योग और योग के आसनों को लेकर बहुत विवाद हैं। विवाद का कारण कुछ विदेशी और कुछ विदेशी मानसिकता के भारतीय हैं। उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके पास योग की जानकारी अधूरी है। कुछ ऐसे भी हैं, जो जानते हैं लेकिन वे योग के विरोधी हैं। क्यों? यह सवाल तो उनसे ही पूछा जाना चाहिए।
योग का जन्मदाता कौन? अधिकतर यह मानते हैं कि योग के जनक महर्षि पतंजलि थे। उनका यह मानना उनकी अधूरी जानकारी का परिणाम है। हालांकि जब भी योग की बात होती है तो पतंजलि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। ऐसा क्यों? क्योंकि पतंजलि ही पहले और एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को आस्था, अंधविश्वास और धर्म से बाहर निकालकर एक सुव्यवस्थित रूप दिया था, जबकि योग तो प्राचीनकाल से ही साधु-संतों के मठों में किया जाता रहा है। आदिदेव शिव और गुरु दत्तात्रेय को योग का जनक माना गया है। शिव के 7 शिष्यों ने ही योग को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया। योग का प्रत्येक धर्म पर गहरा प्रभाव देखने को मिलेगा।
कहते हैं कि शिव ने योगी की पहली शिक्षा अपनी पत्नी पार्वती को दी थी। दूसरी शिक्षा जो योग की थी, उन्होंने केदारनाथ में कांति सरोवर के तट पर अपने पहले सात शिष्यों को दी थी। उन्हें ही सप्तऋषि कहा गया जिन्होंने योग के अलग-अलग आयाम बताए और ये सभी आयाम योग के सात मूल स्वरूप हो गए। आज भी योग के ये सात विशिष्ट स्वरूप मौजूद हैं। इन सप्त ऋषियों को विश्व की अलग-अलग दिशाओं में भेजा गया, जिससे वे योग के अपने ज्ञान लोगों तक पहुंचा सकें।
कहते हैं कि एक को मध्य एशिया, एक को मध्य पूर्व एशिया व उत्तरी अफ्रीका, एक को दक्षिण अमेरिका, एक को हिमालय के निचले क्षेत्र में, एक ऋषि को पूर्वी एशिया, एक को दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप में भेजा गया और एक आदियोगी के साथ वहीं रह गया। अगर उन इलाकों की संस्कृतियों पर गौर किया जाए तो आज भी इन ऋषियों के योगदान के चिन्ह वहां दिखाई दे जाएंगे।
ओशो कहते हैं कि योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है- राजपथ। दरअसल, धर्म लोगों को खूंटे से बांधता है और योग सभी तरह के खूंटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।
'योग : दि अल्फा एंड दि ओमेगा’ शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए सौ अमृत प्रवचनों को पढ़ना बहुत ही अद्भुत है। उन्होंने कहा कि जैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।
पतंजलि कौन थे? पतंजलि एक महान चिकित्सक थे। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे- अभ्रक, विंदास, धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (195-142 ईपू) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है। पतंजलि का जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था लेकिन कहते हैं कि ये काशी में नागकूप में बस गए थे।
भारतीय दर्शन साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए 3 प्रमुख ग्रंथ मिलते हैं- योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रंथ। विद्वानों में इन ग्रंथों के लेखक को लेकर मतभेद हैं। कुछ मानते हैं कि तीनों ग्रंथ एक ही व्यक्ति ने लिखे, अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियां हैं। पतंजलि ने पानिणी के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि वे व्याकरणाचार्य पानिणी के शिष्य थे।
योगसूत्र पर भाष्य : पतंजलि के योग सूत्र पर कुछ प्रमुख भाष्य इस प्रकार हैं- व्यासजी का व्यास भाष्य (150 से 400 ईसा पश्चात), वाचस्पति मिश्र का तत्ववैशारदी (841 ईसा पश्चात), विज्ञान भिक्षु का योगवार्तिक (16वीं सदी के मध्य), धरेश्वर भोज का भोजवृत्ति (1075-1110) ग्रंथ प्रमुख है।
हठयोग प्रदीपिका : बाद में एक ग्रंथ लिखा गया जिसे हठ योग प्रदीपिका कहा जाता है। योग सूत्र के बाद सबसे प्रचलित ग्रंथ यही है। इसके रचयिता गुरु गोरखनाथ के शिष्य परंपरा के शिष्य स्वामी स्वात्माराम थे। गुरु गोरखनाथ 10वीं सदी में हुए थे। हठयोग का ये प्रमुख ग्रंथ है। अन्य 2 और ग्रंथ हैं- घेरंड संहिता और शिव संहिता। प्रदीपिका के भी 4 अध्याय हैं जिनमें आसन, प्राणायाम, चक्र, कुण्डलिनी, बंध, क्रिया, शक्ति, नाड़ी, मुद्रा आदि विषयों का वर्णन है। इसके अध्यायों को उपदेश कहते हैं, जैसे प्रथमोपदेश आदि। इस ग्रंथ की प्राप्त सबसे प्राचीन पांडुलिपि 15वीं सदी की है।
योग सूत्र का परिचय- योगसूत्र में पतंजलि से योग की बिखरी हुई संपूर्ण विद्या को 4 अध्यायों में समेट दिया है। ये 4 अध्याय या पाद हैं- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।
प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में 5 बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है। तृतीय पाद में अंतरंग 3 धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहां एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।
चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसके नाम इस प्रकार हैं- 1. यम, 2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम, 5. प्रत्याहार, 6. धारणा, 7. ध्यान और 8. समाधि। उक्त 8 अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के 3 ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।
1. यम : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। उक्त 5 प्रकार के यम दरअसल नैतिकता का पाठ हैं, जो दुनिया के सभी धर्मों में मिल जाएगा।
2. नियम : 1. शौच, 2. संतोष, 3. तप, 4. स्वाध्याय और 5. ईश्वर प्राणिधान। उक्त 5 प्रकार के नियम से ही जीवन में अनुशासन आता है। नियम के माध्यम से शरीर और मन को सेहतमंद बनाया जा सकता है।
3. आसन : चित्त को स्थिर रखने वाले तथा सुख देने वाले बैठने के प्रकार को आसन कहते हैं। आसन अनेक प्रकार के माने गए हैं। आसन से शरीर सधता है। शरीर से मन और मन से आत्मा सधती है। तीनों को इससे शांति मिलती है।
अर्थात संसार के समस्त जीव-जंतुओं के बराबर ही आसनों की संख्या बताई गई है। इस प्रकार 84,000 आसनों में से मुख्य 84 आसन ही माने गए हैं। उनमें भी मुख्य आसनों का योगाचार्यों ने वर्णन अपने-अपने तरीके से किया है।
आसनों का आविष्कार भारत में हुआ था : गुरु गोरखनाथ को कई तरह के आसनों का आविष्कारक माना जाता है। उन्होंने 10वीं सदी में योग में क्रांति कर दी थी। हालांकि आसनों का प्रचलन पहले भी था लेकिन उन्होंने कुछ नए तरह के आसनों को गढ़ा। उन्होंने और उनके शिष्यों ने आसनों का प्रचार-प्रसार किया।
कुछ विदेशी विद्वान कहते हैं कि योग आसन 18वीं और 19वीं सदी में यूरोपियों के साथ भारत आया। यह बहुत ही हास्यास्पद बात है। रिलिजियस स्टडी की प्रोफेसर वेंडी डॉनिंगर ने लिखा है कि योग का आधुनिक रूप (शारीरिक आसन) ज्यादा पुराना नहीं है। उस समय लोग व्यायाम के फायदे ढूंढ रहे थे और फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो की एमिली जैसी किताबों से उन्हें प्रेरणा मिल रही थी।
डॉनिंगर के अनुसार पतंजलि के योगसूत्र में किसी भी आसन का जिक्र नहीं है। डॉनिंगर से ये पूछा जाना चाहिए कि रूसो ने किस प्रेरणा से किताब लिखी? जब आसन का प्रचलन भारत में नहीं था तो पतंजलि ने आसन को जिक्र क्यों किया?
गुरु गोरखनाथ ने अपने कई ग्रंथों में आसनों का जिक्र किया और हठयोग प्रदीपिका में आसनों का जिक्र क्या आसमान से टपक गया? दरअसल, पश्चिमी धर्म में पले-बड़े लोगों को अब योग से खतरा नजर आने लगा है इसलिए वे अब चाहते हैं कि किसी भी तरह योग को भी पश्चिम का आविष्कार घोषित कर दिया जाए जैसे कि पूर्ववर्ती कई वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ उन्होंने किया है।
योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3,000 ईपू सिधु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इसके लिए उन्होंने 4 आश्रमों की व्यवस्था निर्मित की थी।
ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी। ऋग्वेद को 1500 ईपू से 1000 ईपू के बीच लिखा गया माना जाता है। इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ कराकर हजारों वर्षों तक स्मृति के आधार पर संरक्षित रखा गया।
563 से 200 ईपू योग के 3 अंग तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन था। इसे क्रिया योग कहा जाता है। जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा।
यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहां तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था। सभी आश्रमों में आसन एक दैनिक क्रिया थी जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं की जाती थीं, क्योंकि आसन तात्विक ज्ञान का विषय नहीं था।
13 अखाड़ों की परंपरा का इतिहास बताता है कि योगासन गुरु गोरखनाथ के पहले से ही प्रचलन में था। बौद्धकाल में योगासन करने का बहुत महत्व था। उस काल में 'योग' अधिक प्रचलित था। इसके सैकड़ों पुख्ता प्रमाण हैं। कई गुफाएं, मंदिरों और स्मारकों पर योग आसनों के चिह्न खुदे हुए हैं।