जिस देश में प्राथमिक शिक्षा का ढाँचा लगभग ध्वस्त हो चुका हो, बाल मजदूरों की तादाद रोजाना बढ़ रही हो,वहाँ ‘बाल साहित्य’ पर चिंताएँ कुछ आगे की बात लगती हैं। लेकिन चिंता इसलिए भी जरूरी है कि नई पीढ़ी के सामने जो भले साधन सम्पन्न हो- संस्कार का, नैतिक शिक्षा का संकट सामने है। स्कूल शिक्षा एवं सामाजिक स्थितियाँ बेहतर मनुष्य के निर्माण में खुद को नाकाम पा रही हैं।
जाहिर हैं सद्साहित्य इस टूटन में सीमेंट का काम कर सकता है। देश की और उसके नेतृत्व की चिंताओं में दरअसल बच्चे हैं ही नहीं। शायद इसका कारण यह भी हो कि वे मतदाता नहीं है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री के बाद राजनीति के शीर्ष पर किसी ऐसे व्यक्ति का आगमन प्रतीक्षित है। जिसकी चिंताओं में बच्चे और उनके व्यक्तित्व निर्माण के सवाल भी हों ।
बड़ी संख्या में बाल साहित्य का सृजन एवं प्रकाशन हो रहा है। तमाम साहित्यकार हैं, जो निष्ठा एवं प्रमाणिकता से बच्चों के लिए लिख रहे हैं, लेकिन मुख्यधारा के साहित्य की तरह उनकी कृतियाँ भी कमीशन और दलाली की संस्कृति के चक्र में फँसकर आम बच्चों तक नहीं पहुँच पाती।
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सरकारी खरीद एवं पुस्तकालय खरीद तंत्र ने समूचे प्रकाशन जगत को भ्रष्ट एवं काहिल बना दिया है। फलतः बाल साहित्य की किताबें इतनी महँगी हैं कि बच्चा उन्हें खरीदना तो दूर छू भी नहीं सकता है, सो महँगी किताबें कौन खरीदेगा?
अभिभावकों की चिंता में सिर्फ अपने बालक के स्कूली परीक्षा में मिलने वाले ‘मार्क्स’ हैं, जो आगे की पढ़ाई या बड़ी कक्षा में प्रवेश में उसके सहायक बनेंगे। बाकी बचा समय ‘टेलीविजन’ के चैनलों की लंबी श्रृंखला निगल जाती है। व्यस्तता की इस दिनचर्या में शब्दों का महत्व गिरा है। जिंदगी में उनके लिए ‘स्पेस’ घटा है।
बच्चों के लिए आज कई पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन वे शहरी मध्यवर्ग के कुछ परिवारों तक ही पहुँच पाती हैं । बाल साहित्य को लेकर एक चलताऊ और खानापूर्ति करने का भाव प्रायः पत्रकारिता क्षेत्र में भी व्याप्त है। इसलिए प्रायः हर समाचार पत्र बच्चों के लिए पूर्ण पृष्ठ या विशेष पत्रिकाएँ छापता है, किंतु उसमें बच्चों के मन की, उनकी रुचि की कितनी सामग्री होती है, इसका आकलन होना भी शेष है।
साहित्य क्षेत्र में भी बाल साहित्य को गंभीरता से नहीं लिया जाता। बच्चों के लिए लिखने वाले बाल साहित्यकारों को उपेक्षा के भाव से देखा जाता है। साहित्य की चर्चा, आलोचना एवं समीक्षा में भी बाल साहित्य को अहमियत नहीं दी जाती। बडे़ साहित्यकारों प्रायः बच्चों के लिए साहित्य लेखन से बचते हैं। स्वयं साहित्य के गलियारों में बच्चों में लिए लेखन पर यह उपेक्षा भाव चकित करता है। बाल साहित्य के लिए शासकीय स्तर पर कोई बड़ा पुरस्कार नहीं है, न ही शासकीय अकादमियाँ बाल साहित्य के संदर्भों पर कोई आयोजन करती नजर आती है।
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इस सबके बावजूद हिंदी बाल साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा ने अपने सतत लेखन से इस क्षेत्र को समृद्ध किया है। कुल मिलाकर बाल साहित्य की स्थिति प्रचार-प्रसार के स्तर पर भले ही दयनीय हो, लेखन के स्तर पर संतोषजनक है। जाहिर है जब तक बच्चे हमारी चिंताओं के केंद्र में न होंगे, उनके व्यक्ति संवर्धन से जुड़ा हर पक्ष चाहे वह शिक्षा, मनोरंजन, फिल्म या साहित्य कुछ भी हो, उपेक्षा का शिकार होगा।
अभिभावकों एवं समाज के प्रबुद्ध वर्गों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी चिंताओं के केंद्र में बच्चों को शामिल करें। सिर्फ उनके स्कूली पाठ्यक्रम या करियर का नहीं वरन एक मनुष्य के नाते उनके नैतिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक पक्षों का भी विकास जरूरी है। श्रेष्ठ बाल साहित्य की उपलब्धता एवं शिक्षा भावी पीढ़ी को ज्यादा बेहतर, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय बनाएगी।