निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 22 सितंबर के 143वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 143 ) में पांडवों को 13 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हो जाता है। द्रौपदी के साथ वे वन में चले जाते हैं और कुंती विदुर के यहां रहने लगती है। वन में पांडव अपने रहने के लिए कुटिया बनाते हैं। वहां उनसे मिलने के लिए श्रीकृष्ण और रुक्मिणी आते हैं।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
फिर पांडव अपनी पत्नी पांचाली के सहित वनवास चले जाते हैं। वन में जाकर वे अपनी कुटिया बनाते हैं। तब एक दिन श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ उन सभी से मिलने आते हैं तो पांचाली उनके पैर छूती हैं। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि पांचाली तुम्हारी आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते, तुम तो वीर हो। तब द्रौपदी कहती है- आप समय पर आकर मेरी लाज नहीं रखते तो न जाने मेरा क्या होता। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- कुछ नहीं होता, जब तक तुम्हारा ये भैया है तुम्हें कुछ नहीं हो सकता। यह सुनकर द्रौपदी श्रीकृष्ण के गले लग जाती है।
फिर पांडव अपने द्वारा जुआं खेलने का पश्चाताप करते हैं। भीम कहता है कि अच्छा हुआ जो हम वन में आ गए, यहां हमारे लज्जित चेहरों को देखने वाला कोई नहीं है। यह सुनकर द्रौपदी कहती है कि अब इस वन में मुंह छिपाने से क्या लाभ, उस दिन द्युतसभा में सबके सब मुंह सीकर बैठकर गए थे। अरे पांचों में से किसी एक का भी साहस नहीं हुआ जो मेरी लाज की रक्षा करते। इस तरह द्रौपदी पांचों पांडवों के कई तरह के कटु वचन कहती है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण द्रौपदी को कहते हैं कि मैं तुम्हारे अपमान की इस गहरी पीड़ा को समझता हूं। परंतु हे पांचाली ये पांचों जो तुम्हारे पति हैं इनके सिर बड़े से बड़े योद्धा के सामने नहीं झुके परंतु आज अपने आपको तुम्हारा अपराधी मानकर सर झुकाए खड़े हैं। ऐसा नहीं कि इनके शस्त्रों की धार मिट गई है। ये अपने बल से आज भी प्रलय ला सकते हैं। तनिक तुम इनकी आत्मा में झांककर देखो। तुमसे कहीं ज्यादा अपमान के घाव मिलेंगे, जिसकी केवल पीड़ा ध्वनि से ही पृथ्वी पर कंपन आ सकता है। इनके अंदर भी प्रतिशोध का एक तूफान पल रहा है। फिर भी ये अपने आप को संभाले हुए हैं।
तभी सभी कहते हैं- हे केशव! द्रौपदी को जो भी कहना हो कहने दीजिये। इनके कटु वचन सत्य है जिससे हमारे घाव हरे रहेंगे। ताकि प्रतिशोध की अग्नि बुझे नहीं और हम इस अपमान को भूलें नहीं। तब द्रौपदी कहती है कि तुम इसे भूल भी नहीं सकते। क्या तुम मेरे इन खुले बालों को नहीं देख रहे। अब ये बाल नहीं विषैले नाग हैं नाग। व्याकुल हैं ये नाग दु:शासन की छाती का खून पीने के लिए।
पांडव जंगल में पहुंचकर निराश हो गए थे, तब श्रीकृष्ण ने उनकी हिम्मत बढ़ाई और उन्हें कौरवों की कुटिल चाल समझाई। कौरव यही चाहते थे कि पांडव निराश और बलहीन हो जाए। श्रीकृष्ण समझाते हैं कि तेरह वर्ष का वनवास असल में तुम्हारे लिए विधि के विधान का वरदान है। इसलिए विधि के इस वरदान का लाभ उठाकर पांडवों को अपनी शक्ति और बल बढ़ाना चाहिए। अर्जुन को इन तेरह वर्ष में घोर तप करके सदेह इंद्रलोक जाने की शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। इंद्रलोक जाकर उन्हें उनके पिताश्री इंद्र से दिव्यास्त्र प्राप्त करना चाहिए। ताकि पांडव कौरवों से अपना अधिकार वापस लेने के लिए युद्ध में इन अस्त्रों का प्रयोग कर सकें।
फिर श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन तप करता है और तप के बाद अर्जुन को इंद्रलोक से एक रथ लेने आता है। वह रथ पर सवार होकर इंद्रलोक चला जाता है। वहां वह अपने पिता देवराज इंद्र से मिलता है। इंद्र कहते हैं- मैं तुम्हें दिव्यास्त्र अवश्य प्रदान करूंगा जो तुम्हें युद्ध में काम आएंगे। फिर इंद्र उर्वशी से कहते हैं कि अर्जुन हमारे इंद्रलोक का विशेष अतिथि है। उसके आवभगत और उसकी सेवा में कोई कमी मत रखना। यह सुनकर उर्वशी कहती है- अवश्य।
फिर देवराज इंद्र अर्जुन को एक-एक करने सभी दिव्यास्त्रों की शिक्षा देकर अस्त्र देते हैं। इस दौरान उर्वशी अर्जुन को देखकर मोहित हो जाती है। फिर एक रात उर्वशी अर्जुन के कक्ष में जाकर उससे प्रणय निवेदन करती है। तब अर्जुन कहता है- आप मेरी माता समान है क्योंकि देवराज इंद्र मेरे पिता हैं और आप उनकी प्रेमिका हैं। यह सुनकर उर्वशी क्रोधित होकर कहती है- तुमने मेरा अपमान किया है इसलिए मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि एक वर्ष के लिए तुम्हारे पुरुषत्व का नाश हो जाएगा। तुम एक वर्ष के लिए नपुंसक बन जाओगे और स्त्रियों की भांति नाचते-गाते फिरोगे। अर्जुन कहता है- माता मैं आपके श्राप को स्वीकार करता हूं।
यह देख-सुनकर रुक्मिणी कहती है- प्रभु अप्सरा उर्वशी ने अर्जुन को भयंकर शाप दिया है। यह तो विचित्र घटना घटी है। एक तरफ अर्जुन देवेंद्र के अस्त्रों को प्राप्त करके शक्तिशाली बन गया है और दूसरी तरफ उर्वशी के श्राप से नपुंसक बन गया है। उसे कहीं का नहीं छोड़ा। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- सत्य और धर्म का मार्ग पथरिला और कांटों से भरा होता ही है इसलिए इस मार्ग में पांवों पर छाले पड़ना स्वाभाविक है। देवी यह श्राप भी विधि का विधान है और मैं इस विधान में छुपे हुए वरदान को स्पष्ट रूप से देख रहा हूं। देवी पांडवों का बारह वर्ष का वनवास तो लगभग समाप्त ही होने वाला है। उसके पश्चात एक वर्ष का अज्ञातवास अभी काटना बाकी है। बस यह एक वर्ष का अज्ञातवास अर्जुन के लिए वरदान साबित होगा। इस श्राप के कारण अर्जुन अर्धनारी जैसा दिखाई देगा। इसलिए उसे कोई पहचान नहीं सकेगा। देवी अर्जुन मेरा भक्त ही नहीं मेरा सखा भी है। उसके लिए तो अभी मुझे भगवान भोलेनाथ से भी एक याचना करनी है।
फिर श्रीकृष्ण देवाधिदेव महादेव से कहते हैं- हे कैलाशपति! मेरा मित्र अर्जुन देवलोक में इंद्र से दिव्यास्त्र प्राप्त कर चुका है परंतु आने वाले युद्ध में ये पर्याप्त नहीं है क्योंकि अर्जुन को भगवान परशुराम के शिष्यों द्रोण, भीष्म और कर्ण आदि से लड़ना पड़ेगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि देवराज इंद्र के बाद मेरे सखा अर्जुन पर आपकी कृपा दृष्टि भी हो जाए क्योंकि आपकी कृपा दृष्टि के बिना कोई भी योद्धा विजयी कैसे हो सकता है। अत: हे माहादेव! आप अर्जुन के गुरु बन जाइए।
यह सुनकर महादेव कहते हैं- मैं गुरु अवश्य बनूंगा परंतु उससे पहले मैं उसके बल और उसकी धनुर्विद्या की परीक्षा लेना चाहूंगा। अर्थात वो मेरा शिष्य बनने योग्य है या नहीं मैं ये देखना चाहता हूं। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य महादेव मुझे विश्वास है कि अर्जुन आपकी परीक्षा में पूर्णत: खरा उतरेगा।
वन में अर्जुन एक वराह (सूअर) को तीर मारता है यह देखकर किरात वेश धारण किए शिवजी में उसी क्षण तीर मारकर उस मृत वराह के पास पहुंच जाते हैं। शिवजी कहते हैं कि यह सूअर मेरे तीर से मरा है इसलिए इस पर दृष्टि उठाकर भी ना देखना क्योंकि यह मेरा शिकार है। यह सुनकर अर्जुन भड़क जाता है और कहता है कि यह मेरा शिकार है। फिर दोनों में यह विवाद होता है कि किसने पहले बाण चलाया और किसने पहले देखा था। तब अर्जुन कहता है कि तुम्हें मुझसे युद्ध करना होगा जो जीतेगा वह इस शिकार को ले जाएगा। शिवजी कहते हैं- मंजूर है। फिर दोनों में युद्ध होता है। अंत में अर्जुन बुरी तरह से घायल होकर नीचे गिर जाता है। तब किरात बने शिवजी कहते हैं कि क्या अब भी तुम मुझसे युद्ध करना चाहोगे? तब अर्जुन कहता है- हे किरात अभी युद्ध समाप्त नहीं हुआ है परंतु युद्ध करने से पहले में अब शिवजी की पूजा करना चाहता हूं। किरात बने शिवजी कहते हैं कि मुझे स्वीकार है।
फिर अर्जुन वहीं पर मिट्टी के शिवलिंग बनाकर शिवजी की पूजा करता है और कहता है कि मैं आपकी शरण में आया हूं मेरी इस पूजा को स्वीकार कीजिये। फिर अर्जुन शिवलिंग पर फूल अर्पित करते हैं तो वे सभी फूल सामने खड़े किरात पर बरस जाते हैं। यह देखकर अर्जुन को आश्चर्य होता है। वह पुन: दूसरे फूल लेकर अर्जुन कहता है हे त्रिपुरारी मुझे इस किरात को युद्ध में परास्त करने की शक्ति प्रदान करें। ऐसा कहकर अर्जुन पुन: फूलों को शिवलिंग पर चढ़ता है तो पुन: सामने खड़े किरात भेषधारी शिव के चरणों में गिर जाते हैं। यह देखकर अर्जुन चौंक जाता है।
वह पुन: यह प्रक्रिया दोहराता है और दोहराता ही चला जाता है तब श्रीकृष्ण प्रकट होकर बताते हैं कि जिन फूलों को तुम शिवलिंग को अर्पित कर रहे हो वह इन किरात को अर्पित हो रहे हैं। इसका अर्थ तुम फिर भी नहीं समझ सके? अर्जुन कहता है नहीं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं हे अर्जुन साक्षात महादेव किरात के रूप में तुम्हारे सामने खड़े हैं। यह सुनकर अर्जुन आश्चर्यचकित और प्रसन्न हो जाता है। फिर अर्जुन शिवजी के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा मांगता है।
फिर शिवजी अपने असली रूप में प्रकट होकर कहते हैं कि हम तुमसे अति प्रसन्न हैं। तुम्हारे जैसा धनुर्धारि त्रिलोक में कोई नहीं है। तुम्हें युद्ध में कोई हरा नहीं सकता। इसके अतिरिक्त तुम्हें और क्या चाहिए? यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे महादेव! कृपया आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिये और मुझे पाशुपतास्त्र की शिक्षा और दीक्षा दीजिये। यह सुनकर शिवजी कहते हैं- तथास्तु। फिर शिवजी अर्जुन को पाशुपतास्त्र की शिक्षा देते हैं और कहते हैं तुम दोनों अर्थात नर और नारायण जिस पक्ष मैं होंगे उसकी पराजय असंभव है। इसीलिए तुम्हारी विजय निश्चित है।
उधर, कर्ण, शकुनि और दुर्योधन बाते करते हैं कि आज पांडवों का बारह वर्ष का वनवास समाप्त हो रहा है इसलिए अब उन्हें एक वर्ष का अज्ञातवास काटना ही होगा। अब हमें उन्हें ढूंढ निकालना होगा ताकि वे पुन: 12 वर्ष के लिए वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास काटने पर मजबूर हो जाएं। जय श्रीकृष्णा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा