Shri Krishna 10 Sept Episode 131 : सरयू तट पर जब भेष बदलकर हनुमान कराते हैं ब्राह्मण भोज

अनिरुद्ध जोशी

गुरुवार, 10 सितम्बर 2020 (22:23 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 10 सितंबर के 131वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 131 ) में भानामति कहती है कि मैं मुक्त होना चाहती हूं। मैं जाना चाहती हूं पुत्र। मेरा मोह छोड़ दो। फिर भानामति श्रीकृष्ण को प्रणाम करके कहती हैं- प्रभु मुक्त होने के पहले मेरी एक अंतिम इच्छा है कि मुझे आपके चतुर्भुज रूप के दर्शन हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य भानामति। यह सुनकर आकाश में सभी देवता प्रकट हो जाते हैं और शंख की ध्वनि बजने लगती है। फिर श्रीकृष्ण अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हो जाते हैं। नारदमुनि, ब्रह्मा, शिव आदि सभी देवता उन्हें नमस्कार करते हैं। प्रद्युम्न और रति भी ये दृश्य देखते हैं और फिर भानामति और प्रद्युम्न उनका स्तुति गान करते हैं। फिर भानामति ज्योतिरूप में बदलकर श्रीकृष्ण के हृदय में विलिन हो जाती है।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
फिर रामानंद सागरजी आकर बताते हैं कि महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सारथी बनकर जिस रथ को चला रहे थे उस रथ की पताका पर स्वयं भगवान हनुमानजी का चित्र था। पुराणों में लिखा है कि वास्तव में हनुमानजी स्वयं ही अदृश्य रूप में रथ पर विराजमान थे। क्योंकि श्रीकृष्ण ने उन्हें उस महायुद्ध में अर्जुन की सहायता करने के लिए आदेश दिया था। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के साथ हनुामनजी की भेंट कब और कैसे हुई यही कथा अब हम आपको सुनाने जा रहे हैं।
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त्रैतायुग में भगवान राम ने ही जामवंत और हनुमानजी को चिरंजीवी रहकर धरती पर ही रहने का आदेश दिया था। द्वापर युग में श्रीकृष्ण जब स्यमंतक मणि की खोज करते एक गुफा में पहुंचे तो उनकी भेंट जामवंतजी से हुई थी। जामवंतजी के आग्रह पर ही श्रीकृष्‍ण ने उन्हें अपने राम रूप में दर्शन दिए थे। जामवंतजी को तो जल्दी ही दर्शन हो गए थे परंतु हनुमानजी को दर्शन देने का समय कुछ देर से आया। हनुमानजी जानते थे कि श्रीकृष्‍ण के रूप में उनके प्रभु का जन्म हो चुका है परंतु वे एक सच्चे भक्त और नि:स्वार्थ सेवक की भांति वो उस क्षण की प्रतिक्षा करते रहे जब प्रभु स्वयं उन्हें बुलाएंगे या दर्शन देंगे। क्योंकि स्वामी की आज्ञा के बिना सेवक उनके समक्ष चला जाए तो सेवक धर्म के नाते उसे सेवक की धृष्टता समझा जाता है। इसीलिए हनुमानजी प्रभु की आज्ञा से एक पर्वत पर प्रभु के नाम का जप और तप करते रहे हैं।
 
हनुमानजी एक पर्वत तप कर रहे थे। यह देखकर भगवान शंकर विष्णुजी से कहते हैं- हे प्रभु! युग-युगों से आपके दर्शन की अभिलाषा से धरती पर निवास करने वाले भक्त शिरोमणी हनुमान की ओर आपका ध्यान नहीं है प्रभु। तब विष्णु कहते हैं कि धर्म की रक्षार्थ हनुमानजी की सहायता की आवश्‍यकता होगी अत: महाभारत युद्ध के पहले ही मैं हनुमान को श्रीराम का दर्शन करवा दूंगा। 
 
हनुमानजी को फिर से पर्वत पर तप करते हुए बताया जाता है तभी वहां पर नारदमुनि प्रकट होकर उन्हें प्रणाम करते हैं। हनुमानजी भी खड़े होकर उन्हें प्रणाम करते हैं तो देवर्षि नारदमुनि कहते हैं- हे रामभक्त हनुमान! आज आप बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं तो इस पर हनुमानजी कहते हैं कि रामनाम से ही सभी तरह की पीड़ा मिट जाती है, तन-मन निर्मल हो जाता है। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं कि यदि रामनाम से ही सारी पीड़ाएं दूर हो जाती हैं तो सोचिये श्रीराम के दर्शन से क्या होगा? यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं कि श्रीराम के दर्शन से जनम-जनम के पापों का नाश हो जाता है। श्रीराम के केवल एक कटाक्ष से मनुष्य के जीवन का उद्धार हो जाता है और श्रीराम के चरण स्पर्श से शापित जीवन का अंत हो जाता है। देवर्षि रामनाम की यही महिमा है।
 
 
यह सुनकर देवर्षि कहते हैं कि हे पवनपुत्र तब आप श्रीराम के दर्शन क्यों नहीं करता? यह सुनकर हनुमानजी आश्चर्य कहते हैं श्रीरामजी के दर्शन! इस पर नारदमुनि कहते हैं- हां श्रीराम के दर्शन। आप द्वारिका जाइये वहां आपको श्रीरामजी के दर्शन अवश्य होंगे। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- देवर्षि द्वारिका में तो वासुदेव श्रीकृष्ण निवास करते हैं। यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- हे हनुमानजी आप तो ज्ञानी हैं। आप तो जानते ही हैं कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु का अवतार हैं और आप यह भी जानते हैं कि श्रीकृष्ण ही त्रैतायुग में भगवान श्रीराम थे।...यह सारा घटनाक्रम श्रीकृष्ण देख रहे होते हैं।...इसके बाद हनुमानजी कहते हैं- हां देवर्षि मैं ये सब जानता हूं परंतु मैं श्रीराम का सेवक हूं, प्रभु श्रीराम मेरे स्वामी हैं और सेवक का कर्तव्य होता है अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करना। यदि श्रीराम के बिना बुलाए मैं उनसे मिलने गया तो वो मेरी धृष्टता होगी, मेरे स्वामी का अपमान होगा और उनकी अवज्ञा होगी। 
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तब नारदमुनि कहते हैं- हे हनुमान ये त्रैता नहीं द्वापर युग है क्या आपको अब भी विश्वास है कि वो आपको दर्शन देंगे? हनुमानजी कहते हैं- क्यों नहीं देंगे। मुझे उन पर पूरा विश्वास है। मुझे और जामवंत को प्रभु ने द्वापर युग में दर्शन देने का वचन दिया था। उसी वचन का पालन करने के लिए प्रभु जामवंत की गुफा में गए थे। जब समय आएगा तब वो मुझे भी अवश्य दर्शन देंगे। प्रभु एक वचनी, एक पत्नी और एक वाणी है, वे अवश्य दर्शन देंगे। जब तक दर्शन के लिए वो मुझे बुलावा नहीं भेंजेगे तब तक मैं उनकी यहीं प्रतिक्षा करता रहूंगा। यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- हे हनुमान यदि आप द्वारिका नहीं जा रहे हैं तो मैं उन्हें जाकर ये बता दूंगा। तब हनुमानजी कहते हैं- नहीं देवर्षि आपको उन्हें कष्ट देने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- अच्‍छी बात है मैं उनको आपकी ये भावना भी बता दूंगा और कल ही आकर मैं आपको बता दूंगा कि उत्तर में उन्होंने क्या कहा है।
 
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- कल मैं गंधमादन पर्वत पर नहीं रहूंगा देवर्षि। आप तो जानते हैं कि कल रामनवमी है और इसी दिन मैं अयोध्या नगरी में सरयू किनारे ब्राह्मणों को भोज देता हूं, बस वहीं जा रहा हूं। यह सुनकर नारदमुनि वहां से चले जाते हैं।...यह देखकर भगवान महादेव कहते हैं कि हे प्रभु, क्या देवर्षि हनुमान की परीक्षा लेना चाहते हैं? यह सुनकर विष्णुजी कहते हैं- देवर्षि कुछ भी कर सकते हैं। कल को वे हमारी परीक्षा लें तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। 
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उधर, श्रीकृष्ण ध्यान में मगन रहते हैं तो रुक्मिणी वहां आकर उन्हें प्रणाम करती है तो उनकी आंखें खुल जाती है। फिर रुक्मिणी कहती हैं- प्रभु आप ध्यानावस्था में बैठे हुए भी मुस्कुरा रहे थे आप अपने किसी परम भक्त का स्मरण कर रहे थे, हे ना? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी मैं अपने परमभक्त का ही स्मरण कर रहा था। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है ऐसे भक्त जिसका स्मरण स्वयं भगवान करें कितना सौभाग्यशाली होगा वो। वह सौभाग्यशाली भक्त कौन है प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- मेरा परमभक्त हनुमान।..फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि केवल हनुमान ही नहीं मैं भी व्याकुल हूं हनुमान से मिलने के लिए।

तभी वहां पर नारदमुनि पहुंच जाते हैं और हनुमान के साथ हुई उनकी वार्तालाप का वर्णन करते हैं। फिर नारदमुनि कहते हैं- और हां प्रभु मैं आपको जन्मदिन की अग्रिम बधाई देता हूं प्रभु। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- परंतु मुनिवर जन्माष्टमी को तो अभी देर है ना? यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- जन्माष्टमी ही तो प्रभु का जन्मदिन नहीं है माते। रामनवमी भी तो प्रभु का जन्मदिन हुआ ना।...
 
फिर नारदजी कहते हैं- प्रभु कल रामनवमी है तो बड़ा मजा आाएगा। इस अवसर पर हनुमान ब्राह्मण का भेष धारण करके ब्राह्मणों को सरयू तट पर भोजन कराएंगे। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- हां मुनिवर अब आप तो ठहरे ब्राह्मण, भला खाने-पीने के अवसर को आप कैसे भूल सकते हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण और नारदमुनि हंसने लगते हैं। तब नारदमुनि कहते हैं- प्रभु आप भी चले चलिये ना, बहुत अच्‍छा अवसर है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वो तो ठीक है परंतु हमारे जाने से हनुमानजी के सारे कार्यक्रम उथल-पुथल हो जाएंगे। हमें देखकर उनकी सेवा भाव में बाधा पड़ेगी।
 
तब नारदमुनि कहते हैं- प्रभु रूप बदलकर चलते हैं ना। बैचारे हनुमान को क्या पता चल पाएगा आपका और हमारा..नारायण नारायण। रुक्मिणी भी कहती है कि प्रभु मुनिवर की इतनी इच्‍छा है तो जाकर देख आइये ना क्या होता है वहां। देवर्षि कहते हैं कि हां प्रभु राम नाम की जय-जयकार चारों दिशाओं में गूंजती है, वो दृश्य तो देखने योग्य होता है प्रभु।..तब प्रभु मान जाते हैं। 
 
उधर, हनुमानजी सरयू नदी के तट पर पहुंचकर अपना भेष बदल लेते हैं और पंडित बनकर एक पुरोहित से यज्ञ करवाकर ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए एक पंक्ति में बैठते हैं।..वहां पर नारदमुनि और श्रीकृष्ण भी पहुंच जाते हैं। नारदमुनि कहते हैं- प्रभु बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है लगता है कि हनुमानजी से बड़ा ही स्वादिष्‍ट भोजन बनवाया है। फिर दोनों अपना भेष बदलकर ब्राह्मण बन जाते हैं। 
 
उधर, हनुमानजी यज्ञ करने के बाद उठते हैं और वे खीर एवं पुरी उठाकर जय श्रीराम बोलते हुए ब्राह्मणों को परोसने लगते हैं। श्रीकृष्ण और नारदमुनि भी वहां ब्राह्मणों की पंगत में जाकर बैठ जाते हैं। हनुमानजी परोसते-परोसते आगे बढ़ जाते हैं। फिर वे नारदमुनि की पत्तल में खीर और पुरी रखने ही वाले रहते हैं कि तभी उन्हें श्रीकृष्‍ण के चरण नजर आते हैं तो वे रुक जाते हैं और उनके चरणों को गौर से देखने लगते हैं।
 
नारदमुनि भी देखने लगते हैं कि क्या हुआ। हनुमानजी कुछ समझने का प्रयास कर रहे होते हैं तभी श्रीकृष्ण ये भांप जाते हैं तो वे कहते हैं अरे पंडितजी! हमें भी तो परोसो रामनवमी का प्रसाद हम बहुत भूखे हैं भाई। नारदमुनि भी कहते हैं- हां परोसिये ना बहुत भूख लगी है। परंतु पंडित बने हनुमान श्रीकृष्ण के चरण ही देखते रहते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे पंडितजी परोसिये ना। 
 
परंतु हनुमानजी हाथ की पुड़ी एक ओर रखकर वे श्रीकृष्ण के चरणों में सिर टिकाकर कहते हैं- मेरे प्रभु.. मेरे प्रभु। अपने सेवक का प्रणाम स्वीकार कीजिये प्रभु। फिर हनुमानजी उठते हैं तो उनकी आंखों में आंसू होते हैं और वे हाथ जोड़कर मन ही मन कहते हैं- मुझे क्षमा कर दो प्रभु। मुझसे कोई भूल हो गई हो तो क्षमा कर दो प्रभु।..तब श्रीकृष्ण भी मन ही मन कहते हैं- हनुमान तुमसे कोई भूल हो ही नहीं सकती। फिर हनुमानजी को श्रीकृष्ण नजर आने लगते हैं और श्रीकृष्ण को भी हनुमानजी। यह देखकर नारदमुनि कहते हैं- नारायण नारायण। फिर हनुमानजी उनके चरणों में झुक जाते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं- उठो हनुमान। हनुमानजी कहते हैं- प्रभु मुझसे ऐसी कौन-सी भूल हो गई है जो आपको स्वयं चलकर यहां आना पड़ा है जबकि मुझे चलकर द्वारिका आना चाहिए था।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं तुम्हारी भक्ति और सेवा में विघ्न नहीं डालना चाहता था। तब हनुमानजी कहते हैं कि मेरी तो इच्‍छा थी आपके दर्शनों की। सोचता था कि आपके न जाने कब दर्शन होंगे। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो आज आपकी इच्‍छा पूरी हो गई ना? तब हनुमाजी कहते हैं कि नहीं प्रभु नहीं, मेरी ऐसी इच्छा कदापि नहीं थी कि मेरे स्वामी मेरे सामने हाथ फैलाएं और मैं उनके समक्ष दाता बनकर खड़ा रहूं। प्रभु ये दर्शन नहीं अनर्थ है अनर्थ। ये दृश्य देखकर इससे अच्‍छा होता की मेरी आंखें अंधी हो जाती।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं हनुमान जो आंखें ये देखकर तक्षण यह जान जाती है कि ये उसके स्वामी के चरण हैं वो आंखें तो तेजस्वी आंखें हैं। भला ऐसी आंखें अंधी कैसे हो सकती है। काश! ऐसी दृष्टि मेरे हर भक्त में होती। तब हनुमानजी कहते हैं- प्रभु ये दर्शन अधूरा है मैं आपके दर्शन के लिए स्वयं आऊंगा और सीता मैया के साथ आपके दर्शन करूंगा। तभी तो मेरा दर्शन पूरा होगा। तभी तो मेरी मनोकामना पूरी होगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तथास्तु। यह कहकर श्रीकृष्ण और नारदमुनि वहां से चले जाते हैं।
 
फिर उधर, रुक्मिणी देवर्षि से पूछती है- आपका पेट भरा की नहीं। कहीं आपको भोजन कम तो नहीं पड़ा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये भोजन तो क्या करते हनुमानजी की भक्ति और श्रद्धा को देखकर इनका मुंह तो खुला का खुला ही रह गया। फिर रुक्मिणी कहती है कि प्रभु कहीं आप अपने भक्त की परीक्षा लेने तो नहीं गए थे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं देवी। मुझे अपने हनुमान पर पूरा विश्वास है। मैं जानता था कि मेरा परमभक्त मुझे किसी भी भेष में देखकर पहचान ही लेगा। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं कि तो फिर आप वहां गए ही क्यों थे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसका उत्तर तो मुनिवर को ही देना चाहिए जो हनुमान को साधारण भक्त सिद्ध करना चाहते थे, जो मुझे पहचान नहीं पाएगा। यह सुनकर देवर्षि नारदमुनि सकपका जाते हैं और कहते हैं- मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई भगवन। आपकी भक्ति के गर्व का नशा मुझ पर छा गया था और मैं अपने आपको आपका सर्वश्रेष्ठ भक्त समझने लगा था भगवन। ये मेरा अहंकार था भगवन मुझे क्षमा कर दें। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसी अहंकार को तोड़ने के लिए तो मुझे आपके साथ हनुमान के पास जाना पड़ा। ऐसे मेरे कई भक्त हैं जो अहंकार के मारे हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं कि आप किन भक्तों की बात कर रहे हैं प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि कई हैं जैसे दाऊ भैया, अर्जुन, मेरे सुदर्शन चक्र और गुरुढ़। इन सबको अहंकार के नाग ने डंस लिया है। किसी को अपने बाहुबल का अहंकार है तो किसी को अपनी धनुर्विद्या का घमंड है। ये सब मेरे अपने हैं मैं इनको खोना नहीं चाहता इसलिए इनका अहंकार भी तोड़ना होगा। यह सुनकर देवी रुक्मिणी कहती है- परंतु भगवन आप इनका अहंकार तोड़ेगे कैसे? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं नहीं देवी मेरा परमभक्त हनुमान इन सबके अहंकार को तोड़ेगा और अभी तो हनुमान को वासुदेव भगवान को भी सीधा करना है। 
 
यह सुनकर नारदमुनि आश्चर्य पूछते हैं- वासुदेव भगवान को भी सीधा करना है? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां मुनिवर। तब नारदमुनि कहते हैं- प्रभु ये मैं क्या सुन रहा हूं? तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- मुनिवर इस धरती पर एक और वासुदेव ने जन्म लिया है। वासुदेव भगवान पौंड्रक नगरी का राजा है। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं वासुदेव पौंड्रक? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां मुनिवर वासुदेव पौंड्रक। वह अपने आप को वासुदेव कहता हैं और उसने शंख, गदा और सुदर्शन चक्र भी ग्रहण कर रखा है। इतना ही नहीं उसने अपने काका के पुत्र को बलराम भी बना रखा है। पौंड्रक अपने को सच्चा वासुदेव और मुझे झूठा वासुदेव कहता है। 
 
फिर पौंड्रक राज्य के वासुदेव को बताया जाता है तो ‍खुद को भगवान मानता है और राज्य के लोगों को भी यह मानने के लिए बाध्य करता है। जो उसे भगवान मानता है उसे वह इनाम देता और जो नहीं मानता है उसे वह सजा देता है। काशीराज अर्थात काशी के राजा भी उसे भगवान मानकर उसकी हां में हां मिलते हुए बताए जाते हैं। फिर सेनापति दूर्धर एक साधु को पकड़कर लाया जाता है जिसका अपराध यह रहता है कि वह उसे भगवान नहीं बल्कि द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण को भगवान मानता है। उसे क्षमा मांगने के लिए कहा जाता है परंतु वह ऐसा नहीं करता है तो काशीराज कहता है कि इस पापी को अवश्य दंड मिलना चाहिए। इसकी गर्दन ही काट देना चाहिए। तब नकली वासुदेव अपने चक्र से उसका सिर काट देता है। जय श्रीकृष्णा।
 
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