श्री आनंदगिरिजी ने इस कारिका का अर्थ इस प्रकार किया है- 'वर्णाश्रम धर्म से, पापादि मल से जिसको स्पर्श नहीं होता, जो इनसे सर्वथा अछूत रहता है, वह अद्वैतानुभव अस्पर्श है। यह यह योग अर्थात जीव की ब्रह्मभाव से योजना ही अस्पर्श योग है। भगवान शंकराचार्य इसका भाष्य यों करते हैं-
यह अस्पर्श योग सब स्पर्शों से, सब संबंधों से अलिप्त रहने का नाम है और उपनिषदों में प्रसिद्ध है एवं कई स्थानों में इसका उल्लेख आया है। जिनको वेदांतविहित विज्ञान का बोध नहीं उनके लिए 'दुर्दश:' है। यह अस्पर्श योग सब प्रकार के भयों से शून्य है तो भी योगीजन इस योग से भयभीत होते रहते हैं- वह भय यह कि कहीं इस अस्पर्श योग के अभ्यास से आत्मनाश न हो जाए। इस प्रकार अस्पर्श योग द्वारा अद्वैत तत्व में मिल जाने से आत्मतत्व का नाश समझने वाले योगियों का अविवेक ही है अर्थात अविवेकियों को ही ऐसा भय रहता है, अन्यों को नहीं।
उपनिषदों में 'न लिप्यते कर्मणा पापकेन' इत्यादि वचन मिलते हैं। अस्पर्श योग वाले योगीजन पाप-पुण्य से अलिप्त रहते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त कारिका, उसका शांकरभाष्य, उस पर की गई आनंदगिरिजी की टीका- इन सबका अभिप्राय अस्पर्शवाद से विशुद्ध अद्वैत का है।
अभय के विषय में निम्नलिखित कारिका क्या कहती है, देखिए-
अभय- आत्मदर्शन तत्व तो मन के निग्रह के अधीन है जिसमें समस्त दुखों का क्षय होता है और प्रबोध चन्द्र का उदय भी। अक्षय शांति भी मिलती है।
गीता का कर्मयोग भी एक प्रकार से अस्पर्शवाद
ही है। उसमें भी फल की आकांक्षा से अछूत रहकर कर्म करना पड़ता है- फल की आकांक्षा छोड़कर केवल कर्तव्य करने रहने से पुरुष पाप-पुण्य से अलिप्त रहकर मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। ध्यानयोग का जो फल है, वह फल इस प्रकार के अस्पर्शवाद का है-
यत्सांख्यै प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
(1) योग का ध्यान, (2) गौडपाद का अस्पर्श योग, (3) गीता का कर्मयोग।
तीनों का फल एक
अर्थात
मोक्ष
जितना भी दु:ख है, वह है स्पर्श का, कर्मफल में लिप्त रहने का-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
(गीता)
न तेषु रमते बुध:।
(गीता)
संसार के जितने संस्पर्शज भोग हैं, वे दु:ख के ही कारण हैं- बुद्धिमान पुरुष उनमें रमते नहीं, अलग रहते हैं, अस्पर्श से काम लेते हैं तब वे पुण्यापुण्य से ऊपर उठते हैं, तब आत्मदर्शन कर पाते हैं, तब 'अभय' में लीन हो जाते हैं। यह अस्पर्श योग अत्यंत कठिन है। साधारण योगियों को तो क्या बड़े-बड़े योगियों को भी अप्राप्य है। पर अभ्यास और वैराग्य से वशीकार संज्ञा प्राप्त करने पर सहजगम्य है।
पुराकाल में हमारे इस पवित्र भारत खंड में इस प्रकार के उच्च कोटि के योगियों की कमी नहीं थी- अब भी यह खंडशून्य नहीं है, पर पुराकाल की वह बात भी नहीं रही है। आजकल निम्नलिखित पारमार्थिक सत्य को समझाने वाले हमारे देश में कितने मिलेंगे? और कहां मिलेंगे? मिलेंगे तो वे किस प्रकार पहचाने जाएंगे? पहचाने भी गए तो वे किस प्रकार प्रसन्न होंगे और तत्व को समझाएंगे?
न कश्चिज्जायते जीव: सम्भवोऽस्य न विद्यते।
एतत्तदुत्तमं सत्यं यत्र किंचित जायते।।
(गौडपादीय कारिका 48)
वस्तुत: 'कर्ता' 'भोक्ता' जीव तो कभी उत्पन्न नहीं होता। स्वभाव से जो 'अज' है, 'एक ही आत्मा' है, वह उत्पन्न भी कैसे हो सकता है? संसार में जितने सत्य हैं, उनमें परमार्थ सत्य यह है कि उस सत्य स्वरूप ब्रह्म में अणुमात्र भी उत्पन्न नहीं होता।'
अब रही द्वैताद्वैत की बात, उसको गौडपादीय कारिका 31 में स्पष्ट वर्णन किया है-
मनोदृश्यमिदं सर्वं यत्किंचित्सचराचरम्।
मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते।।
द्वैत की सब बात मन के अधीन है- मन के कारण है। मन ही जब लीन-विलीन हो गया, तब द्वैत कहा? द्वैत की बात बोलने वाला कहां?
- लेखक पं. श्रीनरदेवजी शास्त्री वेदतीर्थ)
- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक से साभार