- महेश पांडे खनन का विरोध करने वालों का स्वर मद्धिम पड़ता नहीं कि सत्ता हलके से खनन की इजाजत पुनः जारी कर देती है। आश्चर्य, ये गंगा को देवी बताकर दुनिया भर में वाहवाही लूटते हैं और फिर उसी की छाती चीरने की मंजूरी भी दे देते हैं!
राज्य सरकार द्वारा प्रदेश की नदियों को खनन के लिए खोलने के साथ गंगा में खनन का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। मातृ सदन के संचालक स्वामी शिवानंद ने सरकार को चेतावनी दी है कि अगर हरिद्वार में कहीं भी गंगा में खनन किया गया तो वे आमरण अनशन करेंगे। इस चेतावनी के बाद सरकार ने हरिद्वार में कुंभ मेला क्षेत्र में बालू और गिट्टी खनन पर रोक लगा दी। लेकिन सरकार ने इस आशय का कोई लिखित आदेश नहीं दिया है कि आगे भी हरिद्वार में गंगा में कोई खनन नहीं किया जाएगा।
मतलब साफ है कि जब-जब गंगा प्रेमी गंगा में हो रहे खनन को लेकर आवाज उठाएंगे तब-तब आंदोलन करने वालों की ताकत के हिसाब से कुछ दिनों के लिए खनन बंद कर दिया जाएगा। सवाल यह है कि जिस गंगा को राज्य व केंद्र सरकारें दुनिया भर में देवतुल्य बताकर वाहवाही लूटती हैं उसी गंगा की छाती को चीरने की मंजूरी क्यों देती हैं?
गंगा में हो रहे खनन का विरोध नया नहीं है। दो दशक पहले जब हरिद्वार सहित गंगा के किनारे बसे अनेक नगरों में निर्माण का सिलसिला तेज हुआ और खनन माफिया और बिल्डर लॉबी ने मिलकर काम करना शुरू किया तभी से गंगा की चिंता करने वाले भी सामने आ गए थे। हरिद्वार में गंगा को बचाने के लिए कई आंदोलन हुए हैं। गंगा में हो रहे खनन को बंद करने की मांग को लेकर 13 जून, 2011 को 68 दिनों के अनशन और महीने भर से अधिक समय तक कोमा में रहने के बाद हुई संत निगमानंद की मौत को कौन भूल सकता है। निगमानंद की मांग थी कि कुंभ क्षेत्र को खनन और प्रदूषण से मुक्त किया जाए।
गंगा में बने प्राकृतिक द्वीप, जो कि अवैध खनन के कारण नष्ट हो रहे हैं की सुरक्षा के उपाय किए जाएं। गंगा के किनारे लगे क्रशरों को हटाने की मांग भी निगमानंद प्रमुखता से कर रहे थे। अनशन के बाद भले ही निगमानंद के आंदोलन की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी हो लेकिन सरकार ने उनके आंदोलन को अनदेखा ही किया।
यहां तक कि एक संत की शहादत और अनेक आंदोलनों के बाद भी सरकार गंगा को खनन से मुक्त करने को राजी नहीं है लेकिन गंगा को खनन मुक्त करने की लड़ाई लड़ रहा मातृ सदन भी इससे पीछे हटने को राजी नहीं है। पहले मातृ सदन की लड़ाई केवल कुंभ क्षेत्र को खनन मुक्त करने की थी लेकिन अब उन्होंने यह लड़ाई कुंभ क्षेत्र के बाहर भी फैला दी है। मातृ सदन की मांग है कि पतित पावन गंगा को खनन से मुक्त कर उसको प्राकृतिक रूप में बहने दिया जाना चाहिए। गंगा के किनारों पर लगातार हो रहे अतिक्रमणों और गंगा में डाली जा रही गंदगी ने पहले ही गंगा की सूरत बिगाड़ रखी है। ऐसे में अगर गंगा में खनन भी जारी रखा गया तो यह पवित्र नदी पत्थरों की एक खान में बदल जाएगी।
डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती राज्य सरकार ने गंगा की बेहतरी के लिए 'स्पर्श गंगा' नाम से एक अभियान चलाया और सिने तारिका हेमा मालिनी को इसका ब्रांड एंबेसडर भी बनाया। इस अभियान के कार्यक्रमों में आने के लिए हेमा मालिनी को मोटा भुगतान भी किया गया लेकिन दूसरी ओर यही सरकार गंगा में खनन के काम को भी बढ़ावा देती रही। यहां तक कि सरकार की नजर गंगा में खनन के खिलाफ दो महीनों तक चले निगमानंद के आमरण अनशन पर भी नहीं पड़ी। यहां तक कि निगमानंद की मौत के बाद स्पर्श गंगा से लेकर क्लीन गंगा जैसे सरकारी अभियानों और गंगा को ओढ़ना-बिछौना मानने वाले नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की असलियत भी खुलकर सामने आई।
क्या कोई कह सकता है कि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने, कुंभ क्षेत्र में गंगा के किनारे तेजी से हो रहे अतिक्रमण को नियंत्रित करने, खनन से नष्ट हो रही गंगा की प्राकृतिक सुंदरता बचाने और कुंभ क्षेत्र में लगे स्टोन क्रशरों को हटाने के साथ ही गंगा में सीधे छोड़े जा रहे सीवरों को बंद करने की मांग करने वाले संत को सरकार ने यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया ? निगमानंद चूंकि सीधे गंगा से करोड़ों की चांदी काट रहे खनन माफिया से लोहा ले रहे थे इसलिए गंगा के नाम पर दुनिया भर में यश कमाने वाले कथित पर्यावरणविद् भी निगमानंद के अनशन पर मौन ही रहे ।
गंगा में अवैध खनन के खिलाफ हरिद्वार के मातृ सदन में इस संत का अनशन 19 फरवरी को शुरू हुआ लेकिन 68 दिनों तक तो 'स्पर्श गंगा' अभियान चलाने वाली सरकार को इस गंगा पुत्र की याद ही नहीं आई लेकिन जैसे ही लगा कि अनशन स्थल पर निगमानंद की मौत हो सकती है सरकार ने 27 अप्रैल को निगमानंद को अनशन स्थल से गिरफ्तार कर जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती करा दिया जहां वे 2 मई, 2011 तक कोमा में जाने से पहले तक भर्ती रहे। इसके बाद दून अस्पताल और जौलीग्रांट के हिमालयन अस्पताल में भी कोमा में रहने के बाद उनकी मौत हो गई थी।
मातृ सदन की ओर से इस मामले में हिमालयन स्टोन क्रशर, अजीतपुर (हरिद्वार) के मालिक ज्ञानेश कुमार और हरिद्वार जिला चिकित्सालय के सीएमएस भटनागर सहित अन्य व्यक्तियों पर निगमानंद की मौत की साजिश रचने का आरोप भी लगाया गया था। गंगा के सीने में यह सब तब होता रहा था जब कि राज्य के दो सबसे कद्दावर कैबिनेट मंत्री हरिद्वार में निवास करते हैं। मदन कौशिक और दिवाकर भट्ट दोनों ही हरिद्वार से संबंधित हैं। कौशिक तो हरिद्वार सीट का ही प्रतिनिधित्व भी करते हैं। जानकार तो इस बात का भी इशारा करते हैं कि राज्य के एक कैबिनेट मंत्री खनन कारोबार से खुले रूप से जुड़े हुए हैं, ऐसे में खनन के खिलाफ आंदोलन कर रहे संत की आवाज कहां सुनी जाती ।
गंगा को बचाने के लिए मातृ सदन के आंदोलनों का इतिहास कोई नया नहीं है। स्थापना के 12 सालों के दौरान मातृ सदन ने 11 बार गंगा को खनन और प्रदूषण मुक्त करने के लिए आंदोलन किए हैं। इन्हीं आंदोलनों का नतीजा है कि आज कुंभ मेला क्षेत्र से क्रशर हटाए जा चुके हैं। निगमानंद इससे पहले भी 2008 में गंगा को माफियाओं को चंगुल से छुड़ाने के लिए 68 दिनों तक आमरण अनशन कर चुके थे।
कुंभ क्षेत्र को खनन मुक्त करने और अतिक्रमण के खिलाफ लड़ाई के चलते मातृ सदन और स्वामी निगमानंद पहले प्रशासन के लिए सिरदर्द बने और फिर माफियाओं की आंखों में खटकने लगे। लेकिन निगमानंद की मौत के बाद राज्य में जमकर सियासत हुई। गंगा की लड़ाई लड़ रहे निगमानंद के पीछे न तो गंगा के नाम पर सियासत करने वाले नेता खड़े दिखाई दिए और न ही गंगा के लिए चलाए गए आंदोलनों के अगुवा मठाधीश।
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गंगा को बचाने के नाम पर हाल के सालों में गंगा रक्षा मंच, गंगा सेवा मिशन, गंगा बचाओ आंदोलन और समग्र गंगा जैसे गैर सरकारी अभियानों के साथ ही केंद्र सरकार के गंगा एक्शन प्लान और गंगा क्लीन प्लान चलाए गए हैं। इनके अलावा केंद्र सरकार ने गंगा की बेहतरी के लिए गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी का गठन भी किया है। इतना ही नहीं, दो वर्ष पूर्व केंद्र सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी भी घोषित कर चुकी है।
गंगा की स्वच्छता के लिए 1990 में शुरू किए गए गंगा एक्शन प्लान के तहत दो दशकों में लगभग 960 करोड़ रुपए खर्च किए गए जबकि 2010 से शुरू किए गए गंगा क्लीन प्लान के तहत अगले दस साल में 2000 करोड़ रुपए खर्च किए जाने हैं। इतनी भारी-भरकम राशि खर्च होने और लगातार हो रहे आंदोलनों के बावजूद गंगा अपने हाल पर रो रही है। गंगा की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हरिद्वार में दस किलोमीटर के दायरे में गंगा में छह बड़े और एक दर्जन छोटे नाले सीधे गंगा में छोड़े जा रहे हैं।
हरिद्वार में प्रतिदिन 20 टन जीवांश, 37.5 टन ठोस अपशिष्ट सहित 24 हजार ट्रिलियन लीटर मल-जल सीधे गंगा में बहाया जा रहा है। हर की पौड़ी के निकट सुभाष घाट पर गिरने वाला एस-1 नाला प्रतिदिन 2.4 मिलियन लीटर जल-मल लाता है।
देहरादून की संस्था लोक विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि हरिद्वार के सिर्फ दो बड़े नाले ललतारावपुल और ज्वालापुर मिलकर 140 लाख लीटर से भी अधिक मल-जल सीधे गंगा में छोड़ते हैं। सीधे गंगा में छोड़ा जा रहा अपशिष्ट जल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा संशोधित अपशिष्ट जल के मानकों से छह गुना अधिक प्रदूषित रहता है। गंगा को साफ-सुथरा करने के लिए 1990 से चलाए गए गंगा एक्शन प्लान के तहत लगभग 20 सालों में 960 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं लेकिन न तो गंगा का कुछ भला हो पाया और न यह तय हो पाया कि गंगा को कैसे निर्मल बनाया जा सकता है।
दो वर्ष पूर्व गंगा की बेहतरी के लिए केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण की देखरेख में गंगा क्लीन परियोजना शुरू की गई है। इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने अक्टूबर 2009 में एक बिलियन डॉलर मंजूर किए हैं। इतनी भारी-भरकम धनराशि के बावजूद ऋषिकेश, हरिद्वार, श्रीनगर, गढ़वाल और उत्तरकाशी जैसे गंगा के किनारे बसे दर्जनों शहरों के लिए कोई कार्ययोजना नहीं बन पाई ।
गंगा की बेहतरी के नाम पर आंदोलनों की राजनीति भी सालों से चलती रही है। 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने से पहले बाबा रामदेव के नेतृत्व में जहां गंगा रक्षा मंच का गठन हुआ था वहीं स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के नेतृत्व में गंगा बचाओ आंदोलन चलाया गया। इस दौरान विश्व हिंदू परिषद्, हिंदू जागरण मंच जैसे संगठन भी गंगा के नाम से उद्वेलित नजर आए थे लेकिन कुछ भी इसलिए नहीं हो पाया कि गंगा के किनारे बसे शहरों में सबसे अधिक मल-जल इन्हीं के आश्रमों से निकलकर सीधे गंगा में बहता है।
उमा भारती भी गंगा को सियासत का जरिया बना चुकी हैं। समग्र गंगा के नाम से आठ दिनों तक हरिद्वार के दिव्य प्रेम सेवा मिशन में अनशन कर चुकीं उमा भारती ने सरकार से गंगा नदी पर बन रही जलविद्युत परियोजनाओं को बंद करने और जलविद्युत परियोजनाओं से स्थानीय जनमानस पर हुए प्रभावों का अध्ययन करने की मांग की है।
वर्तमान में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर 540 छोटी-बड़ी परियोजनाएं प्रस्तावित, निर्माणाधीन और कार्यरत हैं। जून 2009 में गोमुख से उत्तरकाशी तक 125 किलोमीटर क्षेत्र को बांधों से मुक्त रखने की मांग को लेकर पर्यावरणविद् जी.डी. अग्रवाल भी 16 दिनों तक अनशन कर चुके हैं जबकि हर की पौड़ी के सुभाष घाट पर ही 2009 में 38 दिनों तक अनशन हो चुका है। निमगानंद की मौत के बाद राज्य सरकार ने सीबीआई जांच की भी घोषणा की और इन दिनों सीबीआई निगमानंद की मौत की जांच कर रही है लेकिन अभी तक न तो कोई गिरफ्तारी हुई है और न सीबीआई किसी नतीजे पर ही पहुंची है।
निगमानंद की मौत के बहाने ही सही, सरकार के सामने यह सवाल तो उठता ही है कि जब गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने के साथ ही उसकी बेहतरी पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं तो उसे खनन से मुक्त कर प्राकृतिक रूप से क्यों नहीं बहने दिया जा सकता है?