महिला दिवस 2014 को मनाए जाने के पूर्व वेबदुनिया टीम ने हर आम और खास महिला से भारत में नारी सुरक्षा को लेकर कुछ सवाल किए। हमें मेल द्वारा इन सवालों के सैकड़ों की संख्या में जवाब मिल रहे हैं। हमारी कोशिश है कि अधिकांश विचारों को स्थान मिल सके। प्रस्तुत हैं वेबदुनिया के सवाल और उन पर मिली मिश्रित प्रतिक्रियाएं.... • भारत को महिलाओं के लिए सुरक्षित कैसे बनाया जाए? * भारतीय महिलाओं का सही मायनों में सशक्तिकरण आप किसे मानते हैं? -आर्थिक स्वतंत्रता -दैहिक स्वतंत्रता -निर्णय लेने की स्वतंत्रता * घरेलू हिंसा के लिए मुख्य रूप से महिलाओं की खामोशी या सहनशक्ति जिम्मेदार है, क्या आप इससे सहमत हैं? * बॉलीवुड की बालाओं का भारत की ग्रामीण बालिकाओं पर नकारात्मक असर पड़ता है? * क्या स्त्री आज भी महज देह ही मानी जाती है, इंसान नहीं? * महिला सुरक्षा के लिए खुद महिला को ही सक्षम होना होगा या सामाजिक स्तर पर सोच में बदलाव लाया जा सकता है? * क्या बदलते दौर में आने वाली पीढ़ी के मन में महिलाओं के प्रति सम्मान संभव नहीं है? * बलात्कार जैसी घटनाएं रोक पाना संभव है? अगर हां तो कैसे, और नहीं तो क्यों? * बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं और क्यों? * मासूम बच्चियों के साथ बढ़ती बलात्कार की वारदातों के पीछे आखिर कौन सी विकृति होती है?
लेखिका किसलय पंचोली के विचार :
WD
भारतीय महिलाओं का सही मायनों में सशक्तिकरण आर्थिक, दैहिक, मानसिक (निर्णय लेने की स्वतंत्रता) स्वतंत्रता के साथ आत्मिक स्वतंत्रता से भी सीधे सम्बद्ध है क्योंकि इन्ही सब स्तरों पर उसे समाज द्वारा स्वतंत्र इन्सान का दर्जा दिए जाने में पिछली कुछ सदियों से जाने अनजाने इतनी कोताही की जाती रही है कि आम भारतीय महिला के जेहन में यह बात आती ही नहीं कि उपरोक्त स्वतंत्रताएं उसके भारतीय नागरिक होने के अधिकार क्षेत्र में आती हैं।
अधिकांश महिलाओं की बचपन से परवरिश ही इस तरह की जाती है कि उन्हें घरेलू सामंजस्य या रीति रिवाज/परिपाटी के नाम पर जिंदगी भर बस सहन करते रहना है। इस जन्म घुट्टी के साथ पली बढ़ी महिलाएं घरेलू हिंसा को भी अपनी नियति मान खामोशी से सहन करती चली जाती हैं।
प्रश्न है कि क्या बॉलीवुड की बालाओं का भारत की ग्रामीण बालिकाओं पर नकारात्मक असर पड़ता है? लेकिन यह बॉलीवुड की बालाओं से ज्यादा बालिकाओं की मानसिक परिपक्वता पर निर्भर करता है। उनकी धूसर दुनिया और बॉलीवुड की चमकीली दुनिया का विरोधाभास उन्हें भ्रमित कर सकता है। शिक्षा की कमी, जानकारियों का अभाव उनके भ्रम को नकारात्मक असर में रूपांतरित भी कर सकता है। पर यह इकहरा सच है। इस तरह सामान्यीकृत निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी है।
कुत्सित मानसिकता वाले लोगों द्वारा स्त्री आज भी महज देह ही मानी जाती है, इंसान नहीं। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो जितनी भी गालियां हैं वे सिर्फ मां-बहन की गालियां नहीं होती जिनमें स्त्री के गुप्तांगों की शब्दों से तौहीन की जाती है।
वास्तव में महिला सुरक्षा के लिए खुद महिला को सक्षम होना होगा। भीरुता को स्त्री का गहना मानना स्वयं स्त्री को तजना होगा। हिम्मत, वीरता और साहस को उसे अपने महत्वपूर्ण गुण बनाना होगा। जो डरता है उसे दुनिया डराती है।
सामाजिक स्तर पर सोच में बदलाव भी लाया जा सकता है पर यह लम्बी प्रक्रिया होगी जिसमे आधी सदी भी लग सकती है। जिस दिन से माताएं अपने बेटे और बेटियों की परवरिश में अंतर करना छोड़ देंगी उस दिन से सामाजिक स्तर पर सोच में बदलाव का बीज पड़ जाएगा।
बलात्कार जैसी घटनाएं हमेशा से होती आई हैं. इन्हें पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं है। क्योंकि कुत्सित मानसिकता, पुरुषवादी अहम, बदले की भावना, कानून की लचरता, गुंडों को राजनैतिक बैंकिंग आदि कारण बलात्कारी पैदा करते हैं।
बलात्कार की घटनाओं में कुछ हद तक कमी धीरे-धीरे लाई जा सकती है यदि हम महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ पुरुष मानवीयकरण के लक्ष्य को भी सामने रखें। घर में पिता-पत्नी और बेटी का, और बेटा-मां और बहन का सम्मान करें। बाहर किसी भी स्त्री को कोई भी पुरुष इंसान की तरह मान कर सम्मान करें। साथ ही स्त्रियां भी स्त्री होने का गलत और बेजा उपयोग न करें।
बलात्कार की घटनाएं इसलिए बढ़ती प्रतीत हो रहीं हैं क्योंकि पहले लोग तथाकथित लोक लाज से मामले को दबा देते थे। लेकिन जागरूकता बढ़ने और मीडिया के प्रसार से अब ज्यादा घटनाएं सामने आ रही हैं।
मासूम बच्चियों के साथ बढ़ती बलात्कार की वारदातों के पीछे ऐसी निकृष्टतम मानसिक विकृति होती है जिसके लिए कोई बुरे से बुरा विशेषण किसी भाषा में नहीं।
अभिव्यक्ति संपादित स्वरूप में है, इसमें सभी सवालों के जवाब शामिल नहीं है- वेबदुनिया फीचर डेस्क