मोदी-शाह की कामयाब जोड़ी का सफर जारी रहेगा

शनिवार, 11 मार्च 2017 (11:57 IST)
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह अब एक बार फिर गले मिलकर और सीना तानकर दुनिया से फिर आंख मिला सकते हैं। दिल्ली और बिहार की हार और उसके बाद नोटबंदी के प्रहार ने दोनों पर कई प्रश्नचिन्ह लगाए था। इसका उत्तर केवल उत्तरप्रदेश ही दे सकता था। उत्तर प्रदेश की जीत और हार पर ही सबकुछ दाँव पर था। दाँव पक्ष में पड़ा। दिल्ली-बिहार का दर्द कम हुआ और नोटबंदी पर मुहर लगी। अब ये जोड़ी अधिक दमखम से भाजपा और देश पर हुकूमत करेगी। 
 
पहली तो, मोदी का प्रधानमंत्री बनना उनकी उन बौद्धिक कोशिशों की भयानक हार है, जिनसे वो मोदी को देश में अस्वीकार्य साबित करने का वर्षों प्रयास करते रहे। दूसरी वजह यह कि कुछ नेहरूवादी बुद्धिजीवियों को यह कभी मंजूर नहीं था कि इस लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक तरीके से नीचे से ऊपर उठा एक मामूली परिवार से आने वाला संगठन का मामूली कार्यकर्ता उस पद पर बैठे, जिस पर नेहरू और नेहरू सल्तनत के वारिस बैठते रहे हैं। वरना एक राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री को अमेरिका वीजा न दे इसके लिए चिट्ठी-पत्री की अथक मेहनत भला कोई क्यों करता? महज मोदी को अपमानित करने के लिए देश के एक समृद्ध राज्य के मुख्यमंत्री को विदेशों में अपमानित करने तक की सीमा तक भला ये सो-काल्ड बुद्धिजीवी चले गए।
 
अपनी धारणाओं और कोशिशों से संघ को हत्यारा साबित करने की हर नाकाम कोशिश में लगे लोगों को भला ये कैसे मंजूर हो जाता कि संघ का एक प्रचारक इस देश का प्रधानमंत्री बन जाए? लेकिन अब इतिहास में की गईं वे कोशिशें दफन हो चुकी हैं और भारत के इतिहास में वह पन्ना लिखा जा चुका है कि नरेंद्र मोदी भारतीय लोकतंत्र में पूर्ण बहुमत से जीत कर आने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हैं। अब इस तथ्य तो झुठलाया नहीं जा सकता, लिहाजा इतिहास के हाथों शिकस्त खाए कुछ लोगों का डिप्रेशन स्वाभाविक है। यही स्थिति अमित शाह के साथ भी रही है और आज वह भी पार्टी के शीर्ष पर हैं।
 
नरेंद्र मोदी और अमित शाह से नफरत करने वालों की वजहें हैं लेकिन तमाम ऐसी भी बातें हैं जो एक लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्रप्रिय नागरिक होने के नाते आपको पसंद आएंगी। आप ऐसी इच्छा रखेंगे कि आपका हर प्रधानमंत्री इसी तरीके से चुनकर आए और देश का नेतृत्व करे। पीएम मोदी और अमित शाह दोनों वर्तमान में शीर्ष पदों पर हैं। मोदी सरकार के प्रमुख हैं तो अमित शाह भाजपा संगठन के प्रमुख हैं। मोदी भी एक आम कार्यकर्ता के रूप में संगठन से जुड़े और अमित शाह भी आम कार्यकर्ता के तौर पर संगठन से जुड़े। आज के दौर में जब बेटा-बेटी, बहू, भतीजा-भांजा सबको राजनीति में उतारने का शगल लगभग हर राजनीतिक दल में है, ऐसे में मोदी और अमित शाह में एक साम्य यह भी है कि दोनों की न तो कोई राजनीतिक विरासत है और न ही दूर-दूर तक दोनों के परिवार से कोई राजनीति में सक्रिय है। 
 
परिवारवाद के विरोध की ऐसी आदर्श स्थिति तलाशना वर्तमान राजनीति में बेहद मुश्किल है। मोदी और अमित शाह को आप इसलिए भी पसंद कर सकते हैं कि दोनों को यह शीर्ष पद किसी विरासत, उपहार और कृपा में नहीं मिला है बल्कि भाजपा जैसी विशाल पार्टी में अपने कार्यों और परिश्रम से मिला है। मोदी लगभग दो दशकों तक सरकार चलाने का अनुभव रखते हैं तो लगभग डेढ़ दशकों से ज्यादा संगठन में कार्यकर्ता से पदाधिकारी तक की समझ रखते हैं। अमित शाह कार्यकर्ता से विधायक, फिर राज्य के मंत्री, फिर पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव की दलीय लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से होते हुए संगठन प्रमुख के पद तक पहुंचे हैं। 
 
राजनीतिक कुचक्रों की अगर बात करें तो मोदी पर भी निजी हमले बहुत हुए हैं और शाह के लिए भी मीडिया में एक नकारात्मक धारणा तैयार करने की हर संभव कोशिश हुई है। लेकिन तमाम प्रायोजित कोशिशों एवं केंद्र में प्रतिकूल सरकार होने के बावजूद दोनों ही अदालती ट्रायल से बेदाग़ निकले हैं और उनके खिलाफ एक भी आरोप टिक नहीं पाया है। उन तमाम आरोपों को अदालत ने तो पहले ही खारिज किया था, और 2014 में तो देश की आम जनता ने भी सिरे से नकार दिया। इस लिहाज से भी मोदी और शाह में समानता है कि मोदी बेहद मेहनती प्रधानमंत्री के रूप में गिने जाते हैं और शाह ने भी संगठन कार्य में अपने परिश्रम का लोहा मनवा चुके हैं। 
 
मोदी को भी अनुशासन पसंद है और शाह भी अनुशासित प्रणाली के समर्थक हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के प्रमुख होने के नाते संवैधानिक तौर पर सर्वाधिक अधिकार मोदी को प्राप्त हैं तो वहीँ पार्टी का मुखिया चुने जाने के नाते पार्टी संबंधी सर्वाधिक अधिकार शाह को प्राप्त हैं। दोनों ही अपने अधिकारों को अनुशासित ढंग से लागू करने और पूरी पारदर्शिता से उसे संचालित करने के पक्षधर हैं। एकतरफ मोदी, सरकार की योजनाओं को विविध माध्यमों से जन-जन तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक किये नजर आते हैं तो वहीँ शाह पार्टी को ग्यारह करोड़ सदस्यता के साथ दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बना चुके हैं।
 
शाह और मोदी की जुगलबंदी से कुछ तथाकथित लोगों के डिप्रेशन में जाने की उनकी अपनी वजहें हैं और इन्हें पसंद करने की अपनी वजहें हैं। जिस देश में परिवारवाद, वंशवाद, निजी हित के लिए पद का दुरुपयोग जैसी परम्पराएं आम हैं वहां अगर मोदी और शाह की जुगलबंदी इन आक्षेपों से परे है तो भला एक आम नागरिक को क्यों ऐसा नेता नहीं चाहिए ? 
 

वेबदुनिया पर पढ़ें