कश्मीरी पंडितों का सच : Kashmiri Pandit Author क्षमा कौल का 'दर्द' आया सामने (समापन कड़ी)

स्मृति आदित्य
कश्मीरी पंडितों को 500 रुपए मिलते थे, करोड़ों का घर 80 हजार में बेचना पड़ा...  
साहित्यकार क्षमा कौल से वेबदुनिया की बातचीत का दूसरा और अंतिम अंश 
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क्षमा कौल, एक साहित्यकार से ज्यादा सच्ची संवेदनशील सहज इंसान हैं, वे अपने दर्द पर पूरे प्रवाह से बात करती हैं, उसी दर्द में खो कर भावुक भी हो जाती हैं, वही दर्द उन्हें फिर तटस्थ होकर बोलने की ताकत देता है। वे सच को लिखती हैं और सच कहती हैं...उनके इस सुंदर स्वभाव और प्रखर चेतना का ही सुपरिणाम है कि उनका उपन्यास दर्दपुर और अन्य कृतियां साहित्य संसार में कश्मीरी पंडितों पर प्रामाणिक दस्तावेज हो जाती हैं। वेबदुनिया ने उनसे विस्तार से बात की, पहले अंश के बाद पढ़ें क्षमा कौल से की गई बातचीत की अगली और अंतिम कड़ी.... 
कश्मीरी पंडितों को 500 रुपए मिलते थे 
*जब हम जम्मू के कैंप में रूके थे... वहां हमारी ब्रांच नहीं थी इसलिए मुझे दिल्ली आना पड़ा दिल्ली के लाजपत नगर के कश्मीर भवन में ट्रांजिट कैंप था। जब हमने आवाज उठाई तब यह सुनिश्चित हुआ, आदेश हुआ कि जिनका कोई आर्थिक सहारा नहीं है उन्हें 500 रुपए दिए जाएंगे और उन्हें दिल्ली के कम्यूनिटी हॉल में रखा जाएगा। जिन की नौकरियां थीं उन्हें भारत के विभिन्न इलाकों में भेजा जाएगा। तब मुझे इलाहाबाद भेजा गया। दो बच्चों को लेकर मुझे वहां जाना पड़ा जबकि मेरे पति अग्निशेखर को जम्मू में एडजस्ट किया गया। हमने इस पर भी आपत्ति ली थी कि हमारे परिवार टूट रहे हैं आप अस्थायी ऑफिस बनाएं जम्मू में लेकिन हमारी नहीं सुनी गई। सरकारी नौकरी वाले कश्मीरी पंडितों को जाने कहां-कहां दूर दूर तक पोस्टिंग दी गई बाद में पता चला कि इसके पीछे भी सोच यही काम कर रही थी कि अगर कश्मीरी पंडित एक जगह रहेंगे तो एक ताकत और शक्ति के रूप में उभरेंगे। कश्मीरी पंडित कुछ कर सकते हैं। 
हमारे पास कुछ भी नहीं बचा...
*अपने उपन्यास मूर्ति भंजन में मैंने यह जिक्र किया है कि कैसे शरणार्थी शिविरों में हमारी क्या हालत हुई है। हमारे पास कुछ भी नहीं बचा....अब तक हम उस तकलीफ से बाहर नहीं आ सके हैं। (यहां क्षमा जी फिर भावुक हो जाती हैं। अवरुद्ध कंठ और डूबती उतराती आवाज से बताती हैं कि वहां से निकलने के बाद क्या और कैसे संघर्ष रहे उनके) 
सच उग्र नहीं प्रकाशमयी होता है
*लोगों को मेरा रूप उग्र लगता है पर वह उग्र नहीं है सच है और सच प्रकाशमयी होता है। सत्य अपने आप में ज्वाला लिए होता है। जो उस ज्वाला को बुझाने के लिए बैठे हैं वहीं उसे उग्र कहते हैं। सच चमकदार होता है। जिसमें उसे सहने की ताब नहीं है तो उसे वह उग्र लगता है। मैं सिर्फ अपना सच बोलती हूं, जो मैंने अपने मन पर झेला है मैं वही लिखती हूं....वही बोलती हूं...सच की ऊष्मा से ही तो आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है... 
दर्दपुर लिखना जरूरी लगा....जब कोई सुन नहीं रहा था 
*दर्दपुर को दबाने और उसे दरकिनार करने की बहुत कोशिश की गई....मुझे तो लगा था कोई इसे छापेगा नहीं लेकिन कहीं कोई ईश्वरीय शक्ति होती है जो भीतर से आपको ऊर्जस्वित करती है,निरंतर दबाव देती है....मेरे लेखन का उद्देश्य यही था कि मैं कुछ बातों को सुन सुन कर देखकर परेशान हो उठी थी... जैसे जो नरेटिव चल रहे थे... हम सरकार से अपने लिए कोई आस लगाते थे और अगले दिन एलान होता था कि अलगाववादियों को माफी दी जा रही है, उन्हें मुख्यधारा में लाया जा रहा है, उन्हें नौकरी दी जा रही है...जो लोग ट्रेनिंग लेकर कथित रूप से आतंकवाद छोड़ रहे थे उन्हें दंड नहीं दिया जा रहा था फिर से बसाया जा रहा था...अब आप बताइए कि कैसे कोई बर्दाश्त करेगा....इन खबरों से कश्मीरी या तो जड़ हो गए या फिर दूर चले जाने से अनभिज्ञ रहे, पर एक संवेदनशील लेखक या व्यक्ति कैसे सहन कर सकता है इस तरह के एप्रोच को....तब मुझे लगा कि मैं देश को सच बताऊं ऐसे तो जो नैरेटिव चल रहा है वही सेट हो जाएगा....तब मैंने दर्दपुर लिखना शुरू किया। मेरी बात कोई सुन नहीं रहा था, मेरी बात मैं किसे कहने जाती तब मुझे दर्दपुर लिखना जरूरी लगा....‍ 
 जो घट रहा है वह सच साहित्यकार लिख क्यों नहीं रहा?
*मेरा उद्देश्य यही है कि मैं हकीकत को पन्नों पर लाती रहूं और पाठक मुझे पढ़ते रहें। अगर कोई एक भी इसे पढ़ेगा तो लेखन का उद्देश्य सफल होगा, उस वक्त मैंने पाठकों को देखकर नहीं लिखा जैसे कि वामपंथी विचारधारा के लोग करते हैं पाठकों को दृष्टि में रखकर लेखन करते हैं...ये लोग अपनी सोच से पहले अपने पाठक बनाते हैं। उनके दिमाग में होता है कि हम जो सोच, विचार और आइडियोलॉजी परोसना चाहते हैं वही पाठक पढ़ें, जानें और उसी का अनुसरण करें। जमीनी सच को ये लोग बाहर नहीं आने देना चाहते हैं। हम जैसे संवेदनशील लोग ऐसा नहीं कर सकते...मैं पूछती हूं कि जो घट रहा है वह सच साहित्यकार लिख क्यों नहीं रहा? मेरी पीड़ा यही थी कि साहित्यकार कुछ कह क्यों नहीं रहा? तीखी कविताएं लिखी क्यों नहीं जा रही? आप मुझे बराबर पत्थर मारिए....पर पत्थर मारने वाले अपने आपको भी तो कटघरे में खड़ा करें। 
आतंकवादियों से ज्यादा उनके समर्थकों को है परेशानी 
*चाहे मेरी किताबें दर्दपुर, मूर्तिभंजन हो या द कश्मीर फाइल्स फिल्म...यह सत्य की 'तोप' आतंकवादियों से ज्यादा उनके समर्थकों पर चलती है, उन्हें परेशान करती हैं। 
'पोलिटिकली करेक्ट होने के बजाय सत्य पर कायम रही 
*एकाध बार किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में मैंने कह दिया था कि पूर्व में जितनी सरकारें आई है वो भारत के खिलाफ रही है। उन्होंने भारत को खत्म करने के सारे प्रपंच किए हैं, भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के प्रयास किए हैं। उस समय कुछ बड़े लेखक मेरे साथ थे पर उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया...अखबारों में मेरा वक्तव्य इसलिए नहीं छपा क्योंकि उन्हें वह असुविधाजनक लगा। मैं दोहरे स्तर की जिंदगी न जीती हूं, न ही ऐसा लिखती हूं,मेरी बातों में आपको वैसा दोगलापन नहीं मिलेगा, मैं वह नहीं कह सकती जो सबके लिए 'पोलिटिकली करेक्ट' हो। मुझे वही बोलना है जो मैंने लिखा है क्योंकि सच वही है। भारत में मुझे स्वतंत्रता का अधिकार मिला है, सच को लिखना और कहना मेरा अधिकार भी है और मेरा कर्तव्य भी...मुझे सच कहने की स्वतंत्रता है तो मैं क्यों न कहूं? मैं उन लोगों की परवाह ही नहीं करती हूं जो अपने हित-अहित सोचकर लेखन करते हैं। एक संवेदनशील लेखक होने के नाते मेरा यह दायित्व है कि जो कुछ जैसा घटा है बीता है वह वैसा ही मैं लिखूं... 
लेखन संसार में खराब अनुभव
*दर्दपुर जब छप गया तब इतना बिजनेस हुआ इस उपन्यास का कि सारे वामपंथी धाराशायी हो गए...इट वॉज बेस्ट सेलर...लेकिन क्या हुआ कि इन्हीं कारणों से निदेशक प्रभाकर श्रोत्रिय को सोच समझ कर हटाया गया..फिर दर्दपुर को डंप किया गया...मेरा लेखन संसार में यह खराब अनुभव रहा...पर एक बात बताऊं आपको कि मेरे अंदर भगवान ने ऐसी शक्ति दी है कि मैं इन सबसे बिना प्रभावित हुए लिखती रही....मैंने सोचा कि मैं अगर इन झंझटों में पड़ी तो जो दर्द मुझे अभिव्यक्त करना है अपनी लेखनी से वह नहीं कर पाऊंगी और फिर सच हमेशा आपको ताकत देता है, मेरे सच ने ही मुझ स्थापित किया है...

इस वामपंथी सोच ने बहुत नुकसान किया है देश का....वाम-तमस यानी अंधकार का इतना जोर है कि ये लोग पैसे पर भी नियंत्रण कर लेते हैं.. पहले तो ये आपको कहते हैं कि अगर आपने ऐसा लिखा, यानी सच लिखा तो नहीं चलेगा, छपने से पहले ही बाधाएं खड़ी की जाती है। छप जाए तो रॉयल्टी पर दिक्कतें दी जाती है। कुछ लॉबी के लोग मुझे नफरत से देखते हैं, नफरत क्यों कि मैंने दर्दपुर के जरिए (उनके अनुसार) नफरत फैलाई है जबकि वो मेरा देखा भोगा सच है...

सच ही चलता है, सच ही चलेगा....
*इस फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' ने यह मिथ तोड़ा है कि इस तरह की फिल्म नहीं चलती... फिल्म से पहले ऐसा माहौल बनाया गया था कि इसका तो कोई मार्केट नहीं है, यह फिल्म नहीं चलेगी...पर हुआ क्या लोगों ने इसे प्यार और पैसा दोनों दिया है..मतलब है इट शुड बी टेकन बाय द पीपल ऑफ द इंडिया....भारत माता, शारदा माता की कृपा से यह संदेश है सारे लोगों को कि सच को आने दीजिए सामने...सच ही चलता है, सच ही चलेगा...सच बोलो, सच पर कायम रहो..आज की जनता सच और कंटेंट ही चाहती है। 
सरकार अब क्या करें? 
*सरकार को सीरियसली अहंकार छोड़कर अपना एक झोन बनाना चाहिए...वहां हमारी जगह सुनिश्चित करें। 'वे' कैसे विरोध कर सकते हैं जब शासन उन पर टूट पड़ेगा तो क्या कर सकेंगे 'वे' लोग... शासन सशक्त होगा तो 'वे' लोग भी सहयोग को बाध्य होंगे। 
करोड़ों का घर 80 हजार में बेचना पड़ा... 
*‍हमने जो कश्मीर में घर छोड़ा था वह देखने मैं गई थी पर वह बिक चुका था...मेरा भाई व्यापारी था, 500 रुपए सरकार देती थी.. आज की तारीख में जो आज करोड़ों का मकान होता वह हमें मजबूरी में 80 हजार में बेचना पड़ा... बाद में भाई भी नहीं रह पाया जिंदा....वह सदमे में ही चला गया (यहां फिर क्षमा जी अपने आंसू नहीं रोक पाती हैं, भाई को याद कर वे भावविहल हो जाती हैं।)  
मेहनत रंग लाएगी..
*मैंने विवेक अग्निहोत्री जी को कहा था, आप कोई समझौता मत करना, बस विश्वास रखिए यह फिल्म चलेगी और खूब चलेगी... आपकी मेहनत रंग लाएगी..। आज मुझे लगता है मां सरस्वती की कैसी कृपा रही, जो मैंने कहा था, जो मैं सोच रही थी वह सब सच हो गया.. मैं तो विवेक अग्निहोत्री को शत-शत प्रणाम करती हूं... 
हम हिन्दू गुड बॉय सिंड्रोम से ग्रस्त हैं 
*मैंने अपनी किताब में लिखा था कि हिन्दुओं में अच्छा होने की बीमारी ने कैंसर की तरह घर कर लिया है और मुसलमान में बिगड़ा बच्चा होने की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया है। दोनों ही कैंसर लाइलाज होते जा रहे हैं और हमारे मुल्क को खा रहे हैं। आज वह साबित हो रहा है। हम हिन्दू गुड बॉय सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। 
सात्विक व्यक्ति को आप तंग करेंगे तो उसे तामसिक होना पड़ेगा
*मेरी डायरी की भूमिका ने अरूण प्रकाश ने लिखा था कि हिन्दुओं को सात्विक क्रोध का शमन करना चाहिए...मैं कहती हूं कि क्रोध तो क्रोध होता है यह सात्विक क्रोध क्या होता है? क्रोध तो अपने आप में तामसिक है। किसी सात्विक व्यक्ति के साथ भी अगर आप गलत करते हैं, क्रोध दिलाते हैं तो वह क्रोध तामसिक ही होगा। अच्छे व्यक्ति को भी आप तंग करेंगे तो उसे तामसिक होना पड़ेगा। सात्विक क्रोध कह कर हमारी बातों को कमतर मत कीजिए.... 
पैसे और प्रसिद्धि के लिए कभी नहीं लिखा
*मैंने पैसे और प्रसिद्धि के लिए कभी नहीं लिखा है मैंने सच को सामने लाने के लिए लेखन किया है। लोग जानें कि जो अखबारों में लिखा जा रहा है, जो बताया जा रहा है वह झूठ है, सच्चाई यह है...आपको बताऊं कि लेखक राहुल पंडिता ने खुद माना है कि उन्होंने 10 बार दर्दपुर को पढ़ा है..तब कहीं जाकर वे अपनी किताब लिख पाए हैं। 
 लिखती तो मैं रहूंगी... बहुत आंसू हैं हमारे
*अपने साहित्य को रचते हुए मैंने यही सोचा कि चाहे कोई मेरी जान ले लें, चाहे जेल में डाल दें मैं डरने वाली नहीं हूं, सच लिखना मैं नहीं छोड़ सकती.... लिखती तो मैं रहूंगी... बहुत आंसू हैं हमारे, बहुत हिसाब बाकी है.... बहुत पीड़ा अनकही है, बहुत कष्ट हैं हमारे भीतर....  
.धर्म मानव से है, मानव धर्म से नहीं...
*संस्कृति संस्कृति सब करते हैं लेकिन यह कोई नहीं जानते कि संस्कृति की आधारभूमि है धर्म....धर्म मानव से है, मानव धर्म से नहीं...सनातन संस्कृति को समझिए....हर धर्म का मूल तो प्रेम और सहयोग ही है फिर एक धर्म इस बात को भूल जाता है तो क्षम्य क्यों है, और दूसरा धर्म बात भी करें तो उस पर आपत्ति क्यों? ये दोहरापन ही हमारा दुश्मन है। धर्म हमारी धरती पर है इसे स्वीकारिए...और फिर मानिए कि धरती ही हमारा पहला धर्म है। हमारी संस्कृति का हमें ही बोध नहीं हैं। मैं यह बताना चाहूंगी कि मेरे बेटे और बेटी दोनों ही अपनी संस्कृति और संस्कार को समझते हैं। क्योंकि वह उसी माहौल में पले और बड़े हुए हैं। 
भारत की स्त्रियों की चेतना में भारत' क्यों नहीं है? 
*कश्मीरी मुसलमान स्त्रियां भी ज्यादातर अपने मजहब की सहयोगी है। वह फैसले लेने की स्थिति में नहीं है। उसमें यह बात बैठा दी गई है कि हम सबसे स्पेशल हैं। शेष भारत में स्त्रियों पर काम तेज होना चाहिए....जिनमें चेतना है जिनमें समझ है, उन्हें पीछे मत धकेलिए। भारत की सामान्य स्त्रियों की चेतना में भारत कहीं नहीं है, भारत की समस्याएं कहीं नहीं हैं उस पर काम होना चाहिए...वह वही लिखती है जो रिश्तों के इर्द गिर्द होता है या फिर उनके अपने मुद्दे होते हैं, राष्ट्र उनकी चेतना में लाया जाए इसके प्रयास होने चाहिए....स्त्री शक्ति का बड़ा पूंज है जिसे देश, राजनीति और भारतीय समाज की बड़ी बातों से अलग कर दिया गया है।

जो हैं मुख्य रूप से वे बहुत कम स्त्रियां हैं लेकिन आम स्त्री में वह प्रचंडता नहीं है, वह तेज नहीं है कि सामने आकर बोल सके। मुझे लगता है भारत की हर बात में भारतीय स्त्री की बात शामिल होना चाहिए और भारतीय स्त्री को भी अपनी सोच में भारत की चिंताएं लानी चाहिए। ( समाप्त) 

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