अमेरिकी 'पापों' का नतीजा है वैश्विक आतंकवाद

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहल पर आतंकवादी संगठन ISIS के खिलाफ शुरू किए गए अभियान से क्या दुनिया से आतंकवाद का नामोनिशान मिट जाएगा? या इसका हश्र भी अलकायदा और उसके सरगना ओसामा बिन लादेन के खात्मे के लिए अमेरिका द्वारा शुरू की गई 'आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई’ जैसा ही होगा?
इन सवालों से पहले हमें सोचना होगा कि वे कौन से कारण हैं कि एक समय आतंकवाद का पर्याय कहे जाने वाले ओसामा बिन लादेन को उसकी पनाहगाह पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा मार दिया गया, परन्तु इसके बाद ही अलकायदा से ज्यादा खूंखार आईएसआईएस के सरगना अबू बकर अल बगदादी ने खुद को इस्लामी दुनिया का खलीफा घोषित कर दिया?
 
वे कौन देश हैं जिन्होंने आईएसआईएस को पाल-पोसकर इतना खौफनाक बना दिया और क्यों? पेट्रोलियम और गैस के अकूत भंडार पर बैठे इस्लामिक देशों का इनसे क्या रिश्ता है? पूरी दुनिया को दारुल इस्लाम में बदलकर इस्लामी शरीयत लागू करने पर आमादा ऐसे आतंकवादी संगठनों और पेट्रो डॉलर के दम पर इतरा रहे खाड़ी के देशों के बीच, खुद को शांति और मानवाधिकारों का मसीहा कहने वाला अमेरिका कहां खड़ा है? 
                
इस्लामी आतंकवाद की शुरुआत कब व कैसे हुई और किसने की, इस मुद्दे पर दुनियाभर के बुद्धिजीवी अनेक वर्षों से माथापच्ची कर रहे हैं, परंतु मामला हर बार इस्लाम की शुरुआत से लेकर इस्लाम और ईसाइयत के संघर्ष के धरातल पर आकर टिक जाता है। यह एक लम्बी और कभी खत्म न होने वाली बहस है। यहां हमारा मकसद इस बहस में उलझकर मामले को और ज्यादा पेचीदा बनाना नहीं है।
 
इसलिए मौजूदा खतरे को आसानी से समझे जा सकने वाले सीधे और सपाट शब्दों में प्रस्तुत करने के लिए उस दौर से शुरू करते हैं, जब अमेरिका ने 24 दिसंबर 1979 को अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप के खिलाफ वहां, पाकिस्तान और सऊदी अरब के सहयोग से, अफगान लड़ाकों को तालिबान के नाम से खड़ा किया और नौ साल बाद फरवरी 1989 को वहां से सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद ये लड़ाके आतंकवादियों के रूप में गिरोहबंद हो गए। 
 
यह कोई रहस्य नहीं है कि आतंकवादियों के इस गिरोह ने कैसे पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान का रूप धारण कर 1996 में अफगानिस्तान का शासन हथिया लिया और कैसे सऊदी अरब के समर्थन और सहयोग से सऊदी नागरिक ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अलकायदा पनपा और पूरी दुनिया को दारुल इस्लाम में तब्दील के नाम पर आतंक का पर्याय बन गया। इतना सब होने पर अमेरिकी नीरो की तरह चैन की बंसी बजाते रहे।
 
लेकिन, जब अलकायदा ने 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला कर उसे तबाह कर दिया तब अमेरिका को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने की जरूरत महसूस हुई। इस लड़ाई में अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों के साथ-साथ खाड़ी के देश खासकर सऊदी अरब और पाकिस्तान भी साथ में खड़े दिखाई दिए। इस लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान ने एक ओर तो अमेरिका से भरपूर आर्थिक मदद व फौजी साजो-सामान हासिल किया वहीं गुपचुप वह अलकायदा की मदद भी करता रहा।
 
यहां तक कि उसने ओसामा बिन लादेन को अमेरिका की नजरों से छुपाने के लिए उसे अपने यहां पनाह भी दी। परन्तु प्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान हर बार यही दोहराता रहा कि उसे पता ही नहीं है कि लादेन कहां है। पाकिस्तान का यह सफेद झूठ दुनिया के सामने तब उजागर हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 1 मई, 2011 को वॉशिंगटन में यह घोषणा की कि अमेरिकी सेना के एक खुफिया ऑपरेशन में ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के एबटाबाद में मार दिया गया है।
आखिर कौन है जो इन आतंकी ताकतों का समर्थन करता है... पढ़ें अगले पेज पर....

विदित हो कि एबटाबाद पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के 50 किमी उत्तर में स्थित है। लादेन को जिस मकान में छुपाया गया था वह पाकिस्तानी मिलिटरी एकेडमी के पास में ही था। क्या यह संभव है कि एक मोस्ट वांटेड आतंकवादी पाकिस्तान की सैनिक छावनी के पड़ोस में रह रहा हो और पाकिस्तान सरकार को इस बात की जानकारी ही न हो? होना तो यह चाहिए था कि ओसामा बिन लादेन के खात्मे के साथ ही दुनिया से आतंकवाद का खात्मा हो जाना चाहिए था, परन्तु हुआ इसका ठीक उलटा। 
 
लादेन के बाद सीरिया में आईएसआईएस के रूप में एक दूसरा व खूंखार आतंकवादी संगठन हुंकारें मार रहा है। गाजा पट्टी पर राज करता हमास, इसराइल के साथ ही अमेरिका को भी आंखें दिखाता रहा है। अब प्रश्न यह है कि जब दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका तालिबान, अलकायदा, हमास और आईएसआईएस को नेस्तानाबूद करना चाहता है तो वे कौनसी ताकतें हैं जो इनका और इन जैसे दर्जनों आतंकवादी संगठनों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करती हैं? इसके साथ ही प्रश्न यह भी है कि जब पूरी दुनिया यह जानती है कि सऊदी अरब ने ही अलकायदा को पाला-पोसा है तब भी अमेरिका क्यों सऊदी अरब का साथ नहीं छोड़ रहा है? और क्यों आतंक के खिलाफ लड़ाई की जुगलबंदी में वह हर बार उसे अपने साथ रखता है?
 
अमेरिका की सऊदी अरब व आतंकवादियों से रिश्तों की कहानी छिपी नहीं है वरन इसे  सभी जानते हैं? सीरिया में आईएसआईएस के आतंकवादियों को नियंत्रित करने के लिए सीरिया के विद्रोहियों को हथियार व प्रशिक्षण देने सम्बन्धी प्रस्ताव अमेरिकी कांग्रेस व सीनेट में पारित किया गया था। यह प्रस्ताव बहुत चौंकाने वाला और अंतरराष्ट्रीय मान्यताओं के विरुद्ध है। राष्ट्रपति बराक ओबामा की मार्मिक अपील पर पारित प्रस्ताव की विशेषता यह है कि इसमें सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के वैधानिक शासन का तख्ता पलट करने की साजिश में लगे विद्रोहियों की सहायता करने की बात कही गई है परन्तु यह विद्रोही कौन हैं, उनके नाम का उल्लेख नहीं है। 
 
सीरिया में असद विरोधी तत्व कई नामों से लड़ रहे हैं, इनमें फ्री सीरिया आर्मी, अल नुसरा फ्रंट, अलकायदा इन सीरिया, आईएसआईएल आदि कई नाम चर्चा में हैं। ये अलग-अलग हैं या जरूरत की सुविधा से नाम बदल लेते हैं इस बात को लेकर भी विश्लेषकों के कई मत हैं। होना तो यह चाहिए था कि आतंकवादियों से निपटने के लिए किसी भी देश की वैधानिक सरकार की सहायता की जाए ना कि विद्रोहियों की। इस कारण से अमेरिका को आईएसआईएस के आतंकवादियों से निपटने के लिए राष्ट्रपति बशर अल-असद की सहायता करनी चाहिए थी, लेकिन अमेरिका इसका ठीक उल्टा करता रहा है।
 
ओबामा प्रशासन द्वारा राष्ट्रपति असद के विरोधियों की सहायता करने का मुख्य कारण यह है कि अमेरिका असद का तख्ता पलट कराकर वहां अपने मनमाफिक सरकार स्थापित कराना चाहता है। दुनिया के विभिन्न देशों में वैधानिक सरकारों का तख्ता पलट कराकर वहां कठपुतली सरकार स्थापित कराना अमेरिका की पुरानी रणनीति है, जिसका एक लम्बा इतिहास है। वास्तव में अमेरिका आईएसआईएस के आतंकवादियों से लड़ाई की आड़ में जिन विद्रोहियों को हथियार देना चाहता है उन्हें वह पहले से ही हथियार उपलब्ध करा रहा है। 
सीरिया मामले में अमेरिका का यह है असल मकसद... पढ़ें अगले पेज पर...

इस संबंध में वोल्टएयर नेटवर्क के लिए थैरी मेसान ने 18 अगस्त, 2014 को लिखे एक लेख 'जॉन मैककेन, कंडक्टर ऑफ अरब स्प्रिंग एंड दी कैलिफ’ में न्यूज एजेंसी 'रायटर’ की खबर का उल्लेख करते हुए लिखा कि किस प्रकार अमेरिकी कांग्रेस ने जनवरी 2014 में सीरिया के विद्रोहियों को सितंबर 2014 तक हथियार उपलब्ध कराने का प्रस्ताव पारित किया था। इतना ही नहीं, वास्तव में उस प्रस्ताव की अवधि समाप्त होने से पहले ही अमेरिका ने आईएसआईएस से लड़ाई के नाम पर यह प्रस्ताव पारित कराया था। अमेरिका का वास्तविक मकसद सीरिया की सत्ता से राष्ट्रपति बशर अल असद को बेदखल करना है और इस अभियान में सऊदी अरब, मिस्र, जार्डन व लेबनान के साथ ब्रिटेन, फ्रांस व ऑस्ट्रेलिया आदि देश भी शामिल हैं।
 
यहां इस बात का उल्लेख करना बहुत ही प्रासंगिक है कि जिस आतंकवादी गिरोह आईएसआईएस से निपटने के नाम पर अमेरिका जिन विद्रोहियों अल नुसरा फ्रंट को हथियार दे रहा है, अलकायदा मुखिया अल जवाहिरी ने अबू बकर अल बगदादी द्वारा उसी अल नुसरा फ्रंट से संबंध स्थापित करने का विरोध करते हुए फरवरी 2014 में आईएसआईएस से अपने वर्षों पुराने रिश्ते तोड़ दिए थे।
                  
आईएसआईएस/आईएसआईएल के सऊदी अरब से संबंधों का खुलासा सऊदी अरब के सरकारी टीवी चैनल 'अल अरबिया’ के 26 जनवरी 2014 के एक कार्यक्रम से होता है जिसमें आईएसआईएल का एक आतंकवादी यह कहते हुए दिखाया गया है कि वे जो कुछ करते हैं वह आईएसआईएल के शीर्ष नेतृत्व खासतौर पर प्रिंस अब्दुल रहमान अल फैसल, जो कि सऊदी अरब के मरहूम शासक फैसल के बेटे और सऊदी विदेश मंत्री प्रिंस सऊद अल फैसल के भाई हैं, के आदेश से करते हैं। बाद में इस कार्यक्रम का टेप चैनल से हटा दिया गया। कहा जा रहा है कि यह गलती से हो गया। प्रश्न यह है कि क्या यह वास्तव में गलती हुई या गलती से एक सच्चाई उजागर हो गई?
 
वास्तव में आईएसआईएस खाड़ी में अमेरिका के एक मोहरे की तरह काम कर रहा है। यही कारण है कि अमेरिका ने आईएसआईएस को सीरिया व इराक के एक बड़े इलाके पर कब्जा करने दिया, जहां उसने महिलाओं का अपहरण कर उन्हें 'सेक्स स्लेव’ बना दिया और सामूहिक हत्याएं करते हुए अत्याचार की सभी हदें पार कर दीं। तब बराक ओबामा कहते रहे कि वे खाड़ी में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और जब आईएसआईएस द्वारा दो अमेरिकी पत्रकारों के सिर काटे जाने के वीडियो टेप सामने आए तो अमेरिकी नागरिकों का गुस्सा शांत करने के लिए उन्होंने आनन-फानन में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का ऐलान कर दिया। 
 
अमेरिका ने ठीक ऐसा ही व्यवहार, 9 सितम्बर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद अफगानिस्तान में ओसामा बिन-लादेन और अलकायदा से निपटने के लिए किया था। यह सवाल करना गलत न होगा कि क्या अलकायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी गु्ट एक ही दिन में पनप जाते हैं या सुनियोजित तौर  पर इन्हें पनपने के अवसर और संसाधन मुहैया कराए जाते हैं? यदि ऐसा है तो कौन हैं वे ताकतें जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवता के खिलाफ चल रहे इस षड्यंत्र में सहभागी हैं? और क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई केवल एक दिखावा है या किसी रणनीति का हिस्सा?
 
यह बात जग जाहिर है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप का विरोध करने के नाम पर वहां एक लाख से ज्यादा मुजाहिदीनों की फौज तैयार की। इनमें ओसामा बिन लादेन के समर्थक भी शामिल थे। इस काम में सऊदी अरब ने अमेरिका का भरपूर सहयोग किया। मुजाहिदीनों की इस फौज में 'इस्लाम खतरे में है’ के नाम पर अफगानिस्तान के अलावा पाकिस्तान, ईरान, सऊदी अरब और अलजीरिया आदि चालीस से ज्यादा मुस्लिम देशों के युवकों को इकट्‍ठा किया गया। इस काम में तब 40 अरब डॉलर से ज्यादा रकम खर्च की गई।
अमेरिका ने इस तरह की अलकायदा सरगना लादेन की मदद... पढ़ें अगले पेज पर...

माइकेल माइरेसी ने 'दि बुश सऊदी कनेक्शन’ शीर्षक लेख में लिखा है कि 80 के दशक में इसी दौरान अमेरिका ने सऊदी अरब में सैनिक हवाई अड्डे और बंदरगाह बनाए और इस काम के ठेके वहां की सबसे बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी सऊदी बिन लादेन ग्रुप को दिए गए। यह ग्रुप ओसामा बिन लादेन के पिता का है। इस दौरान लादेन ने अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों को प्रशिक्षण देने के लिए बनाई गई सुरंगों व अन्य निर्माण कार्यों के लिए अपने पिता की कम्पनी से मशीनें मंगाईं। अफगानिस्तान से सोवियत रूस की वापसी के बाद वहां वहाबी सुन्नी तालिबान मजबूत हुआ। तालिबान को सऊदी शासकों के साथ ही बिन लादेन परिवार, अल अहमदी परिवार और लादेन के भाई के साले खालिद बिन महफूज परिवार का आशीर्वाद प्राप्त था।
 
माइरेसी ने अपने लेख में विस्तार से लिखा है कि किस प्रकार ओसामा के भाई सलेम बिन लादेन ने बुश परिवार के घनिष्ठ मित्र जेम्स बॉथ के माध्यम से अमेरिका में अपना कारोबार फैलाया। वह वास्तव में सलेम का प्रतिनिधि था और उसने 1979 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कारोबार में 50 हजार डॉलर का निवेश किया। यही नहीं, 'हाउस ऑफ बुश, हाउस ऑफ सऊद’ पुस्तक के लेखक उंगेर ने इस बात का खुलासा किया है कि किस प्रकार बुश परिवार और सऊदी अरब के शाही परिवार के आर्थिक हित आपस में जुड़े थे। सऊदी परिवार ने बुश परिवार की कम्पनियों में 1.4 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया। सऊदी प्रिंस सुलतान और उनके बेटे प्रिंस बांदेर ने बुश परिवार के कार्लेल ग्रुप के माध्यम से अमेरिका के हथियार उद्योग में निवेश किया।
 
सऊदी परिवार और बुश परिवार के आपसी संबंधों के कारण ही अमेरिका में लादेन और अलकायदा की गतिविधियों की अनदेखी की गई। माइरेसी ने लिखा है कि 1993 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए कार बम विस्फोट की जांच में अलकायदा के शामिल होने के पुख्ता प्रमाण मिले थे, परन्तु प्रशासन ने इन सबकी अनदेखी करते हुए लादेन के प्रति नरम रुख अपनाया। यहां तक कि 1998 में लादेन ने जेहाद की बात करते हुए जब अमेरिकियों को मारने का फतवा जारी किया और 7 अगस्त 1998 को तंजानिया व केन्या में अमेरिकी दूतावासों पर एक साथ हुए हमलों में 266 लोग मारे तब लादेन को आतकंवादियों की सूची में शामिल तो किया गया परंतु कहीं न कहीं नरमी का रुख बना रहा। 
 
यही कारण है कि 9/11 के हमले के बाद हुई जांच-पड़ताल में यह खुलासा हुआ कि जेद्दा स्थित अमेरिकी दूतावास के वीजा प्रमुख माइकल स्प्रिंगमैन ने जिन हजारों संदिग्ध लोगों को वीजा देने से इंकार किया उन्हें सीआईए के अधिकारियों ने वीजा देने के आदेश दिए। स्प्रिंगमैन ने इस बात की शिकायत स्टेट डिपार्टमेंट से लेकर अमेरिकी कांग्रेस की संबंधित कमेटी से भी की, परन्तु सब बेकार। स्प्रिंगमैन का मानना है कि 9/11 के हमले में जो 19 लोग शामिल थे उनमें से 15 को सीआईए के अधिकारियों के आदेश के बाद वीजा जारी किए गए थे।
 
कार्ल उंगेर ने 11 मार्च 2004 को बॉस्टन ग्लोब में एक लेख में लिखा कि जांच अधिकारियों को यह देखना चाहिए कि 9/11 के तत्काल बाद किसने 140 सऊदियों को 8 हवाई जहाजों से अमेरिका से बाहर जाने दिया, इनमें शाही परिवार के लोग भी शामिल थे। उंगेर ने सऊदी यात्रियों की चार सूचियां भी जारी कीं जिनमें शाही परिवार के लोग भी शामिल हैं। 9/11 के बाद हर जांच में यह उजागर हुआ कि किस प्रकार सऊदी अरब आतंकवादियों के साथ काम करता रहा इसके बावजूद व्हाइट हाउस की नीति यह रही कि लादेन के अलावा शेष बिन लादेन परिवार संदेह से परे है। 
यहां भी रही अमेरिका की दोगली नीति... पढ़ें अगले पेज पर....

यही नहीं ओसामा बिन लादेन को खत्म करने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में तो हस्तक्षेप किया परन्तु उस पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जिसने उसे अपने यहां छिपाया और अतंत: अमेरिका उसे पाकिस्तान के ही छावनी क्षेत्र में मार गिराने को मजबूर हुआ।
 
लादेन के मारे जाने के बाद भी अलकायदा क्यों खत्म नहीं हो पाया और उसके साथ ही आईएसआईएस के नाम पर एक नया गिरोह कैसे खड़ा हो गया? इस कहानी का खुलासा होता है थैरी मेसन के लेख 'जॉन मैक्कैन कंडक्टर ऑफ अरब स्प्रिंग एंड दि कैलिफ’ से जिसमें लिखा गया है कि किस प्रकार रिपब्लिकन सीनेटर जॉन मैक्कैन ने 4 फरवरी 2011 को नाटो द्वारा काहिरा में बुलाई गई उस बैठक की अध्यक्षता की थी जिसमें लेबनान और सीरिया में 'अरब स्प्रिंग’ आंदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया।
 
इसके बाद वे 22 फरवरी को लेबनान में आंदोलनकारियों से मिले और सीरिया की सीमा पर उन गांवों का दौरा किया जो आंदोलन का केन्द्र बने। इसके बाद मई 2013 में वे तुर्की होते हुए सीरिया के इदलिब गए जहां वे हथियारबंद विद्रोहियों से मिले। लीबिया और सीरिया के खिलाफ यह सब अमेरिका की सोची समझी रणनीति का हिस्सा था। इससे यह भी स्पष्ट है कि सितंबर 2014 के दूसरे पखवाड़े में आईएसआईएस से निपटने के नाम पर, अमेरिकी कांग्रेस और सीनेट ने, बशर अल असद के विरोधियों को हथियार देने के जो प्रस्ताव पारित किए, वास्तव में उनकी पटकथा 4 फरवरी 2011 को ही लिखी जा चुकी थी।
 
फ्रांस के दो खुफिया विश्लेषकों ज्यां चार्ल्स ब्रिसर्ड और जी डस्कुई ने 'फॉरबिडन ट्रुथ' में खुलासा किया कि किस प्रकार क्लिंटन और बुश प्रशासन ने तेल बाजार को स्थिर बनाए रखने और सऊदी अरब से संबंधों की खातिर अलकायदा मुखिया लादेन के खिलाफ जांच को बाधित किया। 
 
विश्लेषकों का मानना है कि सऊदी अरब द्वारा वहाबी-सुन्नी आतंकवाद को पोषित करने की पुष्ट जानकारी होने के बावजूद अमेरिका इस ओर से आंखों बन्द किए हुए है क्योंकि सऊदी परिवार अमेरिका के हितों की रक्षा करता है। वह ओपेक के माध्यम से तेल की कीमतें नियंत्रित रखता है और कीमतें एक स्तर से अधिक नहीं होने देता, वह अमेरिकी हथियारों का प्रमुख खरीदार है तथा अमेरिका के सरकारी बांडों में निवेश करता है। 
 
इसके साथ ही अमेरिका अलकायदा और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी ग्रुपों का उपयोग एक हथियार के रूप में करता है। पहला किसी देश में हस्तक्षेप के लिए और दूसरा अमेरिका में यह कहने के लिए कि उसके अस्तित्व के लिए यह हस्तक्षेप जरूरी था। आतंकवादी खतरे के नाम पर अमेरिका अपने नागरिकों की निगरानी के औचित्य को भी सिद्ध करना चाहता है।
 
विश्लेषकों का यह भी कहना है कि अपने हथियार उद्योग को बचाए रखने के लिए दुनिया में अशांति का रहना अमेरिका के लिए बहुत जरूरी है और यही कारण है कि शांति बहाली के नाम पर दुनिया के 74 देशों में अमेरिका की सेनाएं तैनात हैं, परन्तु इसके बावजूद शांति कहीं नहीं है, बल्कि दुनिया में अशांति का महौल निरंतर गहराता ही जा रहा है।
इस तरह मिला आतंकवाद को नया नाम... पढ़ें अगले पेज पर...

'अरब स्प्रिंग' से मिला आतंकवाद को नया नाम : यह प्रश्न बार-बार उठता है कि अमेरिका द्वारा संचालित आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की धरती पर अलकायदा सरगना ओसामा बिन-लादेन का 2 मई, 2011 को काम तमाम करने के बाद दुनिया से आतंकवाद का नामोनिशान मिट जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका।
 
पिछले कुछ वर्षों में आतंकवाद आईएसआईएस, मुस्लिम ब्रदरहुड, अल नुसरा फ्रंट, बोको हरम आदि कई नामों से अपने नए-नए रूप में दुनिया के सामने आया। आतंकवाद के फिर से सिर उठाने के क्या कारण हैं?
 
आज आईएसआईएस/आईएसआईएल के वीभत्स रूप को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आईएसआईएस और बोको हरम जैसे आतंकवादी गिरोहों द्वारा बच्चियों व महिलाओं के अपहरण और उनसे दुर्व्यवहार की खबरें रोज पढ़ऩे को मिलती हैं। इसी तरह मुस्लिम ब्रदरहुड का नाम ही खाड़ी के देशों को कंपा देने के लिए काफी है।
 
इसने पिछले तीन-चार साल में इन देशों में जिस प्रकार अरब स्प्रिंग के नाम पर राजनीतिक अस्थिरता फैलाई उससे इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं। साथ ही, यह भी समझा जाना चाहिए कि इन सभी बातों को अगर अमेरिका का सक्रिय समर्थन नहीं मिला है तो मौन प्रोत्साहन अवश्य हासिल हुआ। 
 
मुस्लिम ब्रदरहुड के नेतृत्व में 18 दिसम्बर 2010 को शुरू हुए 'अरब स्प्रिंग' के कारण अगले दो-तीन साल में ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया, यमन में सरकारों के तख्ते पलट गए। बहरीन, सीरिया और इराक में सरकारें डगमगा गईं। जॉर्डन, ओमान, कुवैत और फिलीस्तीन के प्रधानमंत्रियों को त्यागपत्र देने पड़े। अल्जीरिया, मोरक्को, इसराइल, सूडान, सऊदी अरब, सोमालिया, बहरीन व लेबनान आदि देशों को भारी प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा।
 
अरब स्प्रिंग के दौरान इन देशों में हुए हिंसक आंदोलनों ने दो लाख से अधिक लागों की जान ले ली। मिस्र और लीबिया में तो सरकारें पलटने के बाद भी अस्थिरता बनी हुई है और वहां मुस्लिम ब्रदर हुड का आतंकवाद जड़ें जमा चुका है और इसी तरह इराक और सीरिया आईएसआईएस के चंगुल में फंस गए हैं।
 
जिस अरब स्प्रिंग से खाड़ी और उत्तरी अफ्रीकी देशों में आतंकवाद अपने नए रूप में सामने आया है उसे किसने हवा दी? अमेरिका के 'फ्रीडम ऑफ इन्फॉरमेशन एक्ट’ के तहत जो कुछ जानकारी हासिल हुई है वह ओबामा प्रशासन की नीतियों पर एक गहरा प्रश्न चिन्ह लगाती है। 
 
इस जानकारी के आधार पर अमेरिका के अल-हेवार सेंटर ने खुलासा किया है कि मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीकी देशों में स्थायित्व बनाए रखने की पिछले लगभग दो दशकों से चली आ रही नीति को ओबामा प्रशासन ने पूरी तरह पलट दिया और उन्होंने मुस्लिम ब्रदर हुड आदि नरमपंथी इस्लामिक आन्दोलनों को समर्थन देने की नीति अपनाई और अमेरिका की नीतियों को नया रूप देने के लिए प्रेजीडेन्शियल स्टडी डायरेक्टिव-11 शीर्षक से निर्देश दिए। 
 
ये डायरेक्टिव हालांकि क्लासिफाइड डॉक्यूमेंट हैं, फिर भी विभिन्न सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार ओबामा प्रशासन मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं के साथ लगातार सम्पर्क में रहा, जबकि मिस्र ने तीस साल से इसको आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा था। ओबामा प्रशासन ने इस संगठन को मिस्र, लीबिया और सीरिया आदि देशों में 'अरब स्प्रिंग’ नाम से आंदोलन चलाने के लिए तैयार किया।
 
अरब स्प्रिंग आंदोलन ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया। सामान्यत: जिस आंदोलन को बदलाव के लिए जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति माना जा रहा था वह वास्तव में ओबामा प्रशासन द्वारा संचालित था। इससे मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीकी देशों में व्यापक स्तर पर भू-राजनीतिक बदलाव आया। जिस आईएसआईएस को आज सीरिया और इराक में एक खतरे के रूप में देखा जा रहा है और जिसे नियंत्रित करने के लिए अमेरिका अपने सहयोगियों को साथ लेकर इससे लड़ रहा है, वह खतरा वास्तव में इसी अरब स्प्रिंग की पैदाइश है। यही नहीं, वर्षों से स्थिर रहा मिस्र आज आतंकवाद से जूझने को मजबूर हो गया है।
भारत में भी हुई थी शुरुआत, लेकिन... पढ़ें अगले पेज पर....

आपको याद होगा कि इसी दौरान भारत में भी अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल द्वारा संचालित आंदोलन अपने चरम पर था और इसे भी व्यापक जनसमर्थन मिला था। तत्कालीन संप्रग सरकार इससे निपटने के लिए जूझती रही। तब कहा जा रहा था कि यह आंदोलन अरब स्प्रिंग से प्रेरित है और रामलीला मैदान की तुलना मिस्र के तहरीर चौक से की जा रही थी। जिस प्रकार इसे जनसमर्थन मिला उसे देखकर लगता था कि इस आंदोलन को राजनीतिक सफलता मिल सकती है। दिल्ली में उसे सफलता मिली भी।
 
बहुत से राजनीतिक प्रेक्षक और जानेमाने पत्रकार इसे भारत की राजनीति में एक नया प्रयोग बताते हुए नहीं थकते थे, परन्तु भारत के समझदार मतदाता ने जिस तरह लोकसभा चुनाव में अपनी समझदारी का परिचय दिया है, अब उससे स्पष्ट है कि मतदाता ने अपनी राजनीतिक परिपक्वता के चलते भारत को मिस्र, लेबनान, सीरिया और इराक बनने से बचा लिया।
 
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो कहना न होगा कि जिस ओबामा प्रशासन ने आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर इराक में हस्तक्षेप किया और पाकिस्तान की धरती पर ओसामा बिन लादेन का काम तमाम किया, उसी प्रशासन ने अरब स्प्रिंग के नाम पर नए सिरे से आतंकवाद को हवा दी है। यही नहीं, जिस प्रकार अमेरिका द्वारा पोषित तालिबान और अलकायदा स्वयं उसी के लिए खतरा बन गए थे उसी तरह अरब स्प्रिंग के दौरान पनपे आतंकवादी गिरोह अमेरिका के लिए खतरा बन गए हैं और उसने एक बार फिर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी है।
 
यहां एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि जिस प्रकार 2001 में लादेन के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका को व्यापक समर्थन मिला था वैसा इस बार नहीं है। उसके कई पुराने साथी अब उसके साथ नहीं हैं। दावा किया जा रहा है कि 40 देशों का समर्थन प्राप्त हो गया है परन्तु देशों के नाम गिनने के नाम पर 10-15 देश ही दिखाई देते हैं। इनमें से भी कई देश ना-नुकूर करते दिख रहे हैं। अमेरिका का करीबी सहयोगी कतर यह लेख लिखे जाने तक साथ नहीं आया। वह अपना अलग राग अलाप रहा है। अरब स्प्रिंग से प्रभावित कई देश इस पूरे अभियान को संदेह की नजरों से देख रहे हैं। देखा जाए तो अरब स्प्रिंग से ओबामा प्रशासन की विश्वसनीयता घटी है और कुछ देशों ने आतंकवाद को लेकर अपनी पुरानी नीतियों पर पुनर्विचार शुरू कर दिया है। ऐसे देशों में सऊदी अरब प्रमुख देश कहा जा सकता है।
 
सऊदी अरब हालांकि स्वयं वहाबिज्म के नाम पर इस्लामी आतंकवाद का निर्यातक देश माना जाता है परन्तु उसने जिस प्रकार आतंकवाद के नाम पर कतर से अपना राजदूत वापस बुलाया वह महत्वपूर्ण बात है। हालांकि इसे दोनों देशों के आपसी हितों के टकराव से भी जोड़कर देखा जा रहा है। इसके साथ ही यह बात भी कही जा रही है कि सऊदी अरब को जिस प्रकार 2003 के बाद अलकायदा के हमलों का सामना करना पड़ा और वह भी अमेरिका द्वारा प्रेरित अरब स्प्रिंग से अछूता नहीं रहा, उन सब बातों ने उसे आतंकवाद के बारे में फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है।
 
उसके रुख में बदलाव के संदर्भ में कहा जा रहा है कि किसी सऊदी न्यायालय ने 2009 में पहली बार एक साथ 330 आतंकवादियों को सजा सुनाई। इन्हें 2003 से 2006 के दौरान सऊदी अरब में आतंकवादी हमले करने के आरोप में सजा सुनाई गई। सऊदी प्रशासन ने आतंकवाद में लिप्त लोगों को अब 20 से 30 साल की सजा देने की घोषणा की है।
 
कतर से संबंध बिगड़ने का कारण भी आतंकवाद ही माना जा रहा है। कतर, मुस्लिम ब्रदरहुड और अलकायदा व आईएसआईएस का समर्थन कर रहा है। इसराइल-गाजा संघर्ष में उसने हमास का साथ दिया था, जबकि सऊदी अरब उसका विरोध कर रहा था। सऊदी अरब ने मार्च 2014 में मुस्लिम ब्रदरहुड के लोगों को कतर से बाहर निकालने और अलजजीरा चैनल बंद करने के लिए कहा था। ऐसा न करने पर सऊदी अरब, बहरीन और यूएई ने कतर से अपने राजदूत वापस बुला लिए थे। उसने कतर की नाकेबंदी करने की भी धमकी दी है।
 
सऊदी अरब जिस तरह अलकायदा, मुस्लिम ब्रदर हुड और हमास के प्रति सख्ती दिखा रहा है और अलकायदा आतंकवादियों को दंडित कर रहा है ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि अलकायदा का झुकाव भी सऊदी अरब की बजाय कतर की तरफ हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस समय खाड़ी क्षेत्र में जिस तेजी से भू-राजनीतिक परिस्थितियां बदल रही हैं, उस स्थिति में कोई भी भविष्यवाणी करना किसी भी विश्लेषक के लिए आसान नहीं है। देखने की बात यह है कि आने वाले दिनों में ऊंट किस करवट बैठता है, इसी बात पर इस क्षेत्र की राजनीति और इसका भविष्य निर्भर करेगा। 
 

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