इस हत्या की कोई सजा नहीं!!

मसूरी के प्रशासनिक कॉलेज जाने के पूर्व, मुझे सरकारी आदेश मिला, कि मैं अपना अपेंडिक्स का ऑपरेशन करा लूँ। तब कॉलेज में भरती होऊँ। मेरी चिकित्सा संबंधी जाँच करने वाली लेडी डॉक्टर ने अपनी रिपोर्ट में यही लिखा था। ऑपरेशन माइनर था, लेकिन था तो ऑपरेशन। शायद पंद्रह मिनट में ऑपरेशन हो गया था; पर मुझे पंद्रह दिन नर्सिंग होम में ठहरना पड़ा।

उन्हीं दिनों "उससे" मेरी भेंट हुई। मेरा कमरा दो मरीजों के लिए था। वह दिल की मरीज थी। उसे बिस्तर पर बैठना तक मना था। वह मेरी हमउम्र थी, लेकिन बीमारी ने उसको उम्र से ज्यादा कर दिया था। उससे मिलने-जुलने वालों में सेना के अफसर और उनकी खूबसूरत बीवियाँ थीं।

एक दिन दोपहर को उसने मुझे अपनी कहानी सुनाई। मुझे अचरज हुआ था कि छोटी उम्र में दिल की बीमारी। मैं डॉक्टरनी नहीं हूँ कि साधिकार कह सकूँ कि हृदय रोग का कारण यह है अथवा वह है। फिर भी उसके चेहरे से जो आंतरिक पीड़ा अभिव्यक्त होती थी, उसे देखकर कोई भी हमउम्र लड़की कह सकती थी, कि वह अपने शारीरिक रोग के अतिरिक्त अन्य किसी पीड़ा से पीड़ित है और उस पीड़ा ने उसे इतना तोड़ दिया है कि उसे बिस्तर पकड़ना पड़ा। मैंने उसकी आँखों में केवल पीड़ा को झाँकते पाया था।

जब वह बात करती थी, तब उसके गोरे गालों में गहरे गड्ढे पड़ते थे। मैंने तभी गौर किया था, कि वह कभी बहुत खूबसूरत रही होगी। किसी उच्च फौजी अफसर की बीवी बनने लायक। रंग तो गोरा था, लेकिन आँखों की विशालता और होंठों तथा दाँतों के पतलेपन ने उसकी सुंदरता की साक्षी दी थी, किंतु अब वह ऐसी दिखाई देती थी, मानो भाई शोभासिंह की रंगीन कलाकृति के चित्र पर तेजाब पड़ जाने से रंग उड़ गया है और चित्र बदरंग हो गया है।

हाँ, उसके बाल अब तक लंबे और घने थे। वह मेरे पिता को देखकर बोली थी, "एक खास उम्र में हर लड़की को, हर बूढ़ा आदमी पिता जैसा लगता है। मेरे पिता भी आपके पिता के समान टिपिकल मास्टर थे- एक प्राइमरी स्कूल के। माँ की मुझे याद नहीं। मुझे जन्म देते समय उनका देहांत हो गया था। पिताजी का एक जनपद से दूसरे जनपद में तबादला होता रहता था।

इसलिए मैं किसी स्कूल में पढ़ी नहीं... बस यों ही कद और उम्र में बढ़ गई और एक दिन मेरी शादी हो गई, एक अवकाश प्राप्त फौजी अफसर से, जो उम्र में मुझसे बड़े थे। होंगे पचास-पचपन के करीब। लेकिन मेरी ही जाति के थे। सारा ब्याह-खर्च स्वयं वहन किया और मुझे और मेरे पिता को चिंतामुक्त कर दिया।

"मेरे पिता की चिंता और हमारी गरीबी अलादीन के चिराग के घिसते ही दूर हो गई। मैं सोलह-सत्रह वर्ष की थी। तब मेरी उम्र हँसने-हँसाने, आनंद मनाने की थी। मुझमें कूट-कूटकर अल्हड़पन भरा था। मैं सदा हँसती-कूदती-फाँदती रहती थी। मुझमें अब भी बचपन की चपलता थी। अग्नि के सात फेरे मेरे स्वभाव और किशोरीपन पर गंभीरता का लबादा नहीं ओढ़ा सकते थे। मैंने विवाह को बचपन का एक खेल ही समझा था। बढ़िया साड़ी पहनने को मिली थी। अत्यधिक प्रसाधनों से स्वयं को सजाने-सँवारने का पहली बार अवसर मिला था। सच, बड़ा मजा आया था।

"मेरे पति मुझे फौजी अफसरों की पार्टियों में ले जाते। वे भी अपने मित्रों को पार्टी देते। मैं जहाँ भी जाती, मेरी ताजगी की महक वहाँ बिखर जाती थी। लोग कहते थे, मैं नन्ही अप्सरा थी। "शायद ब्याह कर पहला वर्ष यों ही हनीमून गुजारते गुजर गया। मुझे लगा, पलक झपकते। फिर आई हमारे विवाह की प्रथम वर्षगाँठ। उस दिन से मुझे अनुभव होने लगा, कि मेरे पति की मनोवृत्ति और स्वभाव में सहसा परिवर्तन आने लगा है। उनका मूड विषादपूर्ण रहने लगा है। वे बिना कारण मुझसे कठोर स्वर में बातें करने लगे। कभी-कभी वे मुझ पर क्रोध से फूट पड़ते थे। उनका समर्पण-भाव, स्नेह, बातचीत न मालूम कहाँ गायब हो गई।

"आप तो आला अफसर हो गई हैं। क्या हुआ अगर आपकी शादी अभी नहीं हुई। आप मर्द का स्वभाव तो जानती हैं। मैं कली से फूल में विकसित होने लगी थी और मेरे पति बुढ़ापे की ड्योढ़ी पर पहुँचने लगे थे। लेकिन अब मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि पुरुष कभी बूढ़ा नहीं होता। हाँ, उसमें जीवन के चूक जाने के कारण युवावस्था के प्रति एक अदम्य ईर्ष्या भावना का जन्म हो जाता है- बिना कारण। इस बिना वजह पैदा हुई ईर्ष्या का कोई इलाज नहीं।

"जब-जब हम घर से बाहर निकलते या पार्टी-होटल, बाजार में मेरे पति चौकन्ने रहते थे, कि मुझे कौन घूरता है, मैं किससे बातें करती हूँ, क्या बातें करती हूँ। वे फौजी पार्टियों में कम जाने लगे थे और युवा अफसरों को बुलाते भी नहीं थे। उनके शक का रोग बढ़ता गया। वे नौकरों-चाकरों से पता लगाते थे, कि उनकी अनुपस्थिति में कौन आया, और कौन गया। मैं किससे और कब मिलने गई।

यद्यपि ईर्ष्या और शक के लिए मैंने उनको कभी मौका नहीं दिया था। उनके प्रति मेरे प्रेम और निष्ठा में कोई अंतर नहीं आया था। मेरी उम्र इतनी नहीं थी और न ही मैं आप-जैसी पढ़ी-लिखी, जागरूक प्रबुद्ध थी कि मैं प्राचीन घिसे-पिटे मूल्यों के प्रति आक्रोश या विद्रोह करती। मैं तो अभावों-गरीबी की जिंदगी छोड़कर आई थी, और अब सुख-समृद्धि के सागर में डूब-उतर रही थी। जिस पति के द्वारा मुझे ये सब सुख-साधन प्राप्त हुए थे, उसके प्रति आक्रोश करने का कोई कारण न था। मैं तो कृतज्ञता के कारण नतमस्तक थी।

"अचानक उन्होंने मेरा तथा अपना बाहर जाना बंद कर दिया। मेरा सामाजिक जीवन कट गया। मैं मानो कैद हो गई। बाजार जाना केवल घर का रसोइया करने लगा। टेलीफोन काट दिया गया। मेरा मोबाइल ले लिया गया। मेरी कोठी के सामने विशाल लॉन था। बस, वहीं मैं टहलते-टहलते समय गुजारती थी। हो सकता है उन्होंने मुझमें हो रहे परिवर्तन को परिलक्षित किया हो।...

स्वतंत्र पक्षी के समान चहचहाना, शिशु के समान उन्मुक्त हँसना, सब कहाँ गायब हो गया। मैं भी अपने पति के समान बूढ़ी हो गई। शादी के बाद मेरी आंखों में कभी आंसू नहीं आए थे। लेकिन अब अपने निश्छल मन-बहलाव से वंचित होते ही, मेरी आंखों से अनायास आंसू बहने लगते थे। मेरी सखी-सहेलियां, यहां तक कि बूढ़े पिता की भी प्रवेश निषिद्ध हो गया।

जब भीतर की ऊष्मा ही ठंडी पड़ गई हो, तब बिस्तर पर पति को मेरी निजीर्व देह ही मिलने लगी। मैं विवश थी, और मेरी विवशता का परिणाम भयंकर हुआ।'

एक रात मेरे पति ने मुझसे कहा कि तुम मुझे वहशी, पागल जो चाहे कह सकती हो, लेकिन मैं मूर्ख नहीं हूं। मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम खत्म हो चुका है। मैं नहीं जानता कि तुम्हारे दिल में क्या है। तुम किसी और से प्रेम करती हो, या नहीं। या फिर तुमने मुझे धोखा देने का निश्चय कर लिया है। लेकिन मुझे इस बात का विश्वास हो गया है कि तुम मुझे उतना प्यार नहीं करतीं, और न ही मैं तुम्हारा प्रेम पा सकूंगा। लेकिन दुर्भाग्य मेरा कि मेरा प्रेम तुम्हारे प्रति हर दिन बढ़ता जाता है, यह जानते हुए भी, कि मुझे अपने प्रेम का प्रतिदान अब नहीं मिलेगा। हमारे बीच यूं ही लड़ाई-झगड़े होते रहेंगे।

आप क्या चाहते हैं?
मैंने एक उपाय सोचा है। उससे ये लड़ाई-झगड़े हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे। वे मेरा हाथ पकड़कर बैठक खाने में मुझे ले गए। मैं आतंक से कांप रही थी। आज से पहले मैंने अपने पति का यह रूप नहीं देखा था। उन्होंने अपनी राइटिंग टेबल के दराज से एक पिस्तौल निकाली... बदशक्ल.. डरावनी। मुझ पर दहशत सवार हो गई।

'यह पिस्तौल, यह रिवॉल्वर इस बात की गारंटी है कि अब तुम आजाद हो, जैसे चाहो जिंदगी बिता सकती हो। इस कोठी के दरवाजे अब तुम्हारे लिए खुल गए हैं। मैं तुमसे तुम्हारे समय का हिसाब नहीं पूछूंगा कि तुम कहां गईथीं, किसके साथ गई थीं, तुमने दिनभर क्या किया। लेकिन याद रखना, जिस दिन मैंने यह देखा कि तुमने मेरे विश्वास और प्रेम का अपमान किया है, तो मैं बिना किसी जवाब तलब के, बिना किसी प्रकार की सफाई के, इस पिस्तौल की गोली से तुम्हारी हत्या कर दूंगा।'

मैं सुन्न, स्तब्ध रह गई। मेरी समस्त कोमल भावनाओं को मेरे पति के फौजी बूटों ने कुचल दिया। मुझे महसूस हुआ कि पिस्तौल से ‍अचानक गोली निकली और मेरे सीने के पार हो गई। उनकी आवाज और चेहरे से मुझे यह निश्चय हो गया था कि एक दिन इस पिस्तौल से गोली निकलेगी और मेरी छाती को चीर डालेगी।

मेरे पति ने अपने वचन का पालन किया। उस रात के बाद उन्होंने मुझे पिंजरे की कैद से मुक्त कर दिया। मेरी आजादी मुझे लौटा दी गई। पर अब मुझे इस आजादी से ही डर लगने लगा। मुझे हर पल ऐसा लगता था कि पिंजरे के द्वार पर पिस्तौल तनी हुई है।

मैं जिस पलंग पर लेटी थी, उससे फिर उठ न पाई। मैं आंखें बंद करती तो मुझे कनपटी के पास पिस्तौल का ठंडा लोहा महसूस होता।

चार साल! क्या आपने कभी अनुभव किया है कि मौत क्या होती है? चार साल तक मैं चलती-फिरती ठंडी लाश थी।
मैंने पूछा, तब उस दुखद स्थिति का अंत कैसे हुआ?
मेरे पति के साथ उसका भी अंत हो गया।
ऑफिसर मेस में एक बार खूब शराब पी और लौटते समय बंद रेलवे क्रॉसिंग के बेरियर से अपनी कार टकरा दी। उस समय ऑन दि स्पॉट उनकी मौत हो गई।
और वह पिस्तौल, रिवॉल्वर? उसको तुमने पुलिस को लौटा दिया?'

वह पतले-सूखे होंठों से मुस्कराई। उसकी मुस्कराहट ने उसके पीले चेहरे पर स्निग्धता फैला दी। ऐसा लगा जैसे वो कभी बीमार थी ही नहीं... स्वस्थ है।

उसने कहा, पति का क्रिया-कर्म समाप्त होने के बाद, मैंने अपने पिता से कहा कि वे अपने दामाद की मेज के दराज से वह पिस्तौल निकालकर पुलिस थाने में जमा कर दें, क्योंकि मैं चार साल से हर रात, स्वप्न में उससे गोली निकलते और अपनी कनपटी को फोड़ते हुए देखती हूं।
मेरे पिता उनकी दराज से वो पिस्तौल लेकर आए तो उसे देखकर मैं चीख पड़ी।

उसे मेरे पास मत लाइए... तुरंत पुलिस थाने ले जाइए।
मेरे पिता मेरा डर देख हंसने लगे। उन्होंने कहा, तू अब तक बच्ची है, पगली, यह असली नहीं नकली पिस्तौल है। यह खिलौना है। देख यह खाली है।

मैं आश्चर्य से स्तब्ध थी।
खिलौने वाली पिस्तौल की गोली ने मुझे कनपटी पर नहीं, लेकिन दिल के बीच में मारा।
अब तो हृदय रोग के अनेक उपचार निकल आए हैं... ओपन हार्ट सर्जरी भी होती है। लेकिन आप बताइए, आप तो मर्दों के समान आला अफसर बनने जा रही हैं, मेरे दिल में धंसी आतंक की गोली को कौन डॉक्टर निकाल सकता है?

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