एक समय महाराज युधिष्ठिर श्रीकृष्ण भगवान से बोले- 'हे पुरुषोत्तम! नष्ट हुए अपने स्थान की पुन: प्राप्ति कराने वाले और पुत्र, आयु, ऐश्वर्य तथा मनोवांछित फल देने वाले किसी एक व्रत को मुझसे कहिए।
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा- सतयुग के प्रारंभ में जिस समय दैत्यराज वृत्रासुर ने देवताओं के स्वर्गलोक में प्रवेश किया था, उस समय इन्द्र ने यही प्रश्न नारद से किया था।
नारदजी ने कहा- 'हे इन्द्र! पूर्व समय में अत्यंत रमणीक पुरन्दपुर नामक नगर था। वह नगर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का उत्पत्ति स्थल होने के कारण संसार का भूषण रूप था। उस नगर में मंगल नाम का राजा राज्य करता था। उसकी दो रानियां थीं। एक का नाम चिल्लदेवी तथा दूसरी का नाम चोलदेवी था।
एक समय राजा मंगल रानी चोलदेवी के साथ महल के शिखर पर बैठा था। वहां से उसकी दृष्टि समुद्र के जल से घिरे हुए एक स्थान पर पड़ी। उसे देखकर अति प्रसन्न चित राजा ने हंसकर चोलदेवी से कहा- हे चंचलाक्षि! मैं तुम्हारे लिए नंदन वन को भी लजाने वाला एक बगीचा बनवा दूंगा।
राजा के वाक्य को सुनकर रानी ने कहा- 'हे कान्त! ऐसा ही करिए। तदनुसार राजा ने उस स्थान पर एक बगीचा बनवा दिया। थोड़े ही समय में वह बगीचा अनेक वृक्षों, लता, फूलों तथा पक्षियों से संपन्न हो गया।
एक समय उस उद्यान में एक विकराल शरीर वाला मेघतुल्य शूकर आ गया। उसने वहां आकर अनेक वृक्षों को तोड़ डाला तथा उस उद्यान को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। कालतुल्य उस शूकर ने कई रखवालों को भी मार डाला। तब उद्यान के रक्षक भयभीत होकर राजा के पास गए और सब हाल कह सुनाया।
यह बात सुनकर राजा ने अपनी सेना को आज्ञा दी कि शीघ्र जाकर उस शूकर को मार डालो। तदंतर राजा भी एक मतवाले हाथी पर सवार होकर उद्यान की ओर चल पड़ा। सेना ने शूकर को चारों ओर से घेर लिया तब राजा ने उच्च घोष करके कहा- जिसके रास्ते से यह शूकराधम निकल जाएगा, उस सिपाही का सिर शत्रु की भांति काट डालूंगा। लेकिन वह शूकर उसी मार्ग से निकल गया, जिस मार्ग में राजा खड़ा तथा।
उस घोर वन में राजा एकाग्रचित होकर उस शूकर को ढूंढ रहा था। एकाएक शूकर से सामना हो गया। तब राजा ने बाण ने उसे घायल कर दिया। बाण के लगते ही शूकर अपने अधम शरीर को छोड़कर दिव्य गंधर्व स्वरूप को धारण कर विमान पर जा बैठा।
गंधर्व बोला- हे महिपाल! आपका कल्याण हो। आपने मुझे शूकर योनि से छुड़ाया, सो बड़ी कृपा हो। अब मेरा हाल सुनिए। एक समय ब्रह्माजी देवताओं से घिरे बैठे थे और मैं उनको तरह-तरह के गुणों से युक्त गीत सुना रहा था। गाते-गाते में ताल-स्वर से भटक गया। इसी कारण ब्रह्माजी ने मुझ चित्ररथ गंधर्व को शाप दे दिया कि तू पृथ्वी पर जाकर शूकर होगा।
जिस समय राजाओं का राजा मंगल तुझे अपने हाथों से मारेगा, उस समय तू शूकर योनि से छूटकर फिर इस गंधर्व योनि को प्राप्त होगा। अतएव हे महिपति! मैं इस योनि में आया था। आज आपके हाथ से मरकर मैं शूकर योनि से छुटकारा पा गया।
अब मैं प्रसन्न होकर देवताओं को भी दुर्लभ एक वर देता हूं, उसे स्वीकार्य करिए। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को देने वाला यह एक महालक्ष्मी व्रत है। इसे करके आप सार्वभौम राजा हो जाएंगे। अब आप प्रसन्नचित होकर अपनी राजधानी को जाइए।
नारदजी कहते हैं- चित्ररथ गंधर्व तत्क्षण अंतर्ध्यान हो गया। राजा मंगल ज्योंही चलने को हुआ, त्योंही एक बटुक बगल में शंबल (मार्ग-भोजन) लिए दिखाई दिया।
राजा ने बटुक से पूछा- तुम कौन हो? यहां किसलिए आए हो?
बटुक बोला- मैं आपके राज्य का एक ब्राह्मण बालक हूं तथा आपके साथ-साथ ही यहां आया हूं। मेरे योग्य कोई कार्य हो तो बताइए।
राजा ने कहा- आज से मैं तम्हें 'नूतन' कहूंगा। अगर यहां कोई जलाशय हो तो मेरे लिए थोड़ा जल ले आओ। बटुक राजा को एक बरगद के वृक्ष के नीचे बैठाकर स्वयं घोड़े पर सवार हो जल लेने आगे चल दिया। थोड़ी ही दूर जाने पर उसे एक अति रमणीक तालाब दिखाई दिया। मानो स्वयं भगवान विष्णु एवं लक्ष्मीजी का निवास स्थान हो। वह तालाब स्वच्छ जल से भरा हुआ तथा कमल पुष्पों से सुशोभित हो रहा था। तालाब के किनारे अनेक स्त्रियां कथा कह रही थीं।
बटुक ने स्त्रियों को अपना परिचय दिया तथा उनसे व्रत कथा के बारे में पूछा।
स्त्रियों ने कहा- हमने महालक्ष्मीजी का व्रत किया है, सो उनकी कथा कह रहे हैं। स्त्रियों ने बटुक को व्रत की विधि तथा फल बताया। स्त्रियों ने कहा कि तुम इस उत्तम व्रत को करो तथा अपने राजा से भी कराओ। यदि कोई उत्तम व्यक्ति मिल जाए तो उससे भी व्रत कराओ, किंतु नास्तिकों के सामने यह व्रत कभी न कहना। वह बटुक स्वयं पानी पी एवं घोड़े को पानी पिला राजा के लिए जल लेकर घोड़े पर सवार होकर चल दिया।
राजा को जल देकर उक्त व्रत का महात्म्य बताया और अनेक प्रकार की सामग्री एकत्र करके राजा से व्रत कराया। तदंतर वह राजेन्द्र घोड़े पर सवार होकर ब्राह्मण बटुक के साथ अपनी पुरी के निकट पहुंचा। अपने राजा को आते देखकर पुरवासियों ने तुरही आदि बाजाओं को बजाते, फूलमालाओं से उनका स्वागत किया। स्त्रियों के द्वारा फेंके हुए धान के लावों से पूजित हो उस ब्राह्मण बटुक के साथ राजा मंगल अपनी पटरानी चोलदेवी के महल में गया। जाते ही रानी ने राजा के हाथ में एक डोरा बंधा देखा।
इस पर रानी ने अत्यंत क्रोधित होकर कहा कि मालूम होता है राजा शिकार के बहाने किसी दूसरी स्त्री के पास गया था। उसी के सौभाग्य के लिए राजा ने हाथ में यह डोरा बांध रखा है। उसी का भेजा यह ब्राह्मण बालक भी मुझे देखने यहां आया है।
ऐसा विचार करके चोलदेवी ने राजा के हाथ में बंधा डोरा तोड़कर पृथ्वी पर डाल दिया। संयोगवश उसी समय चिल्लदेवी की एक दासी कुछ देखने आई थी, उसने वह डोरा उठाकर उस ब्राह्मण बटुक से उसका कारण पूछा- बटुक ने दासी को सारी बात बताई और व्रत के बारे में भी बताया। तब दासी ने चिल्लदेवी के पास जाकर वह व्रत बताया और ब्राह्मण को बुलाकर विधिवत महालक्ष्मीजी का उत्तम व्रत व पूजन किया।
एक वर्ष बाद महालक्ष्मी के दिन चिल्लदेवी के महल में बाजाओं का शब्द हुआ। यह शब्द राजा मंगल ने भी सुना। तब राजा को महालक्ष्मी के व्रत का ध्यान आया और वह बटुक से कहने लगा- अरे! आज महालक्ष्मी की पूजा का दिन है। मेरा वह डोरा कहा है? यह पूछने पर बटुक ने चोलदेवी के द्वारा डोरा तोड़े जाने की बात बताई। यह सुनकर राजा चोलदेवी पर कुपित हुआ और कहने लगा- आज मैं चिल्लदेवी के साथ ही पूजन करूंगा। तब राजा बटुक के साथ चिल्लदेवी के महल गया, तब ही लक्ष्मीजी एक वृद्धा का रूप धारण कर चोलदेवी के महल में उसकी परीक्षा लेने गई।
चोलदेवी ने वृद्धा को भला-बुरा कहकर वहां से चले जाने को कहा। तब वृद्धारूपी महालक्ष्मी ने चोलदेवी को श्राप दिया- तू शूकरमुखी हो जा और यह मंगलपुर कोलापुर हो जाए। तभी से यह नगर कोलापुर कहलाने लगा।
लक्ष्मीजी वहां से चलकर चिल्लदेवी के महल में आईं, तो वहां अनेक प्रकार से उनकी सम्मानपूर्वक पूजा हुई। पूजन के बाद चिल्लदेवी ने साक्षात् लक्ष्मीजी का पूजन किया। तब लक्ष्मीजी बोलीं- मैं तुमसे पूर्णत: संतुष्ट हूं। तुम जो चाहो सो वर मांगो। चिल्लदेवी ने कहा- हे सुरेश्वरी! जो आपका उत्तम व्रत करे, उसका घर आप कभी न त्यागें तथा कथा सुने उनको भी आप मनोवांछित फल दें।
महालक्ष्मीजी 'तथास्थु' कहकर अंतर्ध्यान हो गईं। राजा ने भी चिल्लदेवी के साथ पूजन की। उसी समय ईर्ष्यावश चोलदेवी भी चिल्लदेवी के यहां चली आई जबकि द्वारपालों ने बहुत मना किया, फिर भी एक न मानी। चोलदेवी ने वहां का हाल देखकर न जाने क्या सोचा और अंगिरा ऋषि के यहां आश्रम में चली गईं। महर्षि ने चोलदेवी का कुरूप चेहरा देखकर उससे महालक्ष्मी का व्रत पूजन कराया। महालक्ष्मी की पूजन व व्रत के प्रभाव से वह लावण्ययुक्त सुंदर स्त्री हो गईं।
किसी समय राजा ने शिकार खेलते हुए अंगिरा मुनि के आश्रम में सुंदर रूपयुक्त तथा चंचल नयनों वाली स्त्री को देखा। उसे देखकर राजा ने पूछा- यह दिव्य रूपधारिणी स्त्री कौन है?
मुनि ने चोलदेवी का सारा हाल बताकर उसे राजा को सौंप दिया। तब राजा नगर में आकर चोलदेवी और चिल्लदेवी के साथ अनेक प्रकार के सुख भोगने लगा। चिरकाल तक राजा सप्त द्वीपों से युक्त पृथ्वी पर राज्य करने लगा। महालक्ष्मी के व्रत के प्रभाव से बटुक राजा का मंत्री बना। वह राजा पृथ्वी के समस्त सुखों को भोगता हुआ अंत में जाकर आकाश में विष्णु देवत (श्रवण) नक्षत्र बनकर स्थित हुआ।
नारदजी बोले- हे इन्द्र! सब व्रतों में उत्तम व्रत मैंने तुमसे कहा है जिसकी कथा मात्र सुनने से मनोवांछित फल प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार तीर्थों में प्रयाग, देवताओं में भगवान और नदियों में गंगा पुनीत मानी जाती है, उसी प्रकार यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है।
हे इन्द्र! धर्म, काम और मोक्ष की इच्छा से तुम भी इस व्रत को करो। इसके करने से महालक्ष्मी धन, धान्य, कीर्ति, आयु, यश, पुत्र-पोत्रादिक सब कुछ देती हैं। श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर से बोले- हे युधिष्ठिर! नारदजी द्वारा कहा गया यह व्रत देवराज इन्द्र ने किया, आप भी इस व्रत को करें तो अवश्य ही मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी। यह कथा श्रीकृष्ण भगवान ने महाराज युधिष्ठिर से कही थी। अत: मनोकामना सिद्धि के लिए सभी लोगों को यह व्रत करना चाहिए।
'इति भविष्योत्तर पुराणांतर्गत महालक्ष्मी व्रत कथा संपूर्णनम्।।'