निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 28 जुलाई के 87वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 87 ) में शकुनि अपनी साजिश के तहत बलरामजी के मन में भीम और श्रीकृष्ण के प्रति शंका भरकर वह दुर्योधन को उनका शिष्य बनाकर गदा युद्ध सिखाने के लिए राजी कर लेता है। दुर्योधन विधिवत रूप से बलरामजी को अपना गुरु बनाता है और फिर बलरामजी उसे गदा देकर कहते हैं कि तुम्हारा अध्ययन शीघ्र ही शुरु हो जाएगा शिष्य दुर्योधन।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
इधर, श्रीकृष्ण ध्यानमग्न बैठे रहते हैं तभी रुक्मिणी उनके पास आती है तो श्रीकृष्ण आंखें खोले बगैर ही कहते हैं- आओ रुक्मिणी। यह सुनकर रुकिमणी कहती हैं- आपने कैसे जान लिया की मैं आ गई हूं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे नुपूर मुझे बता देते हैं कि तुम आ गई हो। तुम्हारे आते ही मेरे हृदय की स्पंदनें मुझे बता देती हैं कि रुक्मिणी आ गई है। रुक्मिणी तुम तो मेरी प्राण हो। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- बस बस, स्त्री की प्रशंसा करना तो कोई आप ही से सीखें। बचपन में आप जो मक्खन चुराया करते थे उसका अच्छा उपयोग कर रहे हैं आप। मेरे खयाल से जब आप सत्यभामा के पास जाएंगे तो उसे भी यही कहेंगे कि भामा तुम तो मेरी प्राण हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कुछ भी कहो रुक्मिणी स्त्री के पास अनेक गुणों का समुदाय हो फिर भी मत्सल नाम का एक अवगुण रहता ही है। तब रुक्मिणी कहती हैं- बातें बनाने में आप बहुत माहिर हैं, अब बताइये किस का ध्यान कर रहे थे आप?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं तो शकुनि मामा की लीला देखकर मुस्कुरा रहा था रुक्मिणी। रुक्मिणी पूछती है- क्या किया है उन्होंने? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने हमारे भोलेभाले दाऊ भैया पर ऐसा पास फेंका है कि पूछो मत रुक्मिणी। उन्हें तो मनचाहा दान भी मिल गया है। बहुत तेज है मामाश्री। इस पर रुक्मिणी कहती है- मैं कुछ समझी नहीं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने ऐसा पासा फेंका है कि बलराम भैया ने दुर्योधन को अपना शिष्य बना लिया है। भाई-भाई में दरार पैदा करने के लिए जो कुटिल चाल शकुनि ने कौरवों और पांडवों के बीच चली थी और आज फिर उसने वही चाल कृष्ण और बलराम के बीच चली है और मेरे भोलेभाले दाऊ भैया उसकी बातों में आकर उसकी चाल में फंस गए हैं रुक्मिणी।
तब रुक्मिणी उनके पास आकर कहती हैं- चाल तो आप भी कमाल की चलते हैं। आप तो अंतरयामी हैं, मेरे खयाल से आपने भी कोई चाल चली होगी? यह सुनकर श्रीकृष्ण हंस देते हैं, तब रुक्मिणी कहती हैं- अब आपको राजनीति की तरफ थोड़ा कम और अपनी बहन सुभद्रा पर थोड़ा ज्यादा ध्यान देना चाहिए। वह जवान हो गई है हमें उसका विवाह कर देना चाहिए। आप उसके लिए कोई अच्छासा वर ढूंढ लीजिये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसके लिए वर ढूंढने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी वो स्वयं ही चला आएगा।
तभी बाहर ढोल-नगाढ़े के साथ किसी के आने का स्वर सुनाई देता है तो रुक्मिणी गैलरी में जाकर देखती है और कहती है- अरे! अर्जुन आ रहे हैं। तब श्रीकृष्ण भी देखने लगते हैं। फिर रुक्मिणी कहती हैं- अब आपकी चाल मेरी समझ में आ गई कन्हैया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कौनसी चाल? यही अर्जुन को द्वारिका ले आने की। आप हमेशा सबसे सौ कदम आगे रहते हैं लेकिन दिखावा ऐसा करते हैं जैसे आप कुछ जानते ही नहीं। कदाचित इसी कारण आप कह रहे थे कि सुभद्रा के लिए वर ढूंढने की कोई आवश्यकता नहीं है। वर स्वयं ही द्वारिका चला आएगा।
फिर दोनों मिलकर अर्जुन का स्वागत करते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं बहुत देर कर दी तुमने। मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं, कहां गए थे? तब अर्जुन कहता है कि शिकार खेलने गया था। कल फिर जाऊंगा। फिर अर्जुन रुक्मिणी भाभी को प्रणाम करता है और अंत में पूछता है- मधुसुदन बलराम भैया का क्या हाल चाल है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुना है कि वो हस्तिनापुर चले गए हैं। यह सुनकर अर्जुन कहता है हस्तिनापुर? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां हस्तिनापुर, दुर्योधन को उन्होंने अपना शिष्य बना लिया है। यह सुनकर अर्जुन चौंक जाता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- और वो उसे गदा चलाना सीखा रहे हैं। अर्जुन आश्चर्य से कहता है- अच्छा।
उधर, बलरामजी अखाड़े में उतरकर दुर्योधन को गदा चलाना सीखाते हैं। शकुनि सहित हिस्तनापुर के गई लोग यह देख रहे होते हैं। बलरामजी दुर्योधन को गदा युद्ध के कई गुढ़ रहस्य बताते हैं। दुर्योधन को वे कई तरह के दांव-पेंच बताते हैं और कहते हैं कि बहुत जल्द ही तुम दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गदाधर बन जाओगे। फिर वे उन्हें आशीर्वाद देकर चले जाते हैं।
बाद में शकुनि कहता है- आज में बहुत प्रसन्न हूं दुर्योधन, क्योंकि तुमने आधी लड़ाई तो जीत ली है। तब दुर्योधन कहता है कि अब मैं इस गदा से उन पांचों पांडवों को चकनाचूर करके आधी लड़ाई भी जीत लूंगा। तब शकुनि समझाता है कि इतनी जल्दी करने से लाभ की जगह हानि भी हो सकती है। लड़ाई नीति से भी जीती जाती है। हमने पांडवों को जलाकर मारने की कोशिश की लेकिन हम असफल हो गए। अब तो वे सम्राट भी हो गए हैं और वासुदेव श्रीकृष्ण उनका सखा बन गया है। देखो दुर्योधन! यदि बलराम हमारे पक्ष में आ जाएं तो हम पांडवों के साथ साथ कृष्ण को भी मात दे सकते हैं।
उधर, रुक्मिणी कहती है- अरे अर्जुन तो जा रहे हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ठीक है तो जाने दो। इस पर रुम्मिणी कहती है- अरे ऐसे कैसे, आप चाहते हैं ना कि सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ हो? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ऐसी इच्छा तो है मेरी। इस पर रुक्मिणी कहती हैं- तो ये इच्छा तब सफल होगी जब अर्जुन और सुभद्रा एक दूसरे को देखें। उनके मन में एक दूसरे के प्रति आकर्षण का जन्म हो। परंतु आज तक अर्जुन ने ना सुभद्रा को देखा है और न सुभद्रा ने अर्जुन को, फिर इन दोनों का मिलाप कैसे होगा? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- रुक्मिणी हो जाएगा। इस पर रुक्मिणी कहती है- अरे कैसे हो जाएगा? सुभद्रा रेवतक पर्वत पर अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा करने गई है और अर्जुन हर रोज शिकार खेलने जाता है, फिर इन दोनों में बात बनेगी कैसे?
इधर, अर्जुन को रथ पर सवार जंगल में जाते हुए बताया जाता है। वह एक हिरण को देखकर कहते हैं- सारथी रथ रोको। सारथी रथ रोक देते हैं तब अर्जुन अपने तरकश में से बाण निकालकर धनुष पर चढ़ाते हैं और जैसे ही वह तीर छोड़ते हैं हिरण की ओर, तभी एक तीर और आकर हिरण को लगता है।
अर्जुन देखते हैं कि हिरण को तीर लग गया है तो वे खुश होकर रथ से नीचे उतरकर हिरण के पास जाकर देखते हैं कि हिरण के पेट में दो तीर लगे हैं। तभी उनके चरणों में एक तीर आकर लगता है। वह सामने देखते हैं कि रथ पर सवार एक सुंदर युवती उन पर धनुष ताने खड़ी है। वह उसे देखकर मुस्कुरा देते हैं।
फिर वह युवती अपना तीर धनुष से उताकर कहती है- जाओ सखी हिरण लेकर आओ। अर्जुन मुस्कुराता रहता है। सखियां रथ से उतरकर हिरण के पास जाकर हिरण को उठाने ही वाली रहती हैं तभी अर्जुन कहता है- आप रुकिये, ये हिरण मेरा है। यह सुनकर वह युवती कहती हैं- नहीं सखी ये हिरण मेरा है, उठा लाओ इसे। यह सुनकर अर्जुन कहता है- ऐसा कैसे हो सकता है देवी! इस हिरण का शिकार मैंने किया है इसलिए ये हिरण मेरा है। इस पर वह युवती जो दरअसल सुभद्रा रहती हैं कहती हैं- यह आपका भ्रम है। हिरण का शिकार मैंने किया है इसी कारण हिरण मेरा है।
तब अर्जुन कहते हैं- मेरा बाण लगने से ही ये हिरण मरा है। इस पर वह युवती कहती हैं- ये भी आपका भ्रम है महोदय! मेरा बाण लगने से ही हिरण की मृत्यु हुई है और हिरण पर मेरा अधिकार है इसलिए हिरण को मैं ले जाऊंगी।...यह सुनकर अर्जुन मन ही मन कहता है- इस सुंदरी का आवेश मोहक है। इसके नैनो के बाणों ने तो मुझे घायल ही कर दिया है। कौन होगी ये सुंदरी? आज इसे देखने के बाद मेरे मन में प्रेम का प्रादुर्भाव होने लगा।
फिर वह युवती तेश में आकर कहती है- सखी उठाओ इस हिरण को। तब अर्जुन कहता है- देवी मैं नारी से कभी युद्ध नहीं करता परंतु इस हिरण के लिए मैं अवश्य युद्ध करूंगा। ऐसा बोलकर अर्जुन मन ही मन सोचता है कि सुंदरी का गुस्सा भी कितना मोहक है। तब वह युवती अर्थात सुभद्रा अपना तीर उठाकर धनुष पर संधान करके खड़ी हो जाती है। तब यह देखकर अर्जुन कहते हैं- देवी हिरण मेरा शिकार है और इसलिए मैं तुम्हें हिरण नहीं ले जाने दूंगा।
तब अर्जुन भी अपने तरकश से तीर निकालने ही वाला रहता है तभी सुभद्रा अपनी तीर छोड़ देती है जो सीधा उसके तरकश पर जाकर लगात है और अर्जुन का तरकश नीचे गिर पड़ता है। यह देखकर दोनों सखियां हंसने लगती हैं और सुभद्रा मुस्कुराती है। यह देखकर अर्जुन भी मुस्कुराने लगता है। फिर सखियां कहती हैं- पहले अपने धनुष पर बाण लगाना सीखों फिर हमारी राजकुमारी के साथ युद्ध की भाषा में बात करो। अर्जुन मुस्कुराता हुआ सुभद्रा को देखता ही रहता है।
फिर सखियां कहती हैं कि आप तो द्वारिका के वासी नहीं लगते। शायद इसलिए आपसे हमारी राजकुमारी को चुनौती देने की भूल हो गई। अर्जुन कुछ नहीं बोलकर सुभद्रा को देखता ही रहता है। तब सुभद्रा सोचती है इसको क्या हुआ।... फिर एक सखी कहती है- अरे धर्नुधारि अर्जुन का नाम नहीं सुना कभी? तब अर्जुन कहता है- अर्जुन! कौन अर्जुन? तब वह सखी कहती हैं- अर्जुन नहीं मालूम आपको। इस जगत का श्रेष्ठ धनुर्धर शत्रुंजय अर्जुन। वो भी हमारी राजकुमारी के सामने टिक ना सकेगा फिर तुम किस खेत की मूली हो? ऐसा कहकर सखियां हंसने लगती है तो सभुद्रा भी हंसने लगती है।
तब अर्जुन कहता है- अच्छा..देवी फिर ये हिरण आप ही का है। यह सुनकर सुभद्रा प्रसन्न होकर कहती है- सखी हिरण को उठा लाओ। फिर वे सखियां हिरण को उठाकर रथ में डालती हैं और फिर रथ धीरे धीरे आगे बढ़ने लगता है। अर्जुन पीछे खड़ा रथ को देखता रहता है। फिर अर्जुन अपना तरकश कंधे पर रखता है तभी वह देखता है कि रथ पर सवार सुभद्रा की चुनरी उड़कर आसमान में चली जाती है। तक्षण अर्जुन अपनी तीर निकालता है और छोड़ देता है।
वह तीर उस चुनरी को पकड़कर सुभद्रा की ओर उसके रथ पर आकर लग जाता है। सुभद्रा यह देखकर आश्चर्य करने लगती है और खुश हो जाती है। फिर वह अर्जुन की ओर प्रेमपूर्ण तरीके से देखती है। अर्जुन भी देखता है। तब सुभद्रा रथ में लगे तीर को निकालकर उस पर लटकी अपनी चुनरी को देखती है कि कहीं उसमें छेद तो नहीं हुआ, लेकिन ऐसा नहीं रहता है। तब वह पुन: अर्जुन की ओर देखती है तो अर्जुन मुस्कुरा रहा होता है। फिर रथ वहां से चला जाता है।
महल में आने के बाद रुक्मिणी हंसते हुए पूछती है- देवरजी हमने सुना है कि एक लड़की ने आपको पराजित कर दिया। यह सुनकर अर्जुन शरमा जाता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ये मैं क्या सुन रहा हूं पार्थ? तभी रुक्मिणी पूछती है- हां तो देवरजी कैसे पराजित हुए आप? क्या वो सुंदर थी? इस पर अर्जुन कहता है- हां भाभी बहुत। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं- हूऊं। फिर रुक्मिणी कहती हैं- अब पता चला कि बाणों से आप कभी घायल नहीं होते मगर सुंदरी की नजरों से जो तीर चलते हैं उससे आप अवश्य घायल होते हैं। यह सुनकर अर्जुन को लाज आ जाती है। फिर रुक्मिणी और श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं। फिर अर्जुन बताता है कि संभवत: रेवतक पर्वत पर जो उत्सव मनाया जा रहा है उसके लिए किसी प्रदेश की राजकुमारी आ गई है।
दूसरी ओर सुभद्रा जब लौट रही होती है तब रास्ते में एक पागल हाथी उसके रथ पर आक्रमण कर देता है और रोने चीखने की आावज आती है तब रुक्मिणी, कृष्ण और अर्जुन गैलरी में आकर देखते हैं तो उन्हें पता चलता है। अर्जुन सुभद्रा को देखकर गैलरी से ही उसे बचाने के लिए कूद पड़ता है और हाथी के चारों ओर अपने बाणों का पिंजरा बना देता है। सुभद्रा यह देखकर आश्चर्य करने लगती है तब अर्जुन कहता है कि आपनी सखियां तो मुझे धनुष पर बाण लगाने का सिखने का कह रही थी?
सुभद्रा उठकर वहां से पुन: रथ पर सवार होकर चली जाती हैं। महल में जाकर वह रुक्मिणी के गले लगती है और श्रीकृष्ण से कहती है- क्या भैया वहां मेरे प्राण संकट में थे और आप दर्शक बनकर खड़े देख रहे थे। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कभी-कभी दर्शक बनने में भी एक आनंद मिलता है। इस पर सुभद्रा कहती है- यदि उस हाथी ने मुझे उठाकर फेंक दिया होता तो? तब रुक्मिणी कहती है- देखो सुभद्रा तुम्हारे भैया ये जानते थे कि हाथी तुम्हारी छाया को भी स्पर्श नहीं कर सकेगा। इस पर सुभद्रा कहती है- वो कैसे? तब रुक्मिणी कहती हैं- क्योंकि तुम्हारी रक्षा करने के लिए अजेय धनुर्धर पार्थ जो थे। यह सुनकर सुभद्रा चौंक जाती है और कहती हैं- अर्थात कुंती पुत्री अर्जुन? इस पर रुक्मिणी कहती हैं- हां सुभद्रा। तीनों लोक में जिसकी बराबरी करने वाला कोई नहीं है, वहीं कुंती पुत्र अर्जुन।
यह सुनकर सुभद्रा अतिप्रसन्न हो जाती है और तभी अर्जुन वहां पहुंचते हैं तो दोनों एक-दूसरे को देखते रहते हैं। फिर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी दोनों अर्जुन का परिचय सुभद्रा से कराकर कहते हैं- ये मेरी बहन सुभद्रा है। यह सुनकर अर्जुन चौंक जाता है। फिर सुभद्रा और अर्जुन दोनों में मन ही मन प्रेम हो जाता है। सुभद्रा वहां से शरमाकर चली जाती हैं।
इधर, शकुनि बताता है दुर्योधन को अपनी अगली चाल। वह कहता है कि बलराम को पूर्णत: अपने पक्ष में करना जरूरी है इसके लिए उनकी बहन सुभद्रा से तुम्हारा विवाह होना बहुत आवश्यक है भांजे। अब हमें बलराम भैया को इसके लिए मनाना होगा भांजे और मेरे गुप्तचरों से खबर मिली है कि अर्जुन द्वारिका गया है तो निश्चित ही कृष्ण कोई चाल चलेगा। अर्जुन को विवाह सुभद्रा से हो इसे पहले ही हमें कुछ करना होगा भांजे।
इधर, अर्जुन और सुभद्रा में प्यार परवान चढ़ जाता है। अर्जुन इस असमंजस में रहता है कि अब मैं यह बात श्रीकृष्ण से कैसे कहूं। उधर, शकुनि और दुर्योधन बलराम के साथ पासे खेलते हैं। इस दौरान दोनों खुब प्रशंसा करते हैं फिर बलराम से पासे के खेल में शकुनि हार जाता है। बलराम इसके बाद जब वहां से अपने शयनकक्ष में सोने चले जाते हैं तब शकुनि से दुर्योधन कहता है कि मामाश्री आप तो बलराम से हार गए। तब शकुनि कहता है- भांजे मुझे तो इस हार में तुम्हारे विवाह की शहनाई सुनाई दे रही है। बलराम को मैं हर प्रकार से प्रसन्न रखना चाहता हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि मैं जब सुभद्रा के विवाह के लिए बलराम के साथ द्युत खेलूं तो जीत हमारी ही होनी चाहिए भांजे हां।
उधर, श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी की धुन छेड़ते हैं और इधर बलराम यह धुन सुनकर नींद से जाग जाते हैं। उन्हें चारों ओर बांसुरी सुनाई देती है। वह कहते हैं- ये तो मेरे कन्हैया की मुरली की आवाज है। फिर वह दीपक का थाल उठाकर दूसरे कक्ष में जाते हैं तो उन्हें बांसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण नजर आते हैं। बलराम उन्हें देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। फिर वह कृष्ण के पास जाकर दीपक की थाल को एक ओर रख देते हैं और श्रीकृष्ण के पास जाकर खड़े हो जाते हैं।
फिर बलराम कहते हैं कन्हैया! तब श्रीकृष्ण बांसुरी बजाना छोड़कर बलराम से कहते हैं- प्रणाम दाऊ भैया। बलराम कहते हैं-आयुश्यमानभव: कन्हैया। तुम्हें यहां देखकर अतिप्रसन्न हूं कन्हैया। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- मैं भी आपसे मिलकर अतिप्रसन्न हूं दाऊ भैया। कितने दिन हो गए मेरी और आपकी भेंट नहीं हुई। जब से आप द्वारिका छोड़कर आए हैं तब से ऐसा लग रहा है जैसे द्वारिका शरीरहिन हो गई है लेकिन उसमें उसकी आत्मा नहीं है। दाऊ भैया कहीं ऐसा तो नहीं कि आप मुझसे असंतुष्ट हैं? रेवती भाभी आपका इंतजार कर ही हैं दाऊ भैया। आप द्वारिका कब लौटे दाऊ भैया?..इस तरह श्रीकृष्ण दाऊ भैया से द्वारिका लौटने का आग्रह करते हैं। तब बलरामजी कहते हैं- दुर्योधन की शिक्षा पूर्ण होते ही मैं लौट आऊंगा कन्हैया। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- ठीक है दाऊ भैया।
फिर बलराम कहते हैं- एक बार फिर से तुम अपनी मुरली सुना दो, बहुत दिन हुए तुम्हारी मुरली सुने। तब श्रीकृष्ण पुन: मुरली बजाने लग जाते हैं। फिर दाऊ भैया मुरली की धनु में गुम होकर आंखे बंद करके मगन हो जाते हैं। तभी कुछ देर बाद मुरली की धुन बंद होती है तो उनकी आंखें खुली है और वो देखते हैं कि कन्हैया तो नहीं है। वे पुकारने लगते हैं- कन्हैया...कन्हैया। फिर वे खड़े होकर जोर-जोर से कन्हैया...कन्हैया पुकारने लगते हैं तो शकुनि आकर पूछता है- दाऊजी इतनी रात गए आप किसे पुकार रहे हैं? इस पर बलराम कहते हैं शकुनि मामा यहां कन्हैया आया था। इस पर शकुनि हंसते हुए कहता है कि दाऊजी आपको कोई भ्रम हुआ होगा। वासुदेव तो द्वारिका में है।...नहीं नहीं वो यहां स्वयं आया था। तब शकुनि कहता है- मेरे विचार से तो आपने कोई सपना देखा होगा दाऊजी। बलरामजी असमंजस में पड़ जाते हैं। जय श्रीकृष्णा।
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