निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 25 जून के 54वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 54 ) के पिछले एपिसोड में श्रीकृष्ण द्वारा सांदीपनि ऋषि के पुत्र पुर्नदत्त को यमलोक से वापस लाने को बताते हैं और इस बार के एपिसोड में रामानंद सागर द्वारा कृष्ण की अब तक की यात्रा के बाद जरासंध के बारे में बताया जाता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
जरासंध को कंस के मारे जाने का समाचार तब मिला जब उनकी दोनों पुत्रियां विधवा होकर वापस मगध में पहुंचीं। इस सूचना से जरासंध एक घायल शेर की भांति बिफर गया। वह अपनी दोनों पुत्रियों को कहता है कि मैं कंस को तो वापस नहीं ला सकता परंतु मैं उसके हत्यारे को वहीं भेज दूंगा जहां कंस गया है। फिर वह अपने सेनापति को युद्ध का आदेश देता है और कहता है कि जिस दिन हमारी सारी सेना एकत्रित हो जाएगी हम मथुरा की ओर कूच करेंगे। हम केवल मथुरा की सेना का ही नहीं समस्त मथुरावासियों का नाश करना चाहते हैं। हम इस धरती को यादवों से विहिन करना चाहते हैं।
फिर जरासंध अपनी विशाल सेना के साथ मथुरा की ओर कूच कर देता है। रास्ते में मद्र नरेश की सेना भी उसकी सेना के साथ शामिल हो जाती है।
उधर, राजा शूरसेन कहते हैं कि आज मथुरा पर संकट के बादल छा रहे हैं। दरबार में अक्रूरजी, वसुदेव, श्रीकृष्ण और बलरामजी उपस्थित रहते हैं। शूरसेन कहते हैं कि इतने बड़े संकट पर विचार हेतु यह सभा बुलाई गई है, क्योंकि हमारे महाराजा उग्रसेन वृद्ध होने के कारण युद्ध का नेतृत्व करने में अक्षम हैं तो हमें ही अब युद्ध का नेतृत्व करना होगा। फिर अक्रूरजी कहते हैं कि जरासंध की सेना हमसे कई गुना विशाल है। तब एक सरदार कहता है कि फिर इसका परिणाम क्या होगा?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो योद्धा पहले से ही परिणाम की सोचकर युद्ध क्षेत्र में जाता है वह युद्ध में कभी जीत नहीं सकता। इसलिए क्षत्रिय को केवल एक ही धर्म सिखाया जाता है कि जब देश की रक्षा का प्रश्न हो तो वो उसकी रक्षा के लिए रणक्षेत्र में कूद जाएं। फिर परिणाम चाहे कुछ भी हो। फिर श्रीकृष्ण भगवान राम का उदाहरण प्रस्तुत करके बताते हैं कि उन्होंने किस तरह संसार की सबसे शक्तिशाली सेना के राजा रावण को हराया था। वह भी ऐसे समय जबकि उनके पास उनकी अयोध्या की सेना भी नहीं थी।
सभी श्रीकृष्ण की बात से सहमत हो जाते हैं। फिर एक सरदार इंद्रप्रस्थ से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य से सहायता लेने की बात करते हैं और कहते हैं कि वसुदेवजी की बड़ी बहन भी वहीं रहती हैं। अक्रूरजी कहते हैं कि मैं इस विचार से सहमत हूं। फिर शूरसेन कहते हैं कि हालांकि मेरे जमाता पांडु की मृत्यु हो चुकी इसलिए मेरी पुत्री कुंती का वहां कितना प्रभाव है यह हम नहीं जानते, फिर भी महाराज धृतराष्ट्र और महात्मा भीष्म से हमें पूरी आशा है कि वे हमारी सहायता करेंगे। सेनापति अक्रूजी आप जाएं इंद्रस्थ।
अक्रूजी इंद्रप्रस्थ जाने की तैयारी करते हैं तब श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं अक्रूरजी हस्तिनापुर जा रहे हो तो वहां हमारी बुआ महारानी कुंती से अवश्य मिलना और हमारी ओर से उनका कुशलक्षेम पूछना और उनके पांचों पुत्रों का भी समाचार लाना। पिता की मृत्यु के बाद यदि वे अपने को बेसहारा समझते हो तो उन्हें कहना कि जब तक मैं इस धरती पर हूं उन्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। उनकी रक्षा का भार मुझ पर है। अक्रूजी मैंने देवराज इंद्र को वचन दिया है कि मेरे रहते अर्जुन को कोई पराजित नहीं कर सकता। उनसे कहता कि तुम निश्चिंत रहो। अक्रूरजी कहते हैं जो आज्ञा प्रभु।
अक्रूजी हस्तिनापुर के दरबार में उपस्थित होकर सभी का अभिवादन करते हैं तो धृतराष्ट्र कहते हैं कि अपना आसन ग्रहण करें। इस पर अक्रूरजी कहते हैं क्षमा करें महाराज, इस समय मैं आसन ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि मैं आपसे कुछ मांगने आया हूं और मांगने वाला दाता के समक्ष आसन ग्रहण नहीं कर सकता।
धृराष्ट्र कहते हैं कि हम आपकी वाकपटुता से प्रसन्न हुए कहिये आपके यहां पधारने का क्या कारण है और क्या मांगने आए हैं? तब अक्रूरजी कहते हैं सहायता मांगने आया हूं। मेरे महाराज उग्रसेन ने आपसे सैनिक सहायता मांगने भेजना है। इस समय जरासंध ने मथुरा की ओर कूच कर दिया है और उसने प्रतीज्ञा की है कि वह मथुरा में बूढ़े बच्चे, महिला सहित किसी भी प्राणी को जीवित नहीं रहने देगा। उस पैशाचिक नरसंहार से मथुरा की रक्षा करने के लिए हम उससे अकेले नहीं लड़ सकते हैं महाराज। इसलिए महाराज उग्रसेन ने इस धर्मयुद्ध में हमारी सहायता के लिए आपके पास भेजा है। क्योंकि संकट में घिरे पड़ोसी राज्य की रक्षा करना परमधर्म माना जाता है। वैसे राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो जरासंध से हमारी रक्षा करना भी आपका धर्म है क्योंकि यदि जरासंध ने मथुरा पर अधिकार कर लिया तो उसके राज्य की सीमाएं आपके राज्य की सीमाओं से लगेगी। इसका अर्थ यह है कि ये एक विशालशक्ति शत्रु आपके सिर पर चढ़ जाएगा।
इस पर धृतराष्ट्र तातश्री से पूछते हैं इस विषय पर अपनी राय रखने के लिए तो वे कहते हैं मेरे विचार से सहायता करनी चाहिए। तब शकुनि कहता है कि महाराज राजनीति तो यह भी कहती है कि शक्तिशाली से मित्रता रखनी चाहिए। अत: इस विषय पर सोच-विचार से निर्णय लेना चाहिए। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि शकुनि की बात भी सही है, हमें सोच-विचारकर निर्णय लेना चाहिए तब तक अक्रूरजी आप राजमहल में ही विश्राम करें।
यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं कि मेरी आपसे प्रार्थना है महाराज इस पर जितनी जल्दी हो सकें निर्णय ले लीजिये क्योंकि जरासंध की सेना मथुरा पहुंचने की वाली है। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि हम आपका अनावश्यक
समय नष्ट नहीं करेंगे, क्योंकि हम परिस्थिति को भलीभांति जानते हैं। जय श्रीकृष्ण।
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