथा सिन्ध के अमीरों, गोरखों तथा अफगानिस्तान के साथ 1-1 लड़ाई छेड़ी गई। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कंपनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। इस तरह भारतीय राजाओं की आपसी फूट का फायदा उठाते हुए धीरे-धीरे कंपनी ने संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों ने साजिशों का पूरा जाल फैला रखा था। कंपनी के शासनकाल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक 22 गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा।
ब्रिटिश राज : 1857 के विद्रोह के बाद कंपनी के हाथ से भारत का शासन बिटिश राज के अंतर्गत आ गया। 1857 से लेकर 1947 तक ब्रिटेन का राज रहा। इससे पहले कंपनी ने लगभग 100 वर्षों तक भारत पर राज किया। कुल 200 वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत पर राज किया। 1947 में अंग्रेजों ने शेष भारत का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया।