शिर्डी सांईं बाबा के 10 रहस्यों को जानकर चौंक जाएंगे आप

अनिरुद्ध जोशी
सांईं बाबा शिर्डी में आने से पहले कहां थे? शिर्डी में आने के बाद वे शिर्डी छोड़कर चले गए थे और और फिर एक बारात में आने के बाद वे स्थायी रूप से वहीं रहने लगे। जब वे शिर्डी छोड़कर गए थे तब वे कहां थे? आओ जानते हैं सांईं से जुड़े 10 ऐसे तथ्‍य जिन्हें आपने अभी तक नहीं जाना होगा।
 
*1.सांईं पर लिखी तीन प्रमुख किताबें
1.'श्री सांईं सच्चरित्र', लेखक श्री श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर। यह किताब मूलत: मराठी में लिखी गई है। यह किताब सांईं बाबा के जिंदा रहते ही 1910 से लिखना शुरू किया गया और 1918 में सांईं के समाधिस्थ होने तक इसका लेखन चला।
 
2.'ए यूनिक सेंट सांईंबाबा ऑफ शिर्डी', लेखक श्री विश्वास बालासाहेब खेर। खेर ने यह किताब सांईं बाबा के मित्र स्वामी सांईं शरण आनंद की प्रेरणा से लिखी गई। खेर ने ही सांईं की जन्मभूमि पाथरी में बाबा के मकान को भुसारी परिवार से चौधरी परिवार को खरीदने में मदद की थी जिन्होंने उस स्थान को सांईं स्मारक ट्रस्ट के लिए खरीदा था।
 
 
3.एक किताब कन्नड़ में भी लिखी गई है जिसका नाम अज्ञात है। लेखक का नाम है श्री बीव्ही सत्यनारायण राव (सत्य विठ्ठला)। विठ्ठला ने यह किताब उनके नानानी से प्रेरित होकर लिखी थी। उनके नानाजी सांईं बाबा के पूर्व जन्म और इस जन्म अर्थात दोनों ही जन्मों के मित्र थे। इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद प्रो. मेलुकोटे के श्रीधर ने किया और इस किताब के कुछ अंशों का हिन्दी में अनुवाद श्री शशिकांत शांताराम गडकरी ने किया। हिन्दी किताब का नाम है- 'सद्‍गुरु सांईं दर्शन' (एक बैरागी की स्मरण गाथा)।
 
 
*2.सांईं बाबा का जन्म स्थान पाथरी
महाराष्ट्र के परभणी जिले के पाथरी गांव में सांईंबाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को हुआ था। सांईं के जन्म स्थान पाथरी पर एक मंदिर बना है। मंदिर के अंदर सांईं की आकर्षक मूर्ति रखी हुई है। यह बाबा का निवास स्थान है, जहां पुरानी वस्तुएं जैसे बर्तन, घट्टी और देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई हैं। पुराने मकान के अवशेषों को भी अच्छे से संभालकर रखा गया है। इस मकान को सांईं बाबा के वंशज रघुनाथ भुसारी से 3 हजार रुपए में 90 रुपए के स्टैम्प पर श्री सांईं स्मारक ट्रस्ट से खरीद लिया था।
 
 
*3.सांईं बाबा के माता-पिता का नाम
सांईं बाबा के पिता का नाम परशुराम भुसारी और माता का नाम अनुसूया था जिन्हें गोविंद भाऊ और देवकी अम्मा भी कहा जाता था। कुछ लोग पिता को गंगाभाऊ भी कहते थे। दोनों के 5 पुत्र थे जिनके नाम इस प्रकार हैं- रघुपति, दादा, हरिभऊ, अंबादास और बलवंत। सांईं बाबा परशुराम की तीसरी संतान थे जिनका नाम हरिभऊ था।
 
*4.सांईं बाबा के वंशज कौन हैं?
सांईं बाबा के वंशज आज भी औरंगाबाद, निजामाबाद और हैदराबाद में रहते हैं। सांईं के बड़े भाई रघुपति के 2 पुत्र थे- महारुद्र और परशुराम बापू। महारुद्रजी के जो बेटे हैं, वे रघुनाथजी थे जिनके पास पाथरी का मकान था। रघुनाथ भुसारीजी के 2 बेटे और 1 बेटी हैं- दिवाकर भुसारी, शशिकांत भुसारी और एक बेटी जो नागपुर में है। दिवाकर हैदराबाद में और शशिकांत निजामाबाद में रहते हैं। परशुराम के बेटे भाऊ थे। भाऊ को प्रभाकर राव और माणिक राव नामक 2 पुत्र थे। प्रभाकर राव के प्रशांत, मुकुंद, संजय नामक बेटे और बेटी लता पाठक हैं, जो औरंगाबाद में रहते हैं। माणिकराव भुसारी को 4 बेटियां हैं- अनिता, सुनीता, सीमा और दया।
 
 
*5.सांईं की शिक्षा और पिता की मौत
हरिबाबू (सांईं) की पढ़ाई पाथरी में ही उनके पिता के सान्निध्य में हुई। पाथरी में गुरुकुल भी था, जहां वे गुरु से शास्त्रार्थ करते थे। दरअसल, सांईं बाबा के घर के पास ही मुस्लिम परिवार रहता था। उनका नाम चांद मिया था और उनकी पत्नी चांद बी थी। उन्हें कोई संतान नहीं थी। हरिभऊ (सांईं) उनके ही घर में अपना ज्यादा समय व्यतीत करते थे। चांद बी हरिभऊ को पुत्रवत ही मानती थीं। पिता की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया। कहते हैं कि पाथरी से बाबा को वली नामक एक सूफी फकीर लेकर चले गए। सांईं के दूसरे भाई औरंगाबाद, निजामाबाद और हैदराबाद चले गए।
*6. वैकुंशा के आश्रम में बाबा
फकीर के साथ बाबा कई जगह घूमते हुए एक दिन अकेले ही पुन: पाथरी पहुंचे। वहां पहुंचने के बाद पता चला कि वहां कोई नहीं है। अंत में वे पड़ोस में रहने वाली चांद बी से मिले। हरिभऊ को देखकर चांद बी प्रसन्न हुईं। चांद बी हरिबाबू (बाबा) के रहने-खाने की व्यवस्था के लिए उन्हें नजदीक के गांव सेलू (सेल्यु) के वैंकुशा आश्रम में ले गईं। उस वक्त बाबा की उम्र 15 वर्ष रही होगी। वैकुंशा ने उन्हें देखते ही गले लगा लिया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। वैकुंशा ने अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा को अपनी सारी दिव्य शक्तियां दे दीं।
 
 
*7.कफनी बाना और ईंट
एक दिन वैकुंशा और सांईं बाबा जंगल से लौट रहे थे तो कुछ लोग बाबा पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे। बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया।


वैंकुशा ने वही कपड़ा बाबा के सिर पर 3 लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये 3 लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया। इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा। बाबा कहते थे कि जिस दिन यह ईंट टूट जाएगी, समझना मेरी सांस भी टूट जाएगी।
 
*8.शिर्डी में बाबा के गुरु ने जलाया था दीपक
वैंकुशा ने बाबा को बताया कि 80 वर्ष पूर्व वे स्वामी समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन करने के लिए सज्जनगढ़ गए थे, वापसी में वे शिर्डी में रुके थे। उन्होंने वहां एक मस्जिद के पास नीम के पेड़ के नीचे ध्यान किया और उसी वक्त गुरु रामदास के दर्शन हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे शिष्यों में से ही कोई एक यहां रहेगा और उसके कारण यह स्थान तीर्थक्षेत्र बनेगा। वैकुंशा ने आगे कहा कि वहीं मैंने रामदास की स्मृति में एक दीपक जलाया है, जो नीम के पेड़ के पास नीचे एक शिला की आड़ में रखा है।
 
 
*9.शिर्डी में सांईं का आगमन
वैंकुशा की आज्ञा से सांईं बाबा घूमते-फिरते शिर्डी पहुंचे। तब शिर्डी गांव में कुल 450 परिवारों के घर रहे होंगे। वहां बाबा ने सबसे पहले खंडोबा मंदिर के दर्शन किए फिर वे वैकुंशा के बताए उस नीम के पेड़ के पास पहुंच गए। नीम के पेड़ के नीचे उसके आसपास एक चबूतरा बना था।

भिक्षा मांगने के बाद बाबा वहीं बैठे रहते थे। कुछ लोगों ने उत्सुकतावश पूछा कि आप यहां नीम के वृक्ष के नीचे ही क्यों रहते हैं? इस पर बाबा ने कहा कि यहां मेरे गुरु ने ध्यान किया था इसलिए मैं यहीं विश्राम करता हूं। कुछ लोगों ने उनकी इस बात का उपहास उड़ाया, तब बाबा ने कहा कि यदि उन्हें शक है तो वे इस स्थान पर खुदाई करें। ग्रामीणों ने उस स्थान पर खुदाई की, जहां उन्हें एक शिला के नीचे 4 दीप जलते हुए मिले।
 
 
*10.बाबा का शिर्डी में पुन: आगमन
तीन महीने बाद बाबा किसी को भी बताए बगैर शिर्डी छोड़कर चले गए। लोगों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन वे नहीं मिले। भारत के प्रमुख स्थानों का भ्रमण करने के 3 साल बाद सांईं बाबा चांद पाशा पाटिल (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बैलगाड़ी में बैठकर बाराती बनकर आए।

बारात जहां रुकी थी वहीं सामने खंडोबा का मंदिर था, जहां के पुजारी म्हालसापति थे। इस बार तरुण फकीर के वेश में बाबा को देखकर म्हालसापति ने कहा, 'आओ सांईं'। बस तभी से बाबा का नाम 'सांईं' पड़ गया। म्हालसापति को सांईं बाबा 'भगत' के नाम से पुकारते थे।

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