प्रभु श्रीराम की गलत छवि प्रस्तुत करने का मकसद हिन्दुओं को विभाजित कर राजनीति करना हो सकता है। राम को महज एक राजा मानना या उन्हें एक काल्पनिक पात्र मानना निश्चित ही यह दर्शाता है कि ऐसे लोगों का कोई खास मकसद है या कि वे पूर्णत: अनभिज्ञ है या कि वे वही बातें मान रहे हैं जो कि गुलामी के काल में उन्हें बताई गई थी। दरअसल, भगवान राम के संबंध में जो आलोचना करते हैं चाहे वे किसी भी धर्म के हों, उन्होंने यदि वाल्मीकि रामायण पढ़ी होती और कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण किया होता, इस दौरान राम पर हुए शोधपत्रों को पढ़ा होता तो निश्चित ही उनके मन से यह भ्रम और विरोधाभास निकल जाता। खैर...
भगवान राम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा गया है अर्थात पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ उत्तम पुरुष। अपने वनवास के दौरान उन्होंने देश के सभी आदिवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी। इस दौरान उन्होंने सादगीभरा जीवन जिया। उन्होंने देश के सभी संतों के आश्रमों को बर्बर लोगों के आतंक से बचाया। इसका उदाहरण सिर्फ रामायण में ही नहीं, देशभर में बिखरे पड़े साक्ष्यों में आसानी से मिल जाएगा। भगवान राम भारत निर्माता थे। उन्होंने ही सर्वप्रथज्ञ भारत की सभी जातियों और संप्रदायों को एक सूत्र में बांधने का कार्य अपने 14 वर्ष के वनवान के दौरान किया था।
14 वर्ष के वनवास में से अंतिम 2 वर्ष को छोड़कर राम ने 12 वर्षों तक भारत के आदिवासियों और दलितों को भारत की मुख्य धारा से जोड़ कर उन्हें श्रेष्ठ बनाया। यदि आप निषाद, वानर, मतंग और रीछ समाज की बात करेंगे तो ये उस काल के दलित या आदिवासी समाज के लोग ही हुआ करते थे। ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिससे पता चलेगा कि राम ने आदिवासियों और दलितों के लिए क्या क्या किया। आज उमें से कई ऐसे समाज है जो श्रेष्ठता के क्रम में उपर जाकर छत्रिय या ब्राह्मण हो गए है। आजो जानते हैं प्रभु श्रीराम के योगदान को।
*शुरुआत होती है केवट प्रसंग से। अयोध्या से 20 किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। केवट कौन था? केवट कीर समाज का दलित था। अपने पिछले जन्म से ही वह प्रभु श्रीराम का भक्त था। केवट प्रसंग पढ़िये, बहुत प्यारा प्रसंग है। प्रभु श्रीराम उसे नाव से पार कराने का मेहताना देने लगते हैं, लेकिन केवट कहता है कि हे प्रभु मैंने आपको नाव से इस पार उतारा है अब आब मुझे इस भवसागर से उस पार उतारें यही मेरा मूल्य है। पार किया मैंने तुमको अब तुम मोहे पार करो।
*इसके बाद चित्रकूट में रहकर उन्होंने धर्म और कर्म की शिक्षा दीक्षा ली। यहीं पर वाल्मीकि आश्रम और मांडव्य आश्रम था। यहीं पर से राम के भाई भरत उनकी चरण पादुका ले गए थे। चित्रकूट के पास ही सतना में अत्रि ऋषि का आश्रम था। वाल्मीकि एक डाकू थे और भील जाति के लोगों के बीच पले बड़े हुए थे। उन्होंने ही रामायण लिखी थी।
*अत्रि को राक्षसों से मुक्ति दिलाने के बाद प्रभु श्रीराम दंडकारण्य क्षेत्र में चले गए, जहां आदिवासियों की बहुलता थी। यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के बाद प्रभु श्रीराम 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे। यहीं पर उनकी जटायु से मुलाकात हुई थी, जो उनका मित्र था। जब रावण सीता को हरण करके ले गया था, तब सीता की खोज में राम का पहला सामना शबरी से हुआ था। शबरी कौन थी यह सभी जानते हैं। इसके बाद वानर जाति के हनुमान और सुग्रीव से प्रभु श्रीराम की मुलाकात हुई थी।
वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस दंडकारण्य इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।
इसी दंडकारण्य क्षेत्र में रहकर राम ने अखंड भारत के सभी दलितों को अपना बनाया और उनको श्रेष्ठ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा दी। वर्तमान में आदिवासियों, वनवासियों और दलितों के बीच जो धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा, रीति और रिवाज हैं वे सभी प्रभु श्रीराम की देन है। भगवान राम भी वनवासी ही थे। उन्होंने वन में रहकर संपूर्ण वनवासी समाज को एक दूसरे से जोड़ा और उनको सभ्य एवं धार्मिक तरीके से रहना सिखाया। बदले में प्रभु श्रीराम को जो प्यार मिला वह सर्वविदित है।
*भारतीय राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र, अंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, केरल, कर्नाटक सहित नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम इसीलिए जिंदा हैं। श्रीराम ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धार्मिक आधार पर संपूर्ण अखंड भारत के दलित और आदिवासियों को एकजुट कर दिया था। इस संपूर्ण क्षेत्र के आदिवासियों में राम और हनुमान को सबसे ज्यादा पूजनीय इसीलिए माना जाता है। लेकिन अंग्रेज काल में ईसाइयों ने भारत के इसी हिस्से में धर्मांतरण का कुचक्र चलाया और राम को दलितों से काटने के लिए सभी तरह की साजिश की, जो आज भी जारी है।
राम राजा नहीं भगवान : जब भी कोई अवतार जन्म लेता है तो उसके कुछ चिह्न या लक्षण होते हैं और उसके अवतार होने की गवाही देने वाला कोई होता है। राम ने जब जन्म लिया तो उनके चरणों में कमल के फूल अंकित थे, जैसा कि कृष्ण के चरणों में थे। राम के साथ हनुमान जैसा सर्वशक्तिमान देव को होना इस बात की सूचना है कि राम भगवान थे। रावण जैसा विद्वान और मायावी क्या एक सामान्य पुरुष के हाथों मारा जा सकता है? इन सबको छोड़ भी दें तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र ने इस बात की पुष्टि की कि राम सामान्य पुरुष नहीं, भगवान हैं और वह भी विष्णु के अवतार। इक्ष्वाकु वंश में एक नहीं, कई भगवान हुए उनमें से सबसे पहला नाम ऋषभनाथ का आता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे।
शूद्र और राम : वैसे तो राम के काल में कोई ऊंचा या नीचा नहीं होता था। भगवान किसी जातिवर्ग के नहीं होते और न ही वे मनुष्य जाति में भेद करते हैं। रामायण काल में जातिगत जो भिन्नता थी वह मनुष्यों के रंग, रूप और आकार को लेकर थी। जैसे वानर, ऋक्ष, रक्ष और किरात जातियां मनुष्य से भिन्न थी। केवट, शबरी, जटायु, सुग्रीव और संपाति आदि से राम के संबंध दर्शाते हैं कि उस काल में ऐसी कोई जातिगत भावना नहीं थी, जो आज हमें देखने को मिलती है। हनुमानजी के गुरु मतंग ऋषि आज की जातिगत व्यवस्था अनुसार तो दलित ही कहलाएंगे?
श्रीराम ने 14 वर्ष वन में रहकर भारतभर में भ्रमण कर भारतीय आदिवासी, जनजाति, पहाड़ी और समुद्री लोगों के बीच सत्य, प्रेम, मर्यादा और सेवा का संदेश फैलाया। यही कारण रहा की श्रीराम का जब रावण से युद्ध हुआ तो सभी तरह की वनवासी और आदिवासी जातियों ने श्रीराम का साथ दिया।
श्रीरामचरित के संवाद नहीं है श्रीराम के वचन : यह तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस में लिखा- 'ढोल गवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।' ऐसा श्रीश्रीराम ने कभी नहीं कहा। यदि रामानंद सागर कोई रामायण लिखते हैं और वे अपनी इच्छा से जब श्रीराम के डॉयलाग लिखते हैं, तो इसका यह मतलब तो नहीं लगाना चाहिए कि ऐसा श्रीराम ने बोला है। तुलसीदास द्वारा लिखे गए इस एक वाक्य के कारण श्रीराम की बहुत बदनामी हुई। कोई यह नहीं सोचता कि जब कोई लेखक अपने तरीके से रामायण लिखता है तो उस समय उस पर उस काल की परिस्थिति और अपने विचार ही हावी रहते हैं।