Shri Krishna 14 August Episode 104 : सांवले शाह का चमत्कार देख चक्रधर का हो जाता है हृदय परिवर्तन

अनिरुद्ध जोशी

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 14 अगस्त के 104वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 104 ) में सुदामा यह कहकर श्रीकृष्ण से भोजन करने से इनकार कर देता है कि मेरे बच्चें भूखे होंगे। यह सुनकर श्रीकृष्ण सांवले शाह बनकर सुदामा के घर पर भोजन वितरण करवा देते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
सुदामा के घर के बाहर तभी ढोल की आवाज सुनकर सुदामा की पत्नी वसुंधरा अपने बच्चों के साथ बाहर जाती है तो देखती है कि एक बैलगाड़ी में खाने की ढेर सारी सामग्री है और एक व्यक्ति ढोल बजाकर मुनादी कर रहा है कि सुनो...सुनो...सुनो। ठाकुर सांवले शाह के यहां पोते ने जन्म लिया है। इस खुशी के अवसर पर एक महायज्ञ का अनुष्ठान किया गया है जो दस दिनों तक होता रहेगा तथा इन्हीं ठाकुर सांवले शाह ने 10-10 कोस तक ब्राह्मण परिवारों को तीनों समय का भोजन और मिष्ठान देने की घोषणा की है। यह मुनादी चक्रधर भी सुन रहा होता है। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है और श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं।
 
मुनादी वाला आगे कहता है कि जो किसी कारण से नहीं आ सकते हम उनके घरों में जाकर भोजन वितरण कर देंगे। यह सुनकर चक्रधर अपने हाथ की टोकरी को पालकी में रख देता है और कहता है- हे ईश्वर तू कितना दयालु, तूने आखिर भूखे भक्तों के भोजन का प्रबंध कर ही दिया। ऐसा कहकर वह द्वार पर खड़ी वसुंधरा के बच्चों को देखता है और उनके पास जाकर हाथ जोड़कर कहता है- आओ बच्चों आओ, देखो बेटा भोजन बंट रहा है, आओ ना। यह सुनकर सभी बच्चे वसुंधरा की ओर देखते हैं तो वह उन्हें इशारों से घर में से बर्तन लाने का कहती है। एक बच्चा एक भगोना ले जाता है। फिर चक्रधर उन्हें बैलगाड़ी के पास ले जाता है तो वसुंधरा द्वार पर ही खड़ी यह दृश्य देखती रहती है।
 
चक्रधर उनको बैलगाड़ी पर खड़े एक व्यक्ति से भोजन दिलवाता है। भोजन वितरण करने वाला पूछता है- ब्राह्मण पुत्र हो ना? यह सुनकर एक बालक कहता है- हां। तब वह कहता है कि इतनी थोड़ीसी खीर से क्या होगा, कोई बड़े भांडे-बर्तन ले आते। घर में कोई बड़ा नहीं हैं? तब वह कहता है कि मेरी मां है।...और पिताजी? तब चक्रधर कहता है कि वृंदापुरी के सारे ब्राह्मण आज गांव में मौजूद है केवल इनके पिता को छोड़कर। कर्मों का मारा सुदामा रोज घर-घर जाकर भिक्षा मांगता था और आज जब भोजन उसके द्वार आया है तो वही नहीं हैं। तब वह व्यक्ति पूछता है- क्यूं कहां गया है? तब चक्रधर कहता है कि द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने द्वारिका नगरी गया है। यह सुनकर वह भोजन वितरण करने वाला कहता है कि तो फिर हम ही भोजन दे आते हैं भीतर। फिर वह दूसरे सेवकों से कहता है चलो भाई दो टोकरी तैयार करो।
 
‍फिर द्वार पर खड़ी वसुंधरा के समक्ष भोजन वितरण करने वाला दो टोकरी भोजन लेकर आता है और प्राणाम करके कहता है कि ये लीजिये भोजन। तीनों समय का भोजन घर पर ही दे जाएंगे हम। 10 दिनों तक घर में चूल्हा जलाने की कोई आवश्यकता नहीं। ले लीजिये। यह सुनकर चक्रधर कहता है- संकोच मत कीजिये भाभीजी। ईश्वर की दया समझकर बटोर लीजिये। आप ही ने तो कहा था कि जब त्रिलोकीनाथ कृपा करें तो कौन मूरख इनकार करेगा। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है। फिर चक्रधर कहता है- ये त्रिलोकीनाथ ही की कृपा है भाभीजी लीजिये। फिर चक्रधर भोजन का पात्र खुद ही सेवक से लेकर उन्हें दे देता है।...भोजन लेकर वसुंधरा कहती हैं- सत्य है श्रीकृष्ण भक्त वत्सल हैं। चक्रधर की कहता है- जय श्रीकृष्ण। सभी कहने लगते हैं जय श्रीकृष्ण।
 
उधर, भूखा सुदामा एक वृक्ष के नीचे बैठा कृष्ण नाम जपता रहता है। श्रीकृष्ण उसे और भोजन को देखते हैं और फिर अपनी माया से एक ब्राह्मण ग्रमीण को प्रकट करते हैं। वह ब्राह्मण सुदामा के पास आकर कहता है- प्रणाम। सुदामा की तंद्रा भंग होती है तब वह भी प्रणाम करता है। फिर वह ब्राह्मण कहता है- वेशभूषा से तो ब्राह्मण लगते हो। यह सुनकर सुदामा कहता है- हां ब्राह्मण ही हूं। तब वह कहता है- ब्राह्मण हो तो यहां खंडहर में अकेले बैठे क्या कर रहे हो? जाओ वहां पास वाले गांव में जहां सभी ब्राह्मणों को खीर-पुरी बंट रही है। यह सुनकर सुदामा उसके हाथ की ओर देखता है जिसमें पत्तल में खीर और पुरी होती है। यह देखकर वह कहता है खीर-पुरी! कौन बांट रहा है?
 
यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- ठाकुर सांवले शाह की ओर से बंट रही है।... यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं। तब सुदामा कहता है- सांवले शाह? इस पर ब्राह्म कहता है- हां सांवले शाह के यहां पोता हुआ है और इस खुशी में 10 दिन तक महायज्ञ की घोषणा की है। और साथ यह भी घोषणा की है कि जब तक यज्ञ चलेगा तब तक अर्थात पूरे 10 दिनों तक 10-10 कोस के अंतर्गत सभी ब्राह्मण परिवारों को प्रतिदिन तीन समय तक खीर-पुरी का भोजन मिलता रहेगा। यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाता है। फिर वह ब्राह्मण कहता है- वाह क्या महादानी है सांवले शाह। आज दो दिन से 10 कोस तक किसी ब्राह्मण के यहां चूल्हा नहीं जला होगा। रथों में भर-भर कर खीर और पुरी हर ब्राह्मण परिवार के यहां पहुंचाई जा रही है। 
 
यह सुनकर सुदामा पूछता है- 10-10 कोस तक हर गांव में? तब वह ब्राह्मण कहता है- हां हर गांव में। ब्राह्मणवाड़ी, समतानगर, मैनपुरी, जनकपुरी सभी गांव में। यह सुनकर सुदामा पूछता है कि वृंदापुरी में भी खीर-पुरी बंट रही है? इस पर वह ब्राह्मण कहता हैं- हां वृंदापुरी में भी। अरे भाई मैं कल स्वयं उपस्थित था वहां वृंदापुरी में।... यह सुनकर सुदामा प्रसन्न हो जाता है। फिर आगे वह ब्राह्मण कहता है कि मेरे सामने हर ब्राह्मण परिवार को बुला-बुला कर खीर-पुरी दी गई। वहां का हर एक ब्राह्मण झोली भर-भर के ले गया परंतु केवल एक ब्राह्मण उपस्थित नहीं था वहां गांव में। यह सुनकर सुदामा पूछता है- कौन नहीं था? तब वह कहता है कि लोग कह रहे थे कि सुदामा नाम का ब्राह्मण उपस्थित नहीं था गांव में।...यह सुनकर सुदामा कहता है- सुदामा? तब वह ब्राह्मण कहता है- हां सुदामा, क्या आप जानते हैं उन्हें? तब सुदामा कहता है- मैं ही तो हूं वह अभागा ब्राह्मण। 
 
तब वह ब्राह्मण कहता है कि सभी को खेद था कि ऐसे समय नहीं है सुदामा। तब सुदामा कहता है कि अरे मेरी चिंता छोड़ो। ये बताओ की मेरे बच्चों-पत्नी को भोजन मिला की नहीं? यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है क्या बात कर रहे हो वीप्रवर। आपके परिवार की आत्मा तृप्त हो गई होगी खीर-पुरी खाकर।...यह सुनकर सुदामा अति प्रसन्न हो जाता है। फिर वह ब्राह्मण कहता है- मेरे सामने सांवले शाह के सेवकों ने आपके पत्नी और बच्चों को खीर के दोने भर-भर के दिए। यह सुनकर सुदामा श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण जपने लगता है तो आगे वह ब्राह्मण कहता है कि आपके चार बच्चे हैं ना? तब सुदामा कहता है- हां हां।... यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- सभी की आत्मा तृप्त हो गई और 10 दिन तक ऐसा ही चलने वाला है।
 
यह सुनकर सुदामा प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण नाम जपने लगता है और कहता है- हे कृष्ण-कन्हैया। हे मेरे पालनहार! तेरी लीला बड़ी न्यारी है।...अरे भाई तुमने ये बताकर मेरी सारी चिंता दूर कर दी। मैं तो इसी विचार से स्वयं भोजन नहीं कर रहा था कि मेरे बच्चे भूखे हैं, मैं कैसे खालूं। तब वह ब्राह्मण कहता है- अब ये चिंता छोड़ो वीप्रवर वो परम आनंद में हैं। अब अपनी भी भूख मिटा लो, चलो पास वाले गांव में मैं आपको ले चलता हूं और खीर-पुरी दिलवाता हूं चलो। यह सुनकर सुदाम कहता है- हां हां चलो।
 
सुदामा जाने लगता है तभी ग्रामीण वेश में मुरली मनोहर बनकर श्रीकृष्ण जो उनके साथ ही यात्रा करते आए थे वे कहते हैं- अरे अरे! ये क्या? यह सुनकर सुदामा रुक जाता है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- बड़े स्वार्थी हो जी। हमने आपके कारण अपनी पत्नी लक्ष्मीदेवी के हाथ का बना भोजन तक नहीं खाया और आप किसी सांवले शाह की खीर-पुरी खाने चल दिए और हमें पूछा तक नहीं।...यह सुनकर सुदामा अपने मुंह पर हाथ रखकर कहता है- अरे हां। 
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह, शपथ भगवान श्रीकृष्ण की कि अपने जीवन में ऐसा स्वार्थी ब्राह्मण मैंने पहली बार देखा है। यह सुनकर सुदामा कहता है- क्षमा करना भैया भूल हो गई। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। फिर सुदामा उस ब्राह्मण से कहता है- भैया मेरे नाम का भोजन तो यहीं रखा है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आप चलिये मैं यहीं खा लूंगा। यह सुनकर वह ब्राह्मण कहता है- अच्छा मैं चलता हूं। फिर सुदामा श्रीकृष्ण से कहता है- क्षमा करना भाई मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- आप क्या समझे मैं आपके बगैर ही भोजन कर लेता, चलिए साथ भोजन करेंगे।
 
फिर श्रीकृष्ण अपने हाथों से सुदामा को भोजन परोसकर खिलाते हैं और कहते हैं- ब्राह्मण देवताजी मैंने आपसे पहले ही कहा था किभोजन के दाने-दाने पर आप ही का नाम लिखा है परंतु आप मानते ही नहीं थे। तब सुदामा कहता है मन नहीं मान रहा था भैया। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब तो मन मान गया ना। अब निश्‍चिंत होकर जी भरकर खाइये।... जिन्हें भोग अर्पण करें नित सारा संसार, उन्हीं के हाथों खा रहा भाग्यवान सत्कार। पुण्यवान सतकाम। 
 
सुदामा बड़े चाव से भोजन करता है अंगुलियां चाट-चाट कर। यह देखकर रुक्मिणी प्रसन्न हो जाती है। फिर सुदामा इशारे से कहता बस बहुत हुआ तब श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं नहीं ब्राह्मण देवता ये लक्ष्मीदेवी के हाथ के बनाए हुए मोतीचूर के लड्डू..ये तो खाना ही पड़ेगा। सुदाम संकुचाते हुए उसे भी लेकर खा लेता है। तब श्रीकृष्‍ण दूसरा लड्डू देते हैं तो वह कहता है बस बहुत खा लिया अब ओर नहीं खाया जाएगा। मानो आत्मा तृप्त हो गई। बहुत दिनों बाद खाने का इतना आनंद आया। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- चलिये आप हाथ धोइये मैं बिछोना लगाता हूं। 
 
यह दृश्य देखकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से कहती हैं- वाह प्रभु वाह धन्य हैं आप और आपकी लीला। क्या-क्या रूप धारण करना पड़ रहे हैं आपको। कभी सांवले शाह तो कभी, कभी मुरली मनोहर। एक मित्र के खातिर आपको भी क्या-क्या जतन करने पड़ रहे हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हां प्रिये वो-वो करना पड़ रहा है जो एक साधारण स्थिति में शायद कभी नहीं करता मैं। क्या करें मित्रता चीज ही ऐसी होती है कि उसे निभाने के लिए जो भी करो कम है। फिर हमारा मित्र तो बड़ा स्वाभिमानी और सिद्धांतों का पक्का है। उसके बीबी बच्चे भूखे थे इसलिए अपने मुंह में अन्न का एक दाना भी रखने को तैयार नहीं था। एक मित्र को दूसरे मित्र के स्वाभिमान की लाज तो रखनी पड़ती है ना। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है कि सुदामा यदि स्वाभिमानी है तो आप भी कुछ कम हठिले नहीं है। जब तक सुदामा के बीबी बच्चों और सुदामा को खाना नहीं खिलाया आप भी चैन से नहीं बैठे।... 
 
फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हर अवतारों में हमें केवल भक्त ही मिलते रहे परंतु ये एक ऐसा अवतार है जिसमें भक्त के अतिरिक्त दो मित्र भी मिले हैं एक अर्जुन और दूसरा सुदामा। इसलिए हम इन दोनों के साथ ऐसी मित्रता निभाना चाहते हैं कि जिससे युग-युगों तक प्राणी को सच्ची मित्रता का आदर्श देखना हो तो, तो वह हमारे व्यवहार को देखें। बस इसीलिए सबकुछ कर रहा हूं।
 
फिर उधर, श्रीकृष्ण मुरली मनोहर बनकर सुदामा के लिए अच्छा-सा एक बिछोना बना रहे होते हैं तब उसी दौरान सुदाम एक ओर धरती को साफ कर रहा होता है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- दीनबंधु यहां विराजो। तब सुदामा कहता है- नहीं मुझे तो धरती पर लेटने की आदत है। धरती पर लेटने का आनंद कुछ ओर ही है।...फिर दोनों धरती की महत्ता पर चर्चा करते हैं। अंत में सुदामा कहता है कि धरती माता का काम है देना बस देना ही देना। तब श्रीकृष्ण कहता है और मनुष्य का काम? तब सुदामा कहता है- लेना। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि फिर आप धरती माता के अन्न को ग्रहण नहीं करके उसका अपमान नहीं कर रहे थे? और वस्त्र त्यागकर भी तो उसका अपमान ही करना हुआ? यह सुनकर सुदामा सोच में पड़ जाता है और फिर कहता है तुम मुझे सांसारिक बातों में उलझा रहे हो। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं तो आपसे बस इतना ही निवेदन कर रहा हूं दीनबंधु की आप इस चादर पर पथारे जो सूत से बनी हुई है अर्थात धरती मां की देन हैं। 
 
यह सुनकर सुदामा कहता है कि मैं अपने शरीर को ऐसे विश्राम की लालसा का बंदी नहीं बनाना चाहता। तुम मेरी चिंता छोड़ो दुख में सुख भोगने की आदत है मुझे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप मेरे शत्रु हैं क्या? सुदामा कहता है अरे ये तुम क्या कह रहे हो? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- शत्रु नहीं हो तो मुझे पाप का अधिकारी क्यों बना रहे हो? तब सुदामा कहता है इसमें पाप-पुण्य की कौन सी बात है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यही कि एक ब्राह्मण की सेवा का अवसर मिला है तो वो भी छीन रहे हैं मुझसे। क्या ब्राह्मण की सेवा पुण्य नहीं होती? यह सुनकर सुदामा कहता है कि मुझे भोजन कराके एक पुण्य तो कमा ही लिया तुमने। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- एक नहीं हजार पुण्य कमाना चाहता हूं मैं। चलिये उठिये और अब चादर पर जारकर सो जाइये। श्रीकृष्ण सुदामा को फिर जबरदस्ती चादर पर सुला देते हैं। सुदाम कहता ही रह जाता है अरे क्या कर रहे हो तुम। बहुत हठिले हो तुम। यह देखकर रुक्मिणी को हंसी आ जाती है। 
 
फिर श्रीकृष्ण अपना गीत गाने लगते हैं कि दुल्हन बिना रहा जाए ना। रह रह कर याद सतावे हो रामा। एक पल चैन ना आवे हो रामा।...यह सुनकर सुदाम सिर खुजाने लगता है और रुकिमणी मुस्कुराने लगती है।...लक्ष्मी जैसी हमरी गौरी है दुल्हनिया, दुल्हनिया बिन रहा जाए ना। विरह का दुखड़ा सहा जाए ना। याद आते ही आंखों में आए पनिया, दुल्हननिया बिन रहा जाए ना।... यह सुनकर सुदामा अपना माथा ठोक लेता है कि किससे पाला पड़ा है श्रीकृष्ण। आखिर सुदामा परेशान होकर उठकर उसके पास आता है और कहता है भैया मुरली और भैया मुरली मनोहर। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- अरे वीप्रवर आप। आप अभी तक जाग रहे हैं? यह सुनकर सुदामा कहते हैं- लक्ष्मी देवी की याद आ रही है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां बहुत याद आ रही है। यह सुनकर सुदामा कहते हैं- अरे कभी ईश्वर को भी तो याद कर लिया करो। क्योंकि सच्चा प्रेम तो परमात्मा का प्रेम होता है बल्कि परमात्मा ही प्रेम है।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे ब्राह्मण देवता जब परमात्मा प्रेम है तो ये भी सच होगी कि प्रेम ही परमात्मा है? यह सुनकर सुदामा कहता है कि तुम प्रेम की परिभाषा अपने स्वार्थ अनुसार बदलने की चेष्ठा कर रहे हो। रूप का लोभ भला प्रेम कैसे हो सकता है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- मान्यवर प्रेम स्पर्श है। अनुभव करने की वस्तु है। यदि रूप ना हो तो मनुष्य स्पर्श कैसे करेगा और स्पर्श नहीं करेगा तो अनुभव कैसे करेगा? आप भी तो भगवान की मूर्ति बनाते हैं।....
 
फिर दोनों में इसी विषय को लेकर वाद-विवाद होता है। अंत में सुदामा कहता है मुरली मनोहर तुममें एक गुण अवश्य है। अपने नाम की ही भांति तुम लोगों के मन को हर लेते हो। मनोहर नाम का गुण है तुममें। तुम्हारी बातों और तुम्हारे तर्कों से जीत पाना कभी-कभी असंभव हो जाता है। मुझे तो अपना धर्म ही संकट में नजर आता है... श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण। तुम्हें प्रेम रस में डूबना हो तो डूबो भाई मुझे तो नींद आ रही है। फिर सुदामा जाकर सो जाता है।
 
उधर, राजा के समक्ष चक्रधर को जंजीर में जकड़कर लाया जाता है। राजा कहता है कि चक्रधर हमने तुम्हें राजकवि इसलिए बनाया था कि तुम हमारे गुणगान करते रहो। आज जब हमने तुम्हें अपनी सेवा में उपस्थित होने को कहा तो तुमने इनकार कर दिया। तुम्हारा इतना साहस कि राजा के आदेश की अवहेलना करो। यह सुनकर चक्रधर हाथ जोड़कर कहता है- क्षमा करें महाराज मैंने अब किसी का गुणगान करके रोटी कमाना छोड़ दिया है।   
 
यह सुनकर क्रोधित होकर राजा कहता है- पर हमने तो गाना सुनना नहीं छोड़ा है इसलिए चक्रधर तुम्हें गाना होगा। हम अपनी प्रशंसा सुनने के लिए उतावले हैं। यह सुनकर चक्रधर कहता है- महाराज मुझसे अब ये नहीं होगा। तब राजा कहता है कि हमारे आदेश की अवहेलना राजद्रोह के बराबर है।
 
तब चक्रधर कहता है कि महाराज मैं आपको कैसे समझाऊं कि मैं अब किसी संसारी पुरुष का गुणगान नहीं कर सकता। यह सुनकर राजा कहता है कि क्या बकते हो, क्या तुम्हें हमसे भी बड़ा कोई दानी मिल गया है? यह सुनकर चक्रधर कहता है- हां। इस पर राजा कहता है अच्छा। हम से भी बड़ा दानी। हम भी तो सुने कि कौन है वो? यह सुनकर चक्रधर कहता है- महादानी, महाज्ञानी हम सब जिसके भक्त हैं। राजा महाराजा सब जिसके अधीन है। यह सुनकर राजा कहता है- अच्‍छा परमेश्वर? तब चक्रधर कहता है- हां महाराज हां। अब मैंने केवल ईश्वर की ही प्रशंसा करने और उसी का गुणगान करने का निर्णय लिया है। यह सुनकर राजा कहता है- लगता है कि तुम्हें भी सुदामा का रोग लग गया है। तब चक्रधर कहता है कि ईश्वर करे सबको ये रोग लगे। महामारी बनकर सबको अपनी चपेट में ले लें। यह सुनकर राजा कहता है- ये क्या बकवास कर रहे हो महामारी लगने का श्राप दे रहे हो? 
 
यह सुनकर चक्रधर कहता है कि इसलिए कि यह भक्त रोग है। सुदामा की भक्ति की शक्ति मैंने देख ली है। ईश्वर ने सांवले शाह के रूप में आकर किस तरह उसके भूखे परिवार का भरण-पोषण किया। ये चमत्कार मैंने अपनी आंखों से देखा है। और मेरी आंखें खुल गई है। अब मैं तो सुदाम की तरह केवल ईश्वर का ही गुणगान करूंगा। यह सुनकर राजा कहता है कि यदि तुमने हमारा गुणगान करना छोड़ दिया तो भूखे मरोगे भूखे। यह सुनकर चक्रधर कहता है कि ईश्वर का गुणगान करके सुदामा का परिवार भूखा नहीं मरा तो फिर मैं कैसे भूखा मरूंगा? 
 
तब राजा कहता है कि चक्रधर तुम्हारे इस द्रोह के लिए हम तुम्हें वही सजा देते हैं जो हमने सुदामा को दिया था। यह सुनकर चक्रधर कहता है- जय श्रीकृष्ण। यदि प्रभु की यही इच्छा है तो यही सही। तब राजा सिपाहियों से कहता है कि इस द्रोही को कीले की उस सीढ़ियों पर ले जाओ और इसे भी वहां से गिरा दो जिस तरह कि सुदामा को गिराया था। फिर चक्रधर को धक्के मारकर सीढ़ियों से फेंक दिया जाता है। फिर चक्रधर नीचे से उठकर हरि भजन गाता हुआ वहां से चला जाता है। जय श्रीकृष्णा।
 
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