डॉ. हेमा काबरा लड्ढा : एक खिलाड़ी की सफलता का रोमांचक सफर

डॉ. हेमा काबरा लड्ढा


खो-खो खेल से बेपनाह मोहब्बत और एथलेटिक से जबर्दस्त इश्क की दास्तां...
 
विक्रम अवॉर्ड व रानी झांसी अवॉर्ड से सम्मानित रिकॉर्ड मेकर डॉ. हेमा काबरा लड्ढा
 
मस्तीभरे मन की भोली-सी आशा...
 
बात 1972 की है। खेल के मैदान में एक 11 वर्ष की नन्ही-सी गुड़िया अपनी बड़ी बहनों के साथ कौतूहल से सब गतिविधियों को आंखें फाड़-फाड़कर देख रही है। ऐसा नहीं था कि उसके लिए यह सब नया था। उसकी बहनें खेला करतीं थीं, सो जानती तो थी पर जिज्ञासा और नया जानने की ललक उसे चकित किए जा रही थी।
 
अमेच्योर एथलीट मीट 600 मीटर की दौड़ चल रही थी। अचानक से बहन ने पूछा कि तू दौड़ेगी? भाग लेगी प्रतियोगिता में? तुरंत जवाब तो 'हां' में दिया, पर बोली पर मुझे कुछ आता नहीं। कभी ऐसे प्रतियोगिता में तो दौड़ी नहीं। बहन ने उस प्रतियोगिता में भाग लेने वाली एक लड़की की ओर इशारा करके कहा कि कोई बात नहीं। उसके पीछे-पीछे दौड़ती चले जाना।
 
बस उसने वैसा ही किया और वो तीसरे नंबर से जीती। पहली प्रतियोगिता, पहली जीत। और जानते हैं वो लड़की कौन थी जिसके पीछे-पीछे वो दौड़ी थी। इंदौर शहर की जानी-मानी सितारा खिलाड़ी सुषमा सरोलकर। इस 11 वर्षीय बच्ची का तब से खेल के मैदान से जो नाता जुड़ा, वो आज तक पूरी मोहब्बत और समर्पण के साथ कायम है।
 
और यह जो बच्ची थी न जिसकी मैं बात कर रही हूं, वो हैं हेमा दी यानी आज की डॉ. हेमा काबरा लड्ढा, जो हमारे ही कॉलेज श्री क्लॉथ मार्केट कन्या वाणिज्य महाविद्यालय में सीनियर स्पोर्ट्स ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं। 'मौका' जितना छोटा शब्द है, उतनी ही देर के लिए आता है। आने की दस्तक तो दूर जाते हुए दरवाजा भी नहीं खटखटाता है। जो उसके आने पर पहचानकर स्वागत कर दे, वो उसी का होकर रह जाता है।
 
ऐसा ही हुआ हेमा दी के साथ। इंदौर के मल्हारगंज क्षेत्र के धानमंडी गली में अपने माता-पिता और 6 भाई-बहनों के साथ रहा करती थीं। ये सबसे छोटी थीं। पिताजी अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी थे। होलकर टीम से क्रिकेट खेलना उनका सपना था। दोनों बहनें भी खेलने की शौकीन थीं।
 
कहते हैं न मन को समझने वाली मां और भविष्य पहचानने वाले पिता यही दोनों इस दुनिया के एकमात्र ज्योतिषी हैं। भाग्य की धनी हेमा दी ने यही दोनों पाए। पारिवारिक परेशानियों के चलते पिताजी को मिल में नौकरी करनी पड़ी। जिम्मेदारियों के कारण उनको खेलना छोड़ना पड़ा। वे चाहते थे कि बच्चे उनके खेल में नाम रोशन करने के सपने को पूरा करें।
 
छोटी-सी हेमा दी ने तय कर लिया कि बस अब पिताजी के सपने को साकार करना है और कौन कहता है कि 'ख्वाहिशों के आसमान में पहरे होते हैं, कर तकाजा अपने परों का और नाप ले पूरे जहां को।'
 
बस फिर क्या? कड़ी मेहनत, पक्का इरादा, सही लक्ष्य को अपनी जिंदगी बनाया। वे जानती थीं कि केवल सोचने से कहां मिलते हैं तमन्नाओं के शहर? चलने की जिद भी जरूरी है मंजिल पाने के लिए। और शुरू हुआ पढ़ाई के साथ-साथ खेल का सफर।
 
मैं बहुत छोटी थी तब से इन्हें जानती हूं। ये मेरी बड़ी बहनों के साथ पढ़ती थीं। तब यह हेमलता काबरा हमारे शारदा स्कूल की पहचान हुआ करती थीं। हर खो-खो खेलने और दौड़ने में भाग लेने वाली लड़की के लिए आदर्श। मेरिट होल्डर, गोल्ड मेडलिस्ट रहीं हेमा दी सभी टीचर्स की बेहद चहेती भी रहीं, क्योंकि यह पढ़ाई में भी उतनी ही अच्छी रही हैं जितनी खेल में।
 
कभी भी पढ़ाई की आड़ में खेल को और खेल की आड़ में पढ़ाई को आने नहीं दिया। उनकी यह आदत आज भी जस की तस कायम है। वे सुबह 4 बजे उठकर लगभग रोज साइकल से खेल के मैदान के लिए निकल जातीं। उस जमाने में साइकल चलाना लड़कियों के लिए 'बोल्ड स्टेप' हुआ करता था।
 
मेरी स्मृतियों में आज भी वे चश्मीश, दो चोटियों वाली, चोटियां जो कभी छोटी व कभी लंबी हो जाया करती, सादगी से रहने वाली, अपने में मस्त हैं। बचपन के उन खूबसूरत लम्हों में जो गुजर जाते हैं मुसाफिरों की तरह, पर यादें वहीं खड़ी रह जाती हैं रुके रास्तों की तरह।
 
तो हाथों में हर बार एक नया पुरस्कार लिए, चैंपियनशिप ट्रॉफी लिए, इनामी सिल्वर कप उठाए, मेडल पहने हेमा दी आज भी गुलजार हैं। उपलब्ध सीमित साधनों में (जो भी उस समय के बच्चों को उपलब्ध हुआ करता था) उपलब्धियों से अपना खजाना भरने वाली आदर्श बेटी और विद्यार्थी रहीं।
 
बंदिशों से कब रुकी हैं कश्तियां अरमानों की। बेपनाह-सा कुछ भी हो परवान तो चढ़ता ही है। हेमा दी का भी खेलों के साथ ऐसा ही हुआ। उस दौड़ के वाकये के दौरान उन पर नजर पड़ी मधुकर पत्की साहब की। हीरे की पहचान जौहरी को ही होती है। चमक तो थी ही तराशने का कम बाकी था, सो अगले ही दिन से वो भी शुरू हो गया।
 
सफलता के लिए और क्या चाहिए? सच्चा मार्गदर्शक पिता के रूप में, बेहद प्यार करने वाली मां, उस्ताद गुरु विनायक तारे, प्रभाकर कुलकर्णी, मधुकर पत्की, जो आपकी कमजोरियों को भी ताकत में बदल दे। साथ ही परिवार और साथियों का प्यार व दुआएं।
 
हेमा दी इन सभी मामलों में भाग्य सोने की कलम से लिखाकर लाईं और कुछ उनका व्यवहार सबका दिल जीत लेता। यहां तक कि मिडिल स्कूल की प्रिंसिपल मैडम उन्हें अपने पास से खेलने जाते वक्त रु. 80/- अपने पास से देती थीं, जो उस समय अच्छी-खासी रकम हुआ करती थी। हेमा दी आज भी उन्हें याद करती हैं।
 
कई सारे सेमिनार और कॉन्फ्रेंस के साथ वे कई कमेटियों में सदस्य के रूप में, कोच के रूप में, रैफरी के रूप में, सिलेक्शन कमेटी में, ऑर्गेनाइजिंग कमेटी मेंबर, टीम मैनेजर व प्ले इंडिया प्ले, इंडियन फेडरेशन ऑफ कम्प्यूटर साइंस इन स्पोर्ट्स की आजीवन सदस्य हैं।
 
यह खेल सितारा खेलने के साथ-साथ संगीत का शौकीन है। खूबसूरत मधुर भजनों को गाने के साथ पुराने गीतों को पसंद करती हैं। मैंने तो इन्हें घूमरदार गरबा भी करते देखा है। पढ़ाई, खेल संगीत, नृत्य, घर-परिवार, नौकरी सभी में अनुशासित तरीके से तालमेल करती हुईं सुंदर मोती जैसे अक्षर लिखने वाली हेमा दी 2 बेटियों की मां और नानी भी हैं।
 
उनकी उपलब्धियों से खेल जगत के नक़्शे में इंदौर की शान को बढ़ावा मिला। 1978 में रानी झांसी अवॉर्ड, 1979 में विक्रम अवॉर्ड जैसे राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, कई दफा इंडियन खो-खो टीम का नेतृत्व कर चुकीं, सीनियर नेशनल चैंपियनशिप, नेशनल वीमेन फेस्टिवल में शिरकत करने वालीं, स्पोर्ट्स टैलेंट स्कॉलरशिप पाने वालीं, नेशनल सीनियर-जूनियर चैंपियनशिप, ऑल इंडिया इंटर-यूनिवर्सिटी खो-खो और एथलेटिक्स चैंपियनशिप जीतने वालीं हेमा दी के खो-खो में बनाए हुए रेकॉर्ड को आज तक कोई तोड़ नहीं पाया।
 
सन् 1989 से वे श्री क्लॉथ मार्केट कन्या वाणिज्य महाविद्यालय में स्पोर्ट्स ऑफिसर हैं। अपनी सारी उपलब्धियां वे अपने माता-पिता, समस्त गुरुजन, क्लब हैप्पी वांडरर्स के श्रीचरणों में अर्पित करते हुए अर्जित करने का श्रेय भी उन्हें ही देती हैं। यही एक सच्चे खिलाड़ी की पहचान भी है। 
 
मेरे इस किस्से को पढ़कर कई तुच्छ बुद्धि वाले लोगों को आश्चर्य होगा और कई तो कई सारे मतलब और अर्थ भी निकालेंगे। कारण कि लंबे अरसे तक हम लोगों के बीच मतभेद रहे हैं। पर ऐसे स्वार्थी और मौकापरस्त लोग मतभेद और मनभेद के अंतर को कभी समझ ही नहीं सकते, क्योंकि बात जब भी गुणवत्ता और दमदार किरदार की रही हो, हमने हमेशा एक-दूसरे का मान किया।
 
शायद इसका एक बहुत बड़ा कारण बचपन का एक ही स्कूल और पुरानी पहचान से पनपा एक-दूसरे के प्रति अनुराग भी रहा। 'जिज्जी' के रूप में उन्होंने हमेशा हमारे प्रति स्नेह बनाए रखा और हमें उनकी उपलब्धियों पर हमेशा फख्र रहा। एक ही इलाके से हमारा होना, एक ही स्कूल से पढ़कर निकलना, एक ही जगह काम करने का मौका मिलना यह तो दुर्लभ योग ही है।
 
आत्मीयता की जड़ में हमारा दोनों का शारदीयंस होना भी है। 50 प्लस के इस मुकाम पे हम अपनी जिंदगी के गुजरे उन पलों को स्वर्णिम रूप दे जाएं जिन्हें हमने करीब से जिया। खासकर उन विशिष्ट व्यक्तित्वों के साथ गुजरे समय को, जो बेहद खास होने के बाद भी हमेशा आम इंसान बनकर रहे।
 
ऐसा जीवन जीने का हुनर भी मालिक किसी-किसी को ही नवाजता है, जो हेमा दी ने पाया। उनके मार्गदर्शन में कई सितारा चैंपियन, शानदार खिलाड़ी, विजेताओं की लंबी फेहरिस्त से खेल जगत चमचमा रहा है। सन् 1972 से शुरू हुआ हेमा दी का खेल से बेपनाह मुहब्बत का यह सफर तब से लेकर आज तक उसी खुमारी से जिंदा है और जीवनपर्यंत अपनी सेवाओं से खेल के मैदान से पाए प्यार के कर्ज को चुकाने के लिए कृत-संकल्पित भी।
 
वाकई 'हेमा दी' खेल जगत की अनमोल निधि है...! बेमिसाल शख्सियत भी...!!

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