Shri Krishna 1 Oct Episode 152 : श्रीकृष्‍ण के समत्वबुद्धि, निष्काम कर्म और स्थितिप्रज्ञ का रहस्य

अनिरुद्ध जोशी

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020 (22:24 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 1 अक्टूबर के 152वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 152 ) में श्रीकृष्‍ण आगे निष्काम कर्म योग की शिक्षा देते हैं। माता पार्वती शिवजी से निष्काम कर्म को स्पष्‍ट करने का कहती हैं तब शिवजी इस संबंध में बताते हैं कि निष्काम कर्म करने का क्या अर्थ है।
 
 
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फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि उस वक्त जबकि तुम स्वर्ग में गए थे तो उर्वशी के कारण तुम विचलित नहीं हुए थे परंतु आज कैसे विचलित हो गए हो? उस समय तुम अपना धर्म नहीं भूले थे परंतु इस समय तुम अपना धर्म भूल रहे हो। इसका कारण जानना चाहोगे? यह सुनकर अर्जुन कहता है- हां केशव। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारा मन तुम्हारे काबू में नहीं है क्योंकि तुमने कर्म योग नहीं अपनाया है। यह सुनकर अर्जुन कहता है- क्या कहा, कर्मयोग से मन काबू में रहता है? फिर श्रीकृष्‍ण कई उदाहरण देककर कर्म योग और कर्म योगी के महत्व को प्रदर्शित करते हैं।
 
उधर, धृतराष्‍ट्र इस निष्काम कर्म की खिल्ला उड़ाते हुए कहता है- कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं बांधे जाओगे। ये क्या कह रहा है कृष्ण। ऐसा लगता है कि मेरे प्रिय पुत्र निष्पाप अर्जुन को उलझाने का प्रयास कर रहा है। युद्ध के लिए तैयार कराने हेतु भूल भुलैया में फंसा रहा है। 
 
उधर, अर्जुन कहता है- हे केशव! तुम मुझे कौन-सी भूल भुलैया में डाल रहे हो। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है- देख लिया संजय, यह अर्जुन भी संदेह के घेरे में आ गया है। उसे पता चल गया है कि कृष्‍ण गोल-मोल बातें कर रहा है। फिर उधर अर्जुन कहता है- हे केशव! उस कर्म का तरीका बताओ जिससे बंधन भी न हो। यह सुनककर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- इसका बड़ा ही सरल तरीका है कि तुम कर्मफल में आसक्ति मत रखो।
 
इस तरह अर्जुन कर्म के संबंध में कई तरह के प्रश्न करता है और श्रीकृष्‍ण लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मारने की कौरवों की योजना के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि कितना योजनाबद्ध कर्म था परंतु इस कर्म का फल क्या उन्हें मिला? नहीं, क्योंकि प्रारब्ध की योजना और थी। जब उनके सारे प्रयास विफल हो गए तो उन्होंने छल-कपट से काम लेकर 12 वर्षों के बनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास में भेज दिया था। परंतु बार-बार प्रयास करने के बाद भी कौरवों को उनकी इच्छा अनुसार फल प्राप्त नहीं हुआ। वो ये भूल गए थे कि फल प्रारब्ध अनुसार मिलता है। इन दुष्‍कर्मों के चक्र में वो बुरी तरह फंस गए हैं पार्थ और जिस फल की वो कामना कर रहे हैं वो फल उन्हें प्राप्त नहीं होगा बल्कि दुष्कर्मों का बुरा फल ही उन्हें मिलेगा। ये बात तुम सदा याद रखो।
 
फिर भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं- देवी एक ओर दुर्योधन है और दूसरी ओर भरत है। एक ओर आसक्ति है तो दूसरी ओर निरासक्ति है। भरत को उनके भाई श्रीराम ने सिंघासन सौंपा भी तो उसने स्वीकार नहीं किया तो दूसरी ओर दुर्योधन ने अपने ही भाइयों का राज छल-कपट से छीन लिया। भारत ने राज मिलने पर भी उसे स्वीकार करने से इनकार करके श्रीराम को ही अपना राजा माना।... फिर भरत द्वारा श्रीराम की चरण पादुका ले जाने के दृष्य को बताया जाता है। फिर शिवजी कहते हैं- देवी ये है एक महान योगी का उदाहरण जो पूर्णत: निरासक्त और उधर देखो आसक्ति और लोभ के दलदल में फंसा हुआ दुर्योधन।... भगवान श्रीकृष्‍ण ठीक कह रहे हैं देवी कि दुर्योधन को उसके कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। 
 
अंत में श्रीकृष्‍ण समत्वबुद्धि कर्म योग की बात करते हैं।
 
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥-सांख्ययोग (कर्म का विषय)
भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है॥48॥
 
हे अर्जुन कर्म योगी पाप, पुण्य, सुख, दुख, यश और अपयश आदि से मुक्ति होते हैं। फिर श्रीकृष्‍ण मोह की बात करते हैं। मोह अज्ञान का कारण होता है। श्रीकृष्‍ण निरासक्ति भाव की बात को विस्तार से बताते हैं। मोह का लोप होने पर मनुष्‍य किसी भी प्रकार से किसी भी वस्तु की ओर आकर्षित नहीं होता। हे पार्थ यथार्थ ज्ञान की प्राप्त के बाद मोह नहीं होता। फिर श्रीकृष्‍ण स्थितप्रज्ञ बनने की बात करते हैं। 
 
श्रीकृष्‍ण कहते हैं हे पार्थ स्थि‍तप्रज्ञ महापुरुष सुख, दु:ख प्रत्येक अवस्था में आत्मिक शांति प्राप्त कर लेता है। परमांदन में लीन होने से ऐसे पुरुष को दु:ख और सुख कभी विचलित नहीं करते हैं। ऐसे स्थितप्रज्ञ का मन उस दीये की भांति होता है जिसकी लो स्थिर होती है। कभी डोलती नहीं है। 
 
यह सुनकर माता पार्वती कहती है- प्रभु दीए की लो अधिक समय तक तो अचल और अडोल तो रहती नहीं। वह तो हवा के हल्के झोंके से भी तड़पने लगती है। तब शिवजी कहते हैं- हां देवी पार्वती प्रभु श्रीकृष्‍ण यही तो समझा रहे हैं कि मनुष्‍य का मन कामनाओं की आंधी में रखे हुए एक दीपक की तरह होता है। कामनाओं के तेज झोंके उसे दीए की बाती को स्थिर नहीं रहने देते। प्रभु ये उपदेश दे रहे हैं कि मन को स्थिर रखने के लिए मन की कामनाओं को लगाम लगाना चाहिए। यदि कामनाओं को लगाम ना दी जाए तो एक कामना से दूसरी और दूसरी से तीसरी जन्म लेती है और कामनाओं का ये सिलसिला कभी खत्म नहीं होता। यह सुनकर माता पार्वती कहती है कि फिर मनुष्‍य कामनाओं पर लगाम कैसे लगाम दे सकता है तो शिवजी कहते हैं- इसका सरल उपाय यह है कि मनुष्‍य मन में संदोष पैदा करें।
 
उधर, अर्जुन कहता है- हे कृष्ण! तुम कहते हो कि स्थितप्रज्ञ बनने के लिए मन के दीये की ज्योत को स्थिर रखो। अर्थात मन को इधर-उधर डोलने ना दो। इसका अर्थ ये हुआ कि कर्म करते समय मन की जगह बुद्धि की बात मानो। मन को बुद्धि के अधीन रखो यही ना?
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं अर्जुन केवल बुद्धि पर भरोसा करने में भी खतरा है इसलिए कि विनाशकाल आने पर तो मनुष्‍य की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। अर्थात जब विपरित समय आता है तो मनुष्‍य की बुद्धि ही उसे गलत रास्ते पर ले जाती है। 
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे मधुसुदन! मनुष्‍य ना तो अपनी बुद्धि की माने और ना मन की इच्छा अनुसार कार्य करे तो फिर मनुष्‍य बिचारा करे तो क्या करें। ऐसी स्थिति में अपनी प्रवृत्ति के विरुद्ध कोई कैसे जीवन व्यतीत करेगा? हे मधुसुदन मुक्ति और मोक्ष का रास्ता अपनाने के लिए कोई मनुष्य कैसे अपनी प्रवृत्ति को बदल सकता है? इसका कोई तरीका मुझे बताओ। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- प्रवृत्ति को बदलने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि प्रवृत्ति कैसे बनती है। हे अर्जुन! मनुष्‍य जन्म से ही अपने साथ सत्य, रज और तप ये तीन गुणों को लेकर पैदा होता है। इस सृष्टि की रचना इन्हीं तीन गुणों के आधार पर की गई है।... फिर श्रीकृष्ण इन तीनों गुणों को विस्तार से बताते हैं। अर्जुन प्रवृत्ति की बात करता है और कहता है कि सभी की कामना तो एक जैसी होती है तो फिर श्रीकृष्‍ण इसका भी उत्तर देते हैं और कहते हैं कि सुख और दु:ख एक ही चक्र के दो भाग है। इसलिए सुख और दु:ख सदा नहीं रहता।
 
उधर, शिवजी बताते हैं- देवी प्रभु की दिव्य वाणी के रूप में आज समस्त मानव जाति के लिए एक नए अध्याय की रचना हो रही है। प्रभु कितने आसान और सरल शब्दों में जीवन के भेदों को समझा रहे हैं। कर्मयोग की गुत्थियां खोल कर बता रहे हैं। प्रभु के उपदेश को यदि कोई भी भक्तिभाव से अपनाकर उसे अपना आचरण बना ले तो उसे कोई भी धर्म के रास्ते से हटा नहीं सकेगा। 
 
इधर, श्रीकृष्‍ण कहते हैं- इसलिए हे पार्थ अनाक्ति योग के द्वारा कामनाओं पर विजय पाना अति आवश्‍यक है क्योंकि कामनाओं की पूर्ति होकर भी कभी पूर्ति नहीं होती। मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु आसक्तिजनीत कामनाएं कभी बूढ़ी नहीं होती। पार्थ एक कामना अनेक कामनाओं को जन्म देती है। हर कामना के साथ मनुष्‍य की तृष्णा भी बढ़ जाती है और तृष्णा के साथ मनुष्य का असंतोष भी बढ़ जाता है। फिर ऐसे असंतुष्ट मनुष्य को जो कामनाओं से ग्रस्त है उसे उचित और अनुचित का विवेक नहीं रहता। पार्थ इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तुम अपनी कामनाओं का त्याग करके स्थितप्रज्ञ बनो। स्थितप्रज्ञ जो कर्मयोग की चरम अवस्था है।
 
यह सुनकर शिवजी कहते हैं- वाह प्रभु वाह! क्या सुंदर बात कही आपने। 
 
अर्जुन कहता है- हे मधुसुदन तुम तो कहते हो कि कामनाओं का त्याग करके स्थितप्रज्ञ बन जाओ। परंतु स्थितप्रज्ञ बनने के लिए सबसे आवश्यक क्या है? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- स्थिरबुद्धि। तब अर्जुन कहता है- स्थिरबुद्धि! परंतु मनुष्‍य अपनी बुद्धि को स्थिर कैसे रख सकता है? इस पर कृष्‍ण कहते हैं- आशा और निराशा दोनों से मुक्त होकर ही बुद्धि को स्थिर किया जा सकता है। बुद्धि स्थिर होगी तो इंद्रियों के विषयों का बल टूट जाएगा।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है- यदि इंद्रियों को ही काटकर फेंक दिया जाए तो फिर क्या उसके विषय रहेंगे? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- नहीं पार्थ, एक मनुष्य की आंखें चली जाए तब भी वह ऐसे दृष्यों की कल्पना कर सकता है जो उसे विषयों के मोह में फंसाए चले जाए। पार्थ एक अंधा मनुष्य भी परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है और एक नारी की कल्पना भी कर सकता है। सो किसी इंद्री के होने या नहीं होने से मन की वासना और आसक्ति पर फर्क नहीं पड़ता। जय श्रीकृष्ण।
 
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