यदि आपने इस श्राद्ध में पिण्डदान नहीं किया है जो सर्वपितृ अमावस्या पर कर सकते हैं। पिण्ड के कई अर्थ होते हैं लेकिन श्राद्ध के संदर्भ में इसका अर्थ होता है मनुष्य का शरीर, देह या लिंगदेह। इन पिंडों को शरीर का प्रतीक माना गया है। यह पिंड गोलाकार होता है। कुल 13 पिण्ड होते हैं जिसमें से 12 छोटे पिंड जो पत्ते पर रखे जाते हैं और एक बड़ा पिण्ड होता है। पिंड अर्थात पके हुए चावल का हाथ से बांधा हुआ गोल लोंदा जो श्राद्ध में पितरों को अर्पित किया जाता है। 'दान' का अर्थ है मृतक के पाथेयार्थ एवं भस्मीभूत शरीरांगों का पुनर्निर्माण।
श्राद्ध में पके हुए चावल को आटे जैसा गूंथने के लिए उसमें दूध और घी मिलाया जाता है फिर जौ और तील मिलाकर उसके गोल-गोल पिण्ड बनाए जाते हैं। एक बड़े से पिण्ड के पहले चार भाग, फिर एक भाग को छोड़कर बाकी तीन भागों के 12 पिण्ड बनाए जाते हैं। इन पिंडों को पितर, ऋषि और देवताओं के अर्पित किया जाता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार संतों और बच्चों का पिंडदान नहीं होता है क्योंकि इन्हें सांसारिक मोह-माया से अलग माना गया है। पितरों का पिंडदान इसलिए किया जाता है ताकि उनकी पिण्ड की आसक्ति छूटे और वे आगे की यात्रा प्रारंभ कर सके। वे दूसरा शरीर, दूसरा पिंड या मोक्ष पा सके।
1.इसमें से पहला पिंड जल को अर्पित किया जाता है जो चंद्रमा को तृप्त करता है और चंद्रमा स्वयं देवता तथा पितरों को संतुष्ट करते हैं।
2.दूसरा पिंड श्राद्धकर्ता की पत्नी गुरुजनों की आज्ञा से जो दूसरा पिंड खाती है, उससे प्रसन्न होकर पितर पुत्र की कामना वाले पुरुष को पुत्र प्रदान करते हैं।
3.फिर तीसरा पिंड अग्नि में समर्पित किया जाता जिससे तृप्त होकर पितर मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण करते हैं।
इसी तरह सभी पिंडों का अलग-अलग विधान होता है। लेकिन बाद में सभी को जल को ही अर्पित कर दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध की क्रिया से जिन मृतकों को दूसरी देह नहीं मिली है उन्हें दूसरी देह मिल जाती है या वे पितृलोक चले जाते हैं। तर्पण करने और अन्य क्रिया करने से पूर्वज कहीं भी हो, किसी भी रूप में जन्म ले चुके हो तब भी उनकी आत्मा तृप्त हो जाती है और उनका दुख कम होता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है निश्चित ही उसके लिए भी कहीं न कहीं श्राद्ध कर्म किया जा रहा होगा। अच्छी बुद्धि, अच्छी गति और अच्छे भविष्य के लिए सभी को यह कर्म करना चाहिए।