Shri Krishna 5 Sept Episode 126 : कुंभकेतु की पत्नी की हंसी देख श्रीकृष्ण बताते हैं कलयुग का रहस्य

अनिरुद्ध जोशी
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 5 सितंबर के 126वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 126 ) में प्रद्युम्न सिंघकेतु का वध करने के बाद संभरासुर के राज्य का विजयी स्तंभ गिरा देता है। उसके बाद संभरासुर को मृत्यु का भय सताने लगता है और उसे बुरे बुरे सपने आते हैं। उन सपनों से भयभित होकर वह उठ जाता है और कहता है- संभरासुर को कोई भी नहीं मार सकता। संभरासुर अमर है, संभरासुर अमर है अमर।
 
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यह देखकर श्रीकृष्ण देवी रुक्मिणी से कहते हैं- संभरासुर की दशा देख ली आपने देवी। इतनी सारी घटनाएं घटने के बाद भी वह अमृत्व की कल्पना से भ्रमित है। इस पृथ्‍वीलोक का अंतिम सत्य है मृत्यु। इस लोक में दो ही वस्तु अमर है- एक मृत्यु और दूसरी कीर्ति। बाकी सब नाशवान है। 
 
उधर, संभरासुर दरबार में क्रोधित होकर कहता है कि मैंने ये सभा अपने पुत्र की मृत्यु का शोक मनाने के लिए नहीं बुलाई है। क्या हो गया है तुम सबको? तुम सबके चेहरे पर भय क्यों दिखाई देने लगा है? तुम्हारे चेहरे क्यों झुके हुए हैं? तुम सबको देखकर ऐसा लगता है कि यह संभरासुर के सैनिक नहीं गीदड़ों का समूह है जो शेर की एक दहाड़ सुनकर भाग खड़ा होगा।..यह सुनकर सिंघनाद कहता है कि क्षमा करें असुरेश्वर! ये सिर को केवल राजकुमार के शोक में झुके हैं।...फिर सभी जोशपूर्वक युद्ध की शपथ लेते हैं। कुंभकेतु कहता है कि हमारे होते हुए आपको अभी से युद्ध करने की आवश्यकता नहीं। यदि आप आज्ञा दें तो मैं सिंघनाद और केतुमाली के साथ जाकर प्रद्युम्न का तक्षण ही वध कर दूंगा। यह सुनकर संभरासुर प्रसन्न होकर कहता है- विजयीभव:...जाओ। फिर कुंभकेतु अपने भाई सिंघनाद और केतुमाली के साथ युद्ध घोष करता है।
 
इसके बाद कुंभकेतु की पत्नी हवा में पद्मासन लगाकर चामुण्डा माता के मंत्र का उच्चारण करती है और कुंभकेतु एक यज्ञ वेदी के सामने आंख बंद करके बैठा रहता है। यह देखकर रुक्मिणी पूछती है कि प्रभु कुंभकेतु की पत्नी को ये कैसी सिद्धि प्राप्त हुई है।
 
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सिद्धि उसे कठोर तपाचरण से प्राप्त हुई है। धर्मराज युधिष्‍ठिर कभी असत्य कथन नहीं करते हैं और कठोर धर्माचरण करते हैं इसलिए उनका रथ सदा-सर्वदा धरती के उपर ही वायुमंडल में चलता रहता है। उसी प्रकार कुंभकेतु की पत्नी कामिनी अपने कठोर तपाचरण से यज्ञकुंड के सिद्दि स्थल पर सदा-सर्वदा धरती के उपर ही रहती है। कामिनी के कक्ष में जो यज्ञकुंड है उसका निर्माण भी कामिनी के तपाचरण से हुआ है। इस कठोर तपाचरण का दूसरा नाम है पतिभक्ति। कामिमी ने कुंभकेतु की हर प्रकार से सुरक्षा के उद्देश्य से उस यज्ञकुंड का निर्माण किया है। कुंभकेतु भी प्रतिदिन इस यज्ञकुंड की पूजा करता है। कामिनी जब ऐसे एक सौ यज्ञकुंड का निर्माण कर लेगी तब कुंभकेतु पूर्णरूप से सुरक्षित हो जाएगा। फिर उसे मारना असंभव हो जाएगा। कामिनी ने स्वयं यमदेव से ये वरदान प्राप्त किया है कि जब तक कामिनी के यज्ञकुंड की अग्नि से शोलों की लपटें निकलती रहेंगी तब तक कुंभकेतु का वध कोई नहीं कर सकता। 
 
फिर उधर कामिनी हवा नीचे उतरकर अपने आसन पर खड़े होकर यज्ञकुंड को प्रणाम करती है और कुंभकेतु भी ऐसा ही करता है। फिर कामिनी एक तलवार को यज्ञकुंड की अग्नि से स्पर्श करने के बाद उसे माथे से लगाकर अपने पति कुंभकेतु को भेंट करती है। फिर तीलक लगाकर उसकी आरती उतारती है और युद्ध के लिए विदा करते वक्त कहती है- मुझे आपके शौर्य पर और अपनी तपस्या पर पूर्ण विश्वास है कि आप विजयी होंगे। तब कुंभकेतु कहता है- ये यज्ञकुंड 99वां यज्ञकुंड है जो तुमने अपनी तपस्या से तैयार किया है। इस यज्ञकुंड से जब तक अग्नि की लपटें उठती रहेंगी तब तक मेरे जीवन की ज्योति भी जलती रहेगी।..फिर कुंभकेतु वहां से युद्ध के लिए निकल जाता है।
 
फिर कुंभकेतु की पत्नी कामिनी के पास मायासुर की विधवा आकर अपना दु:ख साझा करती है और कहती है कि अब तो मुझे सिंहकेतु की पत्नी का दुख भी व्याकुल कर रहा है। यह सुनकर कामिनी कहती हैं कि सिंहकेतु का दु:ख तो मुझे भी है। इस पर मायासुर की विधवा कहती है कि कामिनी ये युद्ध बड़ा ही अत्याचारी है। इस युद्ध को रोक दो कामिनी। इस पर वह कहती है कि हम प्रार्थना के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते हैं।
 
फिर वह विधवा बताती है कि किस तरह मयासुर का वध हुआ और किस तरह सिंहकेतु का सिर इसी महल में आकर गिरा था। कामिनी इस भ्रम को तोड़ दो कि कुंभकेतु अमर है। इस पर कामिनी कहती है कि मुझे अपनी तपस्या और भाग्य पर पूरा विश्वास है। मेरे सुहाग को कुछ नहीं होगा आप व्यर्थ ही आतंकित होकर मुझे भयभीत कर रही हैं। तब वह विधवा कहती है कि मैं भयभित नहीं कर रही हूं। आज तक किसी भी राजा ने वासुदेव श्रीकृष्ण से युद्ध करने की भूल की है उसका और उसके राज्य का विनाश ही हुआ है। प्रद्युम्न भी उसी शौर्यशाली और शक्तिशाली पिता का पुत्र है जिसने अकेले ही अपने बल पर असुरेश्वरों के असुरों का नाश किया है। उसे भी श्रीकृष्ण की मायावी सुरक्षा प्राप्त है। वह अवश्य ही कुंभकेतु के अमृत्व के भ्रम को तोड़ डालेगा। यह सुनकर कामिनी कहती है- नहीं ऐसा नहीं होगा।...दीदी अब बाण कमान से निकल चुका है अब मैं युद्ध नहीं रोक सकती। 
 
उधर, कुंभकेतु अपने भाइयों के साथ युद्ध में प्रद्युम्न के सामने सेना लेकर खड़ा जाता है। एक अकेले प्रद्युम्न के विरुद्ध संभरासुर की सेना। प्रद्युम्न अपने मायावी तीरों से उसकी सेना के सभी सैनिकों को बेहोश कर देता है। यह देखकर कुंभकेतु, सिंहनाद और केतुमाली भड़क जाते हैं। फिर प्रद्युम्न सिंहनाद का वध कर देता है और उसके बाद वह केतुमाली को भी मार देता है। अकेला कुंभकेतु ही बच जाता है।
 
उधर मायावती को ये समाचार मिलता है तो वह संभासुर के सामने विलाप करने लगती। इस पर संभरासुर कहता है कि बंद करो अपना ये विलाप। यदि तुममें युद्ध देखना का साहस नहीं है तो फोड़ लो अपनी आंखें। मायावती मेरे पुत्र साधारण मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए हैं उन्हें वीरगति प्राप्त हुई है। फिर संभरासुर को सिंहनाद और केतुमाली की पत्नियों के रोने के आवाज आती है। यह सुनकर मायावी उसे बताती है कि ये आपनी बहुओं की आवाज है। तब वह कहता है- मायावती युद्ध में तो हार-जीत होती रहती है। ये सर्वनाश मैं नहीं एक एक योद्धा कर रहा है। परंतु अब मैं उसका सर्वनाश करूंगा।
 
फिर कुंभकेतु की पत्नि सिंहनाद और केतुमाली की रोती हुई विधवा पत्नियों के पास जाकर खड़ी हो जाती है। वहां पर मायासुर की विधवा भी रहती है। वहां यह सब देखकर कुंभकेतु की पत्नी उदास और भयभित हो जाती है। मायासुर की पत्नी रोते हुए उसे इशारों से निवेदन करती है कि अब भी वक्त है ये युद्ध रुकवा दो।
 
यह सब विलाप वाला दृश्य देखकर कुंभकेतु की पत्नी वहां से चली जाती है। यह जाकर अपने यज्ञ कक्ष में जाकर देखती है यज्ञकुंड की अग्नि को जलते हुए। यह देखकर वह प्रसन्न हो जाती है और फिर जोर जोर से हंसने लगती है।... 
 
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ये सब देख रहे होते हैं। रुक्मिणी कहती है कि इस समय संभरासुर का भवन शोक में डूबा हुआ है क्योंकि प्रद्युम्न से उसके अनेक पुत्रों का वध क्या है परंतु कामिनी अपने कक्ष में पागलों की तरह हंस रही है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कामिनी का ये विचित्र व्यवहार भविष्य के कलियुग का दर्पण है। कलियुग की सबसे बड़ी विडंबना ये होगी की मनुष्य अपने छोटे से स्वार्थ के लिए दूसरों के बड़े-बड़े हितों को भेंट चढ़ाने का संकोच नहीं करेगा। कलियुग में भाई भी भाई का नहीं होगा और तो और संतान भी अपने माता-पिता की नहीं होगी। मनुष्य केवल अपने और अपने बेटे बच्चों के घेरे में सीमित हो जाएगा। बाकी सब उसके लिए पराए हो जाएंगा।... इस पर रुक्मिणी कहती है- परंतु भगवन यहां दूसरे नहीं कामिनी के अपने खुद के देवरों का वध किया है प्रद्युम्न ने।
 
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कामिनी को इसकी खुशी नहीं है कि उसके देवरों का वध हुआ, उसकी खुशी ये है कि उसके कक्ष में 99वें यज्ञों के कुंड से अग्नि की लपटें अब भी उठ रही हैं जो इस बात का प्रमाण है कि उसका अपना सुहाग कुंभकेतु जीवित है। अपनी इस खुशी में वह अपनों के दुखों को भूलकर अपने कक्ष में हंस रही हैं। देवी ये तो कुछ भी नहीं है कलियुग में मनुष्य की विचारधारा इससे भी गिरी हुई होगी। मनुष्य दूसरों के दु:ख में अपना सुख ढूंढेगा। अपने परिवार का पेट पालने के लिए दूसरों की हत्या करने में उसे कोई ग्लानी और कोई पश्चाताप नहीं होगा। दूसरों के रक्त में सनी हुई रोटी वह स्वयं भी खाएगा और अपनी संतान को भी खिलाएगा।
 
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- भगवन कलियुग के मानव का इतना भयानक चित्रण मत दिखाइए मुझे। मानवता के इस दुर्भाग्य की मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि कलयुग की कल्पना छोड़ो द्वापर युग की इस कामिनी को आप स्वयं अपनी आंखों से देख रही हो। वो अपने स्वार्थ में ये भूल गई है कि स्वार्थ प्रवृत्ति के कारण उसका पुण्य शून्य होने जा रहा है। इसका ज्ञान इस समय कामिनी को नहीं है। परंतु जब इसका ज्ञान उसे होगा तब समय रेत की भांति मुठ्ठी से निकल चुका होगा। ये सब होनी के प्रभाव के कारण होगा। इसलिए कामिनी कुंभकेतु को बचाने के लिए युद्ध को रोकना चाहेगी परंतु प्रद्युम्न के धनुष से छुटने वाले बाणों को रोक नहीं सकेगी। जय श्रीकृष्ण। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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