एक बेहद सादा मिज़ाज शख्स... एक अलमस्त तबीयत इंसान.. एक मुफ़लिस शायर और उर्दू को एक नई रवायत देने वाले मीर तक़ी मीर को आज ज़माने में भले ही ज्यादा लोग ना जानते हों, पर अदीब मानते हैं कि मीर का मियार कोई हासिल नहीं कर सकता।
19 सितंबर 1810 को दुनिया से रुख़सत लेने वाले मीर के बारे में मक़बूल शायर और फिल्म गीतकार निदा फ़ाज़ली कहते हैं कि मीर को मुआशिरा के लोगों ने नज़रअंदाज किया। फाज़ली ने कहा, ‘लोगों को उनके मज़ार तक की भी इत्तेला नहीं है। कुछ लोग बताते हैं कि लखनऊ स्टेशन के नज़दीक रेलवे लाइन के आसपास कहीं उनकी मज़ार है।’
उनका कहना है कि मीर की शायरी में न तो सियासत झलकती है और न ही मज़हबी कट्टरवाद। फाज़ली कहते हैं कि अगर आज के दौर में मीर जिंदा होते तो उनकी शायरी के लिए उन पर फतवे लगा दिए जाते और मुल्लाइयत उन्हें बर्दाश्त नहीं करती।
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मौत के बारे में मीर ने फरमाया : ‘मौत इदमानगी का वकफा है, यानी आगे चलेंगे दम लेकर।’ मौत के बाद भी आगे चलने का इशारा करता उनका यह शेर इस्लामी सिद्धांतों के बिल्कुल परे है और इसमें वेदांत को शामिल किया गया है। उनकी शायरी के इस अंदाज़ का दाग़ और ग़ालिब जैसे दिग्गज शायरों पर भी ख़ासा असर रहा।
मीर की पैदाइश 1722 में अकबराबाद (आगरा) में हुई। परिवार ग़रीब था और मशक्कत से जो भी सामान इकट्ठा होता था, वह जंग ओ जदाल के दौरान लूट जाया करता था। अपनी आप बीती ‘जिक्र ए मीर’ में मीर लिखते हैं कि मुफलिसी के दौर में वह आगरा से दिल्ली आए और एक रिश्तेदार के घर पनाह ली।
दिल्ली में ही मीर को ज़ुबां ओ अदब सीखने का भी मौक़ा मिला। अच्छे शायरों की सोहबत में उनका शायरी का ज़ौक़ परवान चढ़ा। मीर के घर की हालत बद से बदतर होती जा रही थी लेकिन शेर ओ अदब का ख़ज़ाना रोज़ ब रोज़ बढ़ता जा रहा था। अपनी शायरी के हुनर से रफ्ता रफ्ता मीर ने वह मुक़ाम हासिल कर लिया कि ग़ालिब जैसे शायर को भी कहना पड़ा, ‘रेखती के तुम ही उस्ताद नहीं हो गा़लिब, कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।’
वहीं ज़ौक़ जैसे शायर ने भी उनकी शायरी और उनके अंदाज़ की शान में कहा, ‘न हुआ पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब जौक यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।’
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मौजूदा दौर के प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा ने कहा मीर एक समंदर है, जो पढ़ता है डूबता ही चला जाता है.. मीर एक फ़क़ीर है जिसकी दुआओं से उर्दू फल-फूल रही है। उन्होंने कहा कि मीर के साथ न उस दौर के बादशाहों ने इंसाफ किया और न ही बाद की हुकूमतों को उनकी याद आई।
मुनव्वर बताते हैं कि आज भी मीर के मज़ार के आस-पास लोग अपने कपड़े धोने जाया करते हैं। उनके मज़ार को इस काबिल न रखा गया कि लोग वहां सलाम करने जाएं। (भाषा)