उर्दू के रस्मुलख़त को लेकर एक बहस बरसों से जारी है। कुछ अदबी शख़्सियतों ने ज़ोर देकर कहा है कि उर्दू अब देवनागरी में लिखी जाना चाहिए। इसके इन्होंने कई फ़ायदे भी बताए। लेकिन इस राय की सख़्त मुख़ालिफ़त हुई और कहा गया कि इस तरह तो उर्दू बाक़ी ही नहीं रहेगी। उर्दू की सलामती और बक़ा के लिए ज़रूरी है कि उसका रस्मुलख़त वही रहे जो आज है।
गुज़िश्ता कुछ सालों से ऐसे दर्जनों नाम सामने आ रहे हैं जिन्हें उर्दू रस्मुलख़त की वाक़फ़ियत नहीं लेकिन वो अदब में अपना मक़ाम बनाने में कामयाब होते नज़र आ रहे हैं। कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं, इन्दौर में ही ऐसे कई शायर मिल जाएँगे जिन्हें उर्दू रस्मुलख़त की जानकारी नहीं जैसे इसहाक़ असर, एम.ए.बहादुर-फ़रियाद, दरपन इन्दौरी वग़ैरा लेकिन मुशायरों और नशिस्तों में इनकी मुसलसल शिरकत ये सोचने पर मजबूर कर रही है कि क्या मौजूदा रस्मुलख़त की जानकारी न होने से इन्हें अपनी तरक़्क़ी में कुछ रुकावटें महसूस हो रही हैं या नहीं?
ख़ैर! हमें इस बहस में नहीं पड़ना है। हमें तो इन नए लिखने वालों का ख़ैरमक़दम करना है। इनकी तरक़्क़ी में इनकी कोशिशों के साथ इनके उस्तादों की कोशिशों का भी बड़ा हाथ है। उर्दू शायरी में रदीफ़, क़ाफ़िया, बहर, वज़्न की समझ बहुत ज़रूरी होती है। इसलिए नए लिखने वालों को उस्तादों का सहारा लेने में कोई बुराई नहीं। जैसे- जैसे इनका तजरुबा, इनका मुतालेआ बढ़ता जाएगा इन्हें शायरी की इन बारीकियों की समझ भी आती जाएगी। दाग़ ने ठीक ही कहा है 'के आती है उर्दू ज़ुबाँ आते आते'।
चंचल ने भी इस हक़ीक़त को तसलीम किया है, अपने एक शे'र में कहते हैं -
ग़ज़ल कहना नहीं आसान चंचल ग़ज़ल में नाज़-बरदारी बहुत है।
दिनेश चंचल जैसे नए लिखने वालों से उर्दू का दायरा वसीअ होगा, नए रुजहानात, और नई-नई बातें अदब में शामिल होंगी। यहाँ इस किताब 'इज़हार' में भी उनका रोशन मुस्तक़बिल साफ़ दिखाई दे रहा है।
* है धूप सर पे फिर भी यहाँ सो रहे हैं लोग चंचल नज़र में आपकी बेदार कौन है
* चल के चंचल तू भी कोई काम कर ज़िन्दगी कटती नहीं ख़ैरात से
* छलावे की महामारी बहुत है रफ़ीक़ों में ये बीमारी बहुत है
इसी तरह के कई अच्छे शे'र आपने कहे हैं जिन्हें पढ़कर ये फ़ैसला करना आसान हो जाता है के आप जो कुछ देखते हैं उस सच्चाई को अपने अंदाज़ में पेश कर देते हैं। मुआशरे की छोटी छोटी बुराइयों का भी आपके दिल-ओ-दिमाग़ पर गहरा असर पड़ता है जो अशआर की शक्ल में हम सबके सामने आ जाता है।
* हुआ क्या इस सदी के आदमी को जिसे देखो ख़ुदाई कर रहा है
* अब जहाँगीर का दरबार कहाँ है लेकिन आप कहते हैं तो ज़ंजीर हिला देते हैं
दिनेश चंचल का नाम चंचल ज़रूर है लेकिन आपकी शायरी का ज़्यादातर हिस्सा संजीदा है। इसका ऎतराफ़ भी चंचल ने ख़ुद अपने इस मक़ते में किया है।
* सुख़नवरी में हो संजीदगी के तुम दरपन क्यों अपने आप को चंचल बना के रक्खा है
मगर शायर तो फिर शायर होता है। चाहे जितना तंगदस्त हो अपने दिल के किसी कोने में प्यार-मोहब्बत के लिए थोड़ी सी जगह ज़रूर रखता है।
* मोती जड़े हुए हैं यूँ उनकी बालियों में जैसे दिए रखे हों पूजा की थालियों में
साहित्य संगम इन्दौर ने 'इज़हार' को शाए करके इक और अच्छा काम किया है। 64 सफ़्हों की इस किताब में 57 ग़ज़लें और 1 नात शरीफ़ है। इस किताब की क़ीमत सिर्फ़ 50/रु. है। उर्दू-हिन्दी के जानकार और शायरी के शौक़ीन हज़रात को इसे ख़रीद कर पढ़ना बेहतर होगा।