महाबली राजा बलि के 10 रहस्य, जानिए...

राजा बलि : असुरों के राजा बलि या बाली की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। दान-पुण्य करने में वह कभी पीछे नहीं रहता था। उसकी सबसे बड़ी खामी यह थी कि उसे अपनी शक्तियों पर घमंड था और वह खुद को ईश्वर के समकक्ष मानता था और वह देवताओं का घोर विरोधी था। भारतीय और हिन्दू इतिहास में राजा बलि की कहानी सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है।

ऐसा माना जाता है कि प्राचीनकाल में देवी और देवता हिमालय क्षेत्र में रहते थे। हिमालय में ही देवराज इंद्र का एक क्षेत्र था जिसमें नंदन कानन वन था। इंद्र के इस क्षेत्र के पास ही गंधर्वों का क्षेत्र था। यहीं पर कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का निवास था। पहले धरती पर बर्फ की अधिकता थी और अधिकतर हिस्सा जलमग्न था। मानव गुफाओं में रहता था और सुर और असुर अपनी शक्तियों के बल पर संपूर्ण धरती पर विचरण करते थे। नागलोक का विस्तार दूर-दूर तक था और समुद्र में विचित्र-विचित्र किस्म के प्राणियों का जन्म हो चुका था।

धनतेरस और ओणम पर्व राजा बालि की याद में मनाया जाता है।

प्रारंभिक जातियां- सुर और असुर कौन थे?
आप किसकी तरफ हैं : सुर या असुर?

प्राचीनकाल में सुर और असुरों का ही राज्य था। सुर को देवता और असुरों को दैत्य कहा जाता था। दानवों और राक्षसों की प्रजाति अलग होती थी। गंधर्व, यक्ष और किन्नर भी होते थे। असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य भगवान शिव के भक्त और सुरों के पुरोहित बृहस्पति भगवान विष्णु के भक्त थे। इससे पहले भृगु और अंगिरा ऋषि असुर और देव के पुरोहित पद पर थे। सुर और असुरों में साम्राज्य, शक्ति, प्रतिष्ठा और सम्मान की लड़ाई चलती रहती थी।

दुनिया में दो ही तरह के धर्मों में प्राचीनकाल से झगड़ा होता आया है। एक वे लोग जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के धर्म को मानते हैं और दूसरे वे लोग जो दैत्यों (असुरों) के गुरु शुक्राचार्य के धर्म को मानते आए हैं।
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राजा बलि के पूर्व जन्म की कथा : पौराणिक कथाओं अनुसार राजा बलि अपने पूर्व जन्म में एक जुआरी थे। एक जुए से उन्हें कुछ धन मिला। उस धन से इन्होंने अपनी प्रिय वेश्या के लिए एक हार खरीदा। बहुत खुशी-खुशी ये हार लेकर वेश्या के घर जाने लगा। लेकिन रास्ते में ही इनको मृत्यु ने घेर लिया। यह मरने ही वाला था कि इसने सोचा कि अब ये हार वेश्या तक तो पहुंचा नहीं पाऊंगा, चलो इसे शिव को ही अर्पण कर दूं। ऐसा सोचकर उसने हार शिव को अर्पण कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।

मरकर वह यमराज के समक्ष उपस्‍थित हुआ। चित्रगुप्त ने उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखकर कहा कि इसने तो पाप ही पाप किए हैं, लेकिन मरते-समय इसने जुए के पैसे से वेश्या के लिए खरीदा हार ‘शिवार्पण’ कर दिया है। ये ही एकमात्र इसका पुण्य है। चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने उससे (जुआरी बलि से) पूछा- रे पापी, तू ही बता पहले पाप का फल भोगोगे कि पुण्य का। जुआरी ने कहा कि पाप तो बहुत हैं, पहले पुण्य का फल दे दो। उस पुण्य के बदले उसे दो घड़ी के लिए इंद्र बनाया गया।

इंद्र बनने पर वह अप्सराओं के नृत्य और सुरापान का आनंद लेने लगा। तभी नारदजी आते हैं, उसे देखकर हंसते हैं और एक बात बोलते हैं कि अगर इस बात में संदेह हो कि स्वर्ग-नर्क हैं तब भी सत्कर्म तो कर ही लेना चाहिए वर्ना अगर ये नहीं हुए तो आस्तिक का कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर हुए तो नास्तिक जरूर मारा जाएगा। यह बात सुनते ही उस जुआरी को होश आ गया। उसने दो घड़ी में ऐरावत, नंदन वन समेत पूरा इन्द्रलोक दान कर दिया। इसके प्रताप से वह पापों से मुक्त हो इंद्र बना और बाद में राजा बलि हुआ।

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ऐसे हुई बलि की उत्पत्ति : कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष थे। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बलि का जन्म हुआ।

जब हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का जन्म हुआ था, तब धरती पर अंधकार छा गया था। देवी और देवताओं के साथ ही ऋषियों ने घोषणा की थी कि धरती पर अब शैतानी शक्ति का उदय हो गया है। सभी ने इसके प्रति चिंता व्यक्ति की थी।

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दक्षिण भारत  में था राजा बलि का राज्य : राजा बलि का राज्य संपूर्ण दक्षिण भारत में था। उन्होंने महाबलीपुरम को अपनी राजधानी बनाया था। आज भी केरल में ओणम का पर्व राजा बलि की याद में ही मनाया जाता है। राजा बली को केरल में ‘मावेली’ कहा जाता है। यह संस्कृत शब्द ‘महाबली’ का तद्भव रूप है। इसे कालांतर में ‘बलि’ लिखा गया जिसकी वर्तनी सही नहीं जान पड़ती।

देश भर में कई ऐसे समुदाय हैं जो राजा बली के राज्य में प्रजाओं की सुख-समृद्धि को स्मरण करते हैं और राजा बली के लौटने की कामना करते हैं। केरल में मनाया जाने वाला विश्वप्रसिद्ध ओणम त्योहार महाबली की स्मृति में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध पौराणिक पात्र वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबली था।  
 
माना जाता है कि मोटे तौर पर वृत्र या मेघ ऋषि के वंशजों को मेघवंशी कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं में जिन मानव समूहों को असुर, दैत्य, राक्षस, नाग, आदि कहा गया वे सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासी थे और मेघवंशी थे। आर्यों और अन्य के साथ पृथ्वी (भूमि) पर अधिकार हेतु संघर्ष में वे पराजित हुए।

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अश्वमेध यज्ञ : राजा बलि ने विश्वविजय की सोचकर अश्वमेध यज्ञ किया और इस यज्ञ के चलते उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी। अग्निहोत्र सहित उसने 98 यज्ञ संपन्न कराए थे और इस तरह उसके राज्य और शक्ति का विस्तार होता ही जा रहा था, तब उसने इंद्र के राज्य पर चढ़ाई करने की सोची।

इस तरह राजा बलि ने 99वें यज्ञ की घोषणा की और सभी राज्यों और नगरवासियों को निमंत्रण भेजा।

माना जाता है कि देवता और असुरों की लड़ाई जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षे‍त्र में 12 बार हुई। देवताओं की ओर गंधर्व और यक्ष होते थे, तो दैत्यों की ओर दानव और राक्षस। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद और उनके पुत्र राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए, तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया।

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समुद्र मंथन : जब इन्द्र दैत्यों के राजा बलि से युद्ध में हार गए, तब हताश और निराश हुए देवता ब्रह्माजी को साथ लेकर श्रीहरि विष्णु के आश्रय में गए और उनसे अपना स्वर्गलोक वापस पाने के लिए प्रार्थना करने लगे।

श्रीहरि ने कहा कि आप सभी देवतागण दैत्यों से सुलह कर लें और उनका सहयोग पाकर मदरांचल को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। समुद्र मंथन से जो अमृत प्राप्त होगा उसे पिलाकर मैं आप सभी देवताओं को अजर-अमर कर दूंगा तत्पश्चात ही देवता, दैत्यों का विनाश करके पुनः स्वर्ग का आधिपत्य पा सकेंगे।

देवताओं के राजा इन्द्र दैत्यों के राजा बलि के पास गए और उनके समक्ष समुद्र मंथन का प्रस्ताव रखा और अमृत की बात बताई। अमृत के लालच में आकर दैत्य ने देवताओं का साथ देने का वचन दिया। देवताओं और दैत्यों ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर मदरांचल पर्वत को उठाकर समुद्र तट पर लेकर जाने की चेष्टा की लेकिन नहीं उठा पाए तब श्रीहरि ने उसे उठाकर समुद्र में रख दिया।

मदरांचल को मथानी एवं वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन का शुभ कार्य आरंभ हुआ। श्रीविष्णु की नजर मथानी पर पड़ी, जो कि अंदर की ओर धंसती चली जा रही थी। यह देखकर उन्होंने स्वयं कच्छप बनाकर अपनी पीठ पर मदरांचल पर्वत को रख लिया।  

तत्पश्चात समुद्र मंथन से लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, पुष्पक, ऐरावत, पाञ्चजन्य, शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अंत में अमृत कुंभ निकला जिसे लेकर धन्वन्तरिजी आए। उनके हाथों से अमृत कलश छीनकर दैत्य भागने लगे ताकि देवताओं से पूर्व अमृतपान करके वे अमर हो जाएं। दैत्यों के बीच कलश के लिए झगड़ा शुरू हो गया और देवता हताश खड़े थे।

श्रीविष्णु अति सुंदर नारी का रूप धारण करके देवता और दैत्यों के बीच पहुंच गए और उन्होंने अमृत को समान रूप से बांटने का प्रस्ताव रखा। दैत्यों ने मोहित होकर अमृत का कलश श्रीविष्णु को सौंप दिया। मोहिनी रूपधारी विष्णु ने कहा कि मैं जैसे भी विभाजन का कार्य करूं, चाहे वह उचित हो या अनुचित, तुम लोग बीच में बाधा उत्पन्न न करने का वचन दो तभी मैं इस काम को करूंगी।

सभी ने मोहिनी रूपी भगवान की बात मान ली। देवता और दैत्य अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए। मोहिनी रूप धारण करके विष्णु ने छल से सारा अमृत देवताओं को पिला दिया, लेकिन इससे दैत्यों में भारी आक्रोश फैल गया।

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इंद्र-बलि युद्ध : समुद्र मंथन से प्राप्त जब अमृत पीकर देवता अमर हो गए, तब फिर से देवासुर संग्राम छिड़ा और इंद्र द्वारा वज्राहत होने पर बलि की मृत्यु हो गई। ऐसे में तुरंत ही शुक्राचार्य के मंत्रबल से वह पुन: जीवित हो गया। लेकिन उसके हाथ से इंद्रलोक का बहुत बड़ा क्षेत्र जाता रहा और फिर से देवताओं का साम्राज्य स्थापित हो गया।

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पुन: देवताओं को हराया : राजा बलि ने देवताओं द्वारा हार जाने के बाद अपनी शक्ति एकत्रित की और तपस्या के बदल पर वह फिर से शक्तिशाली बना। तब उसने देवताओं से बदला लेने की ठानी। इसके लिए उसने एक बार फिर अश्वमेध यज्ञ किया। यह उसका सौवां यज्ञ था। उसने अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ एक बार फिर इंद्र के राज्य पर कब्जा कर लिया।

एक बार फिर देवताओं पर संकट आ गया था। बगैर अमृत पीकर भी राजा बलि इतना मायावी बन बैठा था कि उसको मारने की किसी में शक्ति नहीं थी।

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वामन अवतार : वामन ॠषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वे आदित्यों में बारहवें थे। ऐसी मान्यता है कि वह इन्द्र के छोटे भाई थे और राजा बलि के सौतेले भाई। विष्णु ने इसी रूप में जन्म लिया था।

देवता बलि को नष्ट करने में असमर्थ थे। बलि ने देवताओं को यज्ञ करने जितनी भूमि ही दे रखी थी। सभी देवता अमर होने के बावजूद उसके खौफ के चलते छिपते रहते थे। तब सभी देवता विष्णु की शरण में गए। विष्णु ने कहा कि वह भी (बलि भी) उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे।

तब विष्णु ने अदिति के यहां जन्म लिया और एक दिन जब बलि यज्ञ की योजना बना रहा था तब वे ब्राह्मण-वेश में वहां दान लेने पहुंच गए। उन्हें देखते ही शुक्राचार्य उन्हें पहचान गए। शुक्र ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे विष्णु हैं। मुझसे पूछे बिना कोई भी वस्तु उन्हें दान मत करना। लेकिन बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी और वामन के दान मांगने पर उनको तीन पग भूमि दान में दे दी। जब जल छोड़कर सब दान कर दिया गया, तब ब्राह्मण वेश में वामन भगवान ने अपना विराट रूप दिखा दिया।

एक पग में भूमंडल नाप लिया। दूसरे में स्वर्ग और तीसरे के लिए बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई, मैं क्या करूं भगवान? अब तो मेरा सिर ही बचा है। इस प्रकार विष्णु ने उसके सिर पर तीसरा पैर रख दिया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उस पाताल में रसातल का कलयुग के अंत तक राजा बने रहने का वरदान दे दिया। तब बलि ने विष्णु से एक और वरदान मांगा...

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विष्णु को बनाया रक्षक : राजा बलि ने कहा कि भगवान यदि आप मुझे पाताल लोक का राजा बना ही रहे हैं तो मुझे वरदान ‍दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं के प्रपंचों से बचा रहे और आप मेरे साथ रहें। अपने भक्त के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने राजा बलि के निवास में रहने का संकल्प लिया।

पातालपुरी में राजा बलि के राज्य में आठों प्रहर भगवान विष्णु सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने लगे और इस तरह बलि निश्चिंत होकर सोता था और संपूर्ण पातालपुरी में शुक्राचार्य के साथ रहकर एक नए धर्म राज्य की व्यवस्था संचालित करता था।

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बलि फिर छला गया : इधर वैकुण्ठ में सभी देवी-देवता समेत लक्ष्मीजी अत्यंत चिंतित हो गईं। तब इस कठिन काल में नारदजी ने माता लक्ष्मी को एक युक्ति बताई। उन्होंने कहा कि एक रक्षासूत्र लेकर वे राजा बलि के पास अपरिचित रूप में दीन-हीन दुखियारी बनकर जाएं और राजा बलि को भाई बनाकर दान में प्रभु को मांग लाएं।

लक्ष्मीजी राजा बलि के दरबार में उपस्थित हुईं और उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें भाई बनाना चाहती हैं। राजन ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनसे रक्षासूत्र बंधवा लिया और कहा‍ कि अपनी इच्छा के अनुरूप कुछ भी उनसे मांग लें। लक्ष्मीजी इसी हेतु तो वहां आई थीं।

उन्होंने राजा से कहा कि आप मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु दे दें। राजन घबरा गए। उन्होंने कहा मेरा सर्वाधिक प्रिय तो मेरा यह प्रहरी है, परंतु इसे देने से पूर्व तो मैं प्राण त्यागना अधिक पसंद करूंगा।

तब लक्ष्मीजी ने अपना परिचय उन्हें दिया और बताया कि मैं आपके उसी प्रहरी की पत्नी हूं जिन्हें उन्होंने बहन माना था। उसके सुख-सौभाग्य और गृहस्थी की रक्षा करना भी उन्हीं का दायित्व था और यदि बहन की ओर देखते तो उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय अपने इष्ट का साथ छोडऩा पड़ता, पर राजन भक्त, संत और दानवीर यूं ही तो न थे।

उन्होंने अपने स्वार्थ से बहुत ऊपर बहन के सुख को माना और प्रभु को मुक्त कर उनके साथ वैकुण्ठ वास की सहमति दे दी, परंतु इसके साथ ही उन्होंने लक्ष्मीजी से आग्रह किया कि जब बहन-बहनोई उनके घर आ ही गए हैं तो कुछ मास और वहीं ठहर जाएं और उन्हें आतिथ्य का सुअवसर दें।

लक्ष्मीजी ने उनका आग्रह मान लिया और श्रावण पूर्णिमा (रक्षाबंधन) से कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि (धनतेरस) तक विष्णु और लक्ष्मीजी वहीं पाताल लोक में राजा बलि के यहां रहे। धनतेरस के बाद प्रभु जब लौटकर वैकुण्ठ को गए तो अगले दिन पूरे लोक में दीप-पर्व मनाया गया।

माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन से धनतेरस तक विष्णु लक्ष्मी संग राजा बलि के यहां रहते हैं और दीपोत्सव के अन्य कई कारणों संग एक कारण यह भी है।

अंत में एक महत्वपूर्ण रहस्य...

मान्यता है कि प्राचीन काल में जब धरती का अधिकतर हिस्सा बर्फ से ढंका था तब आज के मिश्र, साऊदी अरब, सीरिया, इराक, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, इसराइल आदि को पातालपुरी कहा जाता था। यहीं कहीं रसातल भी होता था। दलजा, फरात और नील नदियों के आसपास ही सभ्यताएं बसती थी।

इसी पातालपुरी में राम के काल में अहिरावण का राज था। राम से पूर्व रसातल का क्षेत्र राजा बलि को सौंप दिया गया था। 4000 साल पुराने यहूदी धर्म का आधिपत्य मिस्र, इराक, इजराइल सहित अरब के अधिकांश हिस्सों पर राज था। उससे भी पूर्व यहां पर हिन्दुओं की कई जातियां निवास करती थी जिनका प्रमुख तीर्थ मक्का होता था। मान्यता अनुसार उस दौर में मक्का में एक ज्योतिर्लिंग था जिसे राजा बलि और शुक्राचार्य ने स्थापित किया था। यहीं पर राजा बलि की एक प्राचीन मूर्ति रखी थी और साथ ही कई देवी-देवताओं की मूर्तियां भी शिवलिंग के साथ स्थापित थी।

यहां के लोग इस काबा मंदिर की सात परिक्रमा करते थे। आज भी काबा से हटाई गई मूर्तियां इस्तांबूल के एक म्यूजियम में रखी है। पहले मक्का को मखा कहते थे जिसका संस्कृत में अर्थ होता है अग्नि। मक्का के काबा के पास ही जम जम का एक कुआं है जिससे जल लेकर लोग शिवलिंग पर चढ़ाते थे। कुछ विद्वान मानते हैं कि मक्का के इस काबा मंदिर का पुन: निर्माण राजा विक्रमादित्य ने करवाया था। शुक्राचार्य का एक नाम काव्या भी था यही काव्या बिगड़कर काबा हो गया। राजा बलि ने यहां कई वर्षों तक शासन किया। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई यह हम नहीं जानते क्योंकि यह शोध का विषय है।
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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