किताबों के मेले में

पिछले दिनों एक पुस्तक प्रदर्शनी में जाना हुआ। पुस्तक प्रदर्शनी से सटे मैदान में एक हस्तशिल्प प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। ये दोनों आयोजन एक-दूसरे को सहारा देते से लग रहे थे, जैसे दो अल्पमत पार्टियाँ मिलकर साझा सरकार बनाने की जुगत भिड़ा रही हों, मगर बना न पा रही हों। इन्हें देखकर मालूम हुआ कि एक ही समय, एक ही जगह दोनों प्रदर्शनियों का लगना केवल इत्तफाक नहीं था बल्कि आयोजकों की एक सोची- समझी रणनीति थी।

एक तरफ जहाँ पुस्तक प्रदर्शनी से मायूस दर्शकों के लिए हस्तशिल्प मेला एक उम्मीद था, वहीं हस्तशिल्प मेले में ठुकराए हुए बंदे पुस्तक प्रदर्शनी में शरण ढूँढ सकते थे। यही वजह थी कि दोनों की अलग-अलग सरजमीं की तुलना में पुस्तक प्रदर्शनी और हस्तशिल्प मेले के बीच की "नौ मैंस लैंड" कहीं ज्यादा आबाद नजर आती थी।

"मस्जिद से मयखाने तक मिलते हैं नक्शे-पा
या रिंद गया होगा, ये शेख गया होगा।"

प्रदर्शनी को राष्ट्रीय क्यों कहा गया था, यह एक रहस्य था जिसे आयोजक ही बेपर्दा कर सकते थे। हो सकता हो इसके पीछे राष्ट्रप्रेम का जोर मारना हो या फिर इश्तेहार जगत की ठगिनी विद्या। अलबत्ता भारत जैसे अति विशाल और जगत-गुरु कहलाने वाले देश की अस्मिता के साथ यह खिलवाड़ करने जैसा ही था। दस दिनी अवधि के करीब आधी बीत जाने पर भी पुस्तक प्रदर्शनी का मंजर बेहद रोमांचक बना हुआ था। कुछ स्टॉलों पर किताबों के कार्टून बँधे पड़े था।

कहना मुश्किल था कि इन्हें अभी खोला नहीं गया था या फिर ये वापसी के सफर पर लदने को तैयार बैठे थे। यही नहीं, कोई-कोई खोली तो एकदम खाली पड़ी थी। एक स्टॉल ऐसा भी था जिसमें सिर्फ तीन-चार नक्शे टाँगे गए थे, फिर भी दो-तीन शख्स वहाँ सुबह से न जाने किस प्रकार का धंधा करने को बैठे हुए थे। ज्यादातर स्टॉलों पर इक्के-दुक्के ग्राहक यूँ खड़े नजर आते थे, जैसे जेठ की भरी दुपहरी में किसी सब्जी के ठेले पर जल्दी-जल्दी सब्जियाँ छाँटतीं गृहिणियाँ। कहना न होगा, जिस ठाठ से हमने ये जुड़वाँ प्रदर्शनियाँ देखीं, उस ठाठ से किसी फिल्म का विशेष शो भी भला सेंसर बोर्ड अथवा बाल ठाकरे परिवार के सदस्य क्या देखते होंगे!

शब्दकोश, सचित्र विश्वकोश, थिसेरस, बच्चों की ड्राइंग-पेंटिंग, फेंगशुई, बोंसाई, वास्तु और सेल्फ-हेल्प जैसे ग्रंथों को छोड़ दिया जाए तो प्रदर्शनी कमोबेश पुरानी, अविक्रित पुस्तकों की सालाना स्टॉक क्लीयरिंग सेल नजर आ रही थी। बाज स्टॉल पर तो बरसाती पानी के धूसर धब्बों से सजी पुस्तकों की कतार-दर-कतार इस हद तक खस्ताहाल थीं कि शायद पन्ने पलटने का जोखिम भी नहीं झेल पातीं। वे किसी गलती की वजह से यहाँ थीं, जबकि उन्हें उनके सही स्थान यानी राष्ट्रीय संग्रहालय में होना चाहिए था।

हैरत की बात थी कि यह जानते हुए भी कि यही पुस्तकें रद्दी की दुकान पर आधे दामों में आसानी से मिल जाएँगी, काउंटर पर बैठे हजरतों को दिनभर ऊँघना तो मंजूर था मगर दस परसेंट के ऊपर एक पैसा भी छोड़ना मंजूर नहीं था! लिहाजा कुछ चुनिंदा पुस्तकें हाथों तक जरूर पहुँच रही थीं, मगर उनमें से कोई भी ऐसी नहीं थीं, जो दिलों तक उतर सकतीं।

खासी जद्दोजहद के बाद प्रदर्शनी के मान की खातिर दस फीसद छूट पर पचपन रुपए में खरीदी गई इकलौती किताब हमें दरुपए के टिकट, बीस रुपए की पार्किंग और बोरियत भगाने के एवज में खाई तीस रुपए की भेल समेत कुल एक सौ पंद्रह रुपए में पड़ी।

वेबदुनिया पर पढ़ें