जरूरत है शिक्षक और विद्यार्थी के अंतरमन को बदलने की

श्रीमती श्वेता व्यास
हमें यह बताया जाता है कि शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए। हमारे जीवन में माता-पिता के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव शिक्षक का ही होता है। भारत में गुरु-शिष्य परंपरा का प्रचलन प्राचीनकाल से मध्यकाल तक रहा। इसके बाद बदलावा होता गया। वर्तमान में जो शिक्षक है उनकी तुलना गुरु से की जाती है जबकि करना चाहिए आचार्य से। हालांकि वर्तमान के शिक्षक एक तय फॉर्मेट की शिक्षा देते हैं जोकि महज जानकारी होती है। लेकिन गुरु वह होता है जो अंतरमन के अंधकार को मिटाने का कार्य करता है। गुरु-शिक्षक एवं ज्ञान-शिक्षा के फर्क को समझने की जरूरत है।
 
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दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादियों और अपराधियों की बात करें तो उनकी शिक्षा का स्तर आम शिक्षित लोगों से कहीं ज्यादा रहा है और उन्हें दुनियाभर की जानकारी है। क्या जानकारी हासिल करना शिक्षित होना है? इससे यह सि‍द्ध होता है कि शिक्षा बुनियादी रूप से ही कहीं न कहीं गलत है? और जब शिक्षा ही गलत है तो हम कैसे शिक्षक पैदा करेंगे यह सोचा जा सकता है। यह बात बहुत से शिक्षक भी सोचते होंगे, लेकिन वे सभी मजबूर हैं।
 
ओशो कहते हैं, मनुष्य-जाति जिस कुरूपता और अपंगता में फंसी है, उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं। जीवन के वृक्ष पर कड़वे और विषाक्त फल देखकर क्या गलत बीजों के बोए जाने का स्मरण नहीं आता है? बीज गलत नहीं तो वृक्ष पर गलत फल कैसे आ सकते हैं? वृक्ष का विषाक्त फलों से भरा होना बीज में प्रच्छन्न विष के अतिरिक्त और किस बात की खबर है? मनुष्य गलत है तो निश्चय ही शिक्षा सम्यक नहीं है।
 
कहीं गलत तो नहीं है हमारी शिक्षा पद्धति?
 
जेएनयू की हम बात नहीं करेंगे कि विद्यार्थी वहां पढ़ने जाते हैं या कि देश तोड़ने के नारे लगाने। क्या वे बचपन की स्कूली शिक्षा से लेकर अब तक यही सीखकर आए थे और क्या यूनिवर्सिटी में यही सिखाया जाता है?

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शिक्षा में ज्ञान, अहिंसा, उचित आचरण की शिक्षा दी जाती रही है। माना जाता था कि शिक्षा से 'आदर्श समाज' का निर्माण होगा। पिछले 25-30 वर्षों में ज्ञान का विस्फोट हुआ है और हर वर्ग में शिक्षा का स्तर बढ़ा है। लेकिन, क्या हम 'आदर्श समाज' का निर्माण कर पाए हैं? क्या हम लोगों को अंधविश्वास से मुक्त कर पाएं हैं और क्या हम दिलों से नफरत मिटाकर एक भारत, सशक्त भारत का निर्माण कर पाएं हैं?
 
पिछले 100 वर्षों की अपेक्षा आज दुनिया में कथित रूप से सबसे ज्यादा शिक्षित और ज्ञानी लोग हैं, लेकिन फिर भी दुनिया में अपराध, आतंक, भ्रष्टाचार और तमाम तरह की बुराइयों का ग्राफ बढ़ा ही हैं। आज पहले से कहीं अधिक गरीबी, कुपोषण, भ्रूण हत्या, बलात्कार, चोरी, हिंसा, दीनता, दरिद्रता और दरिंदगी है। क्या आप नहीं जानते कि हम पहले से कहीं अधिक विज्ञान और तकनीकी शिक्षा से सम्पन्न होने के बावजूद दीन और हीन क्यों हैं? आखिर क्या वजह है इसकी?
 
इसकी बहुत ही सरल वजह यह है कि हम स्कूल और कॉलेजों में व्यक्ति को एक इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, पत्रकार, राजनीतिज्ञ आदि सब कुछ बनाने की शिक्षा देते हैं, लेकिन एक अच्‍छा, देशभक्त, समझदार और संवेदनशील इंसान बनाने की शिक्षा नहीं देते। हालांकि कहते हैं कि हम नैतिक शिक्षा देते हैं लेकिन यह सिर्फ थ्योरी है इसमें कुछ भी प्रेक्टिकल नहीं।
 
कैसे बदलेगा अंतरमन?
 
सवाल यह उठता है कि कैसे बदलेगा व्यक्ति का अंतरमन। जब तक आप व्यक्ति के अंतरमन को नहीं बदलेंगे तब तक उसे दी गई शिक्षा से 'आदर्श समाज' का निर्माण नहीं कर सकते हैं। वह वही कार्य करेगा जो समाज की गलाकाट प्रतियोगिता से जन्मे हैं। वह देखता है कि उसके आसपास धोखा देने वाले, झूठ बोलने वाले, सांप्रदायिक, राजनीतिज्ञ, अपराधी और तमाम वे लोग मौजूद हैं जो हर तरह के बुरे तरीके से सफल होने की दौड़ में शामिल है। यही सब उसे शिक्षा देते हैं। यह कहने में दुख होता है कि जिस शिक्षक की हम बात करते हैं वही क्लास रूम के बाहर सिगरेट पीता हुआ नजर आता है। खैर...

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प्राचीन भारत में शिक्षा के चार स्तर थे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्रारंभ में उसे धर्म की शिक्षा के अंतर्गत ध्यान, योग और तप की शिक्षा दी जाती थी जिससे उसके शारीरिक विकास के साथ ही उसके अंतरमन में बदलाव होकर वह और भी संवेदनशील बन जाता था। इसके बाद ही उसे शिक्षा के अन्य आयामों से अवगत कराया जाता था। हमारे देश के कई दार्शनिकों ने कहा है कि ध्यान एक ऐसा माध्यम है जो सभी तरह की बुराइयों को जड़ से समाप्त कर सकता है।
 
वर्तमान युग में ध्यान और योग की विद्यार्थियों के साथ शिक्षकों को ज्यादा जरूरत है। ध्यान आपको आपके प्रति जाग्रत करके दुनिया के प्रति संवेदनशील ही नहीं बनाता है बल्कि यह आपकी बुद्धि को पहले की अपेक्षा कई गुना तीक्ष्ण कर देता है। हम देख रहे हैं कि अमेरिका सहित योरप में इसका प्रचलन बढ़ता जा रहा है लेकिन हमारे यहां वैचारिक भिन्नता के कारण अभी भी इसे शिक्षा में शामिल किए जाने को लेकर कई तरह के किंतु और परंतु लगे हुए हैं। यह जल्दी से समझना जरूरी है कि दुनिया में संवेनदशीलता का स्तर गिरता जा रहा है और लोगों को संवेदनशील बनाकर ही एक आदर्श समाज की स्थापना की जा सकती है।
 
शिक्षा हमें संवेदनशील नहीं बनाती तो वह किसी काम की नहीं। एक समय था जब किसी एक व्यक्ति को चाकू लग जाता था तो लोगों के दिल दहल जाते थे लेकिन आजकल किसी बच्ची के साथ बलात्कार हो जाता है या किसी बच्चे को दर्दनाक तरीके से मार दिया जाता है तो उस खबर को पढ़कर अब लोगों के दिलों में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह इस बात की सूचना है कि लोग अब संवेदनशील नहीं रहे।

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