'क्रिकेट के संत' डॉन ब्रैडमैन भी हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद के कायल थे

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाने वाले भारतीय नेताओं को कई साल पहले सद्‍बुद्धि आई और उन्होंने 'हॉकी के जादूगर' कहे जाने वाले दादा ध्यानचंद (Dhyanchand) को हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा 'खेल नायक' मानकर हर साल 29 अगस्त को 'खेल दिवस' के रूप में मनाने का फैसला किया। इस दिन पूरे देश में हॉकी जिंदा होती और अगले दिन मर जाती है...! ध्यानचंद का पूरी दुनिया में कद कितना बड़ा था, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि क्रिकेट के 'संत' कहे जाने वाले डॉन ब्रैडमैन भी उनके खेल के कायल थे जिनसे उनकी मुलाकात 1935 में हुई थी।
 
29 अगस्त 2019 के दिन जब दिल्ली में राष्ट्रपति भवन के अशोक हॉल में देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कारों (खेलरत्न, अर्जुन अवॉर्ड) का वितरण किया जा रहा होगा, तब कई लोगों के दिमाग में यह खयाल जरूर आएगा कि दादा ध्यानचंद के सबसे प्रिय 'हॉकी' को हमने दिया क्या है? क्रिकेट के पीछे पागलों की तरह भागने वाले खेल दीवानों ने राष्ट्रीय खेल हॉकी को कभी भी वो सम्मान नहीं दिया जिसका कि वो हकदार है।
 
भारत जब ओलंपिक के लिए क्वालीफाय नहीं कर सका : भारतीय हॉकी को गर्त में पहुंचाने वाले और कोई नहीं, बल्कि उसे देशभर में चलाने वाले 'आका' रहे जिन्होंने कभी इसे तवज्जो नहीं दी। याद कीजिए कंवरपाल सिंह गिल के कार्यकाल को, जो 14 बरस तक महासंघ के मुखिया रहे और जी-भरकर खिलवाड़ किया। उसी का नतीजा रहा था कि ओलंपिक खेलों में 8 स्वर्ण, 1 रजत और 2 कांस्य पदक जीतने वाला भारत 80 साल के ओलंपिक इतिहास में 2008 के बीजिंग ओलंपिक खेलों में क्वालीफाय तक नहीं कर पाया था।
 
खुश हो रही होगी दादा की आत्मा : हालांकि गिल के बाद आने वाले हॉकी महासंघ को चलाने वालों ने इस तरफ गंभीरता से ध्यान दिया और आज भारतीय पुरुष ही नहीं, बल्कि महिला टीम भी दुनिया की दिग्गज टीमों को चुनौती दे रही है। हॉकी के सुधरे हुए हालातों से जरूर दादा ध्यानचंद की आत्मा प्रसन्न हो रही होगी।
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...तो गले में और स्वर्ण पदक होते : हॉकी को उन्होंने भरपूर जीया और देश के लिए 3 ओलंपिक (1928 एम्सटर्डम), 1932 लॉस एंजिल्स और 1936 बर्लिन) खेले और इन तीनों में वे ओलंपिक स्वर्ण विजेता टीम का हिस्सा बने। यदि दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध में नहीं झोंकी जाती तो दादा ध्यानचंद के गले में और स्वर्ण पदक लटकते रहते।
 
1928 में नीदरलैंड्‍स ओलंपिक : 1928 में नीदरलैंड्‍स में हुए ओलंपिक खेलों में पहली बार ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा बने और 5 मैचों में 14 गोल दागकर भारत को ओलंपिक स्वर्ण पदक दिलाया। पूरे टूर्नामेंट में ध्यानचंद की हॉकी का जादू छाया रहा।
 
1932 का लॉस एंजिल्स ओलंपिक : मेजर ध्यानचंद की हॉकी का जादू लगातार दूसरे ओलंपिक में देखने को मिला और वे दूसरी बार भारत को ओलंपिक गोल्ड मैडल दिलाने में सफल रहे। हॉकी के पहले मैच से लेकर आखिरी मैच तक भारतीय हॉकी की तूती बोलती रही। भारत ने पहले मैच में जापान को 11-1 से हराया था जबकि फाइनल में अमेरिका को 24-1 गोल से हराकर पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया।
1936 का बर्लिन ओलंपिक : 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भी हॉकी के जादूगर के रूप में मेजर ध्यानचंद छाए रहे। उनकी कप्तानी में भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक खेलों में लगातार तीसरा स्वर्ण पदक जीतकर 'हैट्रिक' लगाई। फाइनल में भारत ने मेजबान जर्मनी को हराया जिसका गवाह जर्मन चांसलर एडोल्फ हिटलर भी बना लेकिन वह खेल खत्म होने के पहले ही मैदान से चला गया, क्योंकि वह जर्मनी को हारते नहीं देखना चाहता था। मैच के बीच में ध्यानचंद की स्टिक भी चेक करवाई गई थी कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है?
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ध्यानचंद की जीवन झांकी : दादा ध्यानचंद का जन्म प्रयाग (उत्तरप्रदेश) के राजपूत घराने में 29 अगस्त 1905 को हुआ था। उनके पिता सामेश्वर दत्त सिंह भारतीय फौज में सूबेदार थे। सेना में रहते हुए उन्होंने भी खूब हॉकी में अपने जौहर दिखाए। मूलसिंह और रूपसिंह ध्यानचंद के 2 भाई थे।

ध्यानचंद की तरह रूपसिंह भी हॉकी का जाना-माना चेहरा थे। पिता के तबादले के कारण ध्यानचंद ढंग से किताबों में मन नहीं लगा सके। यही वजह थी कि 6ठी कक्षा के बाद ही उन्हें पढ़ाई को अलविदा कहना पड़ा। कालांतर में पूरा परिवार झांसी आकर बस गया।
 
बहुआयामी व्यक्तित्व : ध्यानचंद का व्यक्तित्व भी बहुआयामी था। जितना मजा उन्हें शिकार करने में आता था, (उस दौर में शिकार प्रतिबंधित नहीं था), उतनी ही दिलचस्पी वे मछली पकड़ने में लेते थे। आपको यह जानकर हैरत होगी कि ध्यानचंद को खाना पकाने में भी महारत हासिल थी। दोस्तों के बीच भोजन बनाना और उसे परोसना ध्यानचंद को आनंद देता था। मांसाहार के शौकीन ध्यानचंद को मटन और मछली से बनने वाले व्यंजन काफी प्रिय थे।
 
दादा ध्यानचंद का क्रिकेट प्रेम : क्रिकेट में भी ध्यानचंद का हाथ काफी मजबूत था। पटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स (NIS) में वे बहुधा बच्चों के बीच गेंद-बल्ला थामे दिखाई दे जाते थे। बाद में अपने बेटे के साथ कैरम पर भी उन्होंने खूब अंगुलियां चलाईं। हॉकी के अलावा बिलियर्ड्स ध्यानचंद का पसंदीदा खेल था।
बिलियर्ड्‍स की टेबल पर हॉकी का जादूगर : दादा ध्यानचंद को बिलियर्ड्‍स का भी शौक रहा लेकिन वे हमेशा अपनी पारंपरिक कला में ही बिलियर्ड्स खेलते थे। हॉकी से संन्यास लेने के बाद वे झांसी में अकसर देर रात तक बिलियर्ड्स खेला करते थे। फोटोग्राफी के दीवाने इस खिलाड़ी के पास महंगा कैमरा खरीदने के रुपए नहीं होते थे, इसलिए वे काफी पुराने कैमरे से ही अपनी हसरत पूरी किया करते थे।
 
दादा ध्यानचंद का महू से रिश्ता : इंदौर के समीप महू में जब भी ध्यानचंद आते तो उनका ठिकाना 1948 की ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता हॉकी टीम के कप्तान किशनलाल का घर होता था। यहां पर देर रात वे आते और अम्मा (किशन दादा की पत्नी सुन्दरबाई) के हाथ का बना खाना पसंद करते थे। वे किसी बड़े होटल में नहीं रुकते और न ही महू की ऑफिसर मैस में खाना खाते।
 
1956 में ध्यानचंद पद्मभूषण से सम्मानित : भारतीय हॉकी की किंवदंती बन चुके मेजर ध्यानचंद को भारत सरकार ने 1956 में नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया। तब यह देश का दूसरा और अब तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है। ध्यानचंद ने अपना अंतिम मैच 1948 में खेला और अंतरराष्ट्रीय करियर में 400 गोल दागे, जो कि एक रिकॉर्ड है।
 
1956 में भारतीय सेना से रिटायर : मेजर ध्यानचंद 1956 में भारतीय सेना से जब रिटायर हुए, तब उनकी उम्र 51 साल की थी। रिटायर होने के बाद भी उन्होंने हॉकी नहीं छोड़ी और कुछ वर्ष राजस्थान के माउंट आबू में कोचिंग देने के बाद पटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स में वे चीफ हॉकी कोच बन गए। दिल्ली के एम्स में उन्होंने 3 दिसंबर 1979 में हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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