बिना औषध के रोग निवारण टिप्स

शुक्रवार, 12 मई 2017 (12:20 IST)
अनियमित क्रिया के कारण जिस तरह मानव देह में रोग उत्पन्न होते हैं, उसी तरह औषध के बिना ही भीतरी क्रियाओं के द्वारा नीरोग होने के उपाय भगवान के बनाए हुए हैं। हम लोग उस भगवत्प्रदत्त सहज कौशल को नहीं जानते, इसी कारण दीर्घकाल तक रोग का दु:ख भोगते हैं तथा व्यर्थ ही वैद्य-डॉक्टरों को धन देते हैं। मैंने देश-पर्यटन करते समय सिद्धयोगी महात्माओं से बिना औषध रोग शांति के उपाय सीखे थे, फिर पीछे बहुत बार परीक्षा करके मैंने उसका प्रत्यक्ष फल देखा; इसलिए सर्वसाधारण के उपकार के उद्देश्य से उनमें से कुछ उपायों को प्रकट कर रहा हूं। पाठक नीचे लिखे उपायों को काम में लाकर प्रत्यक्ष फल प्राप्त कर सकते हैं। इन उपायों को काम में लाने से न तो बहुत दिनों तक रोग की यंत्रणा सहनी होगी, न अर्थव्यय करना होगा और न दवाइयों से अपने पेट को ही भरना होगा। इस स्वरशास्त्रोक्त कौशल से जब एक बार मनुष्य नीरोग हो जाता है, तब फिर उस रोग के पुन: आक्रमण करने की आशंका नहीं रहती। मैं पाठकों से परीक्षा करने का अनुरोध करता हूं। 
 
ज्वर- ज्वर का आक्रमण होने पर अथवा आक्रमण की आशंका होने पर जिस नासिका से श्वास चलता हो, उस नासिका को बंद कर देना चाहिए। जब तक ज्वर न उतरे और शरीर स्वस्थ न हो जाए, तब तक उस नासिका को बंद ही रखना चाहिए। ऐसा करने से 10-15 दिनों में उतरने वाला ज्वर 5 ही 7 दिनों में अवश्य ही उतर जाएगा। ज्वरकाल में मन ही मन सदा चांदी के समान श्वेत वर्ण का ध्यान करने से और भी शीघ्र लाभ होता है। 
 
*सिन्दुवार की जड़ रोगी के हाथ में बांध देने से सब प्रकार के ज्वर निश्चय ही दूर हो जाते हैं। 
*अंतरिया ज्वर- श्वेत अपराजिता अथवा पलाश के पत्तों को हाथ से मलकर, कपड़े से लपेटकर 1 पोटली बना लेनी चाहिए और जिस दिन ज्वर की बारी हो, उस दिन सवेरे से ही उसे सूंघने लगना चाहिए। अंतरिया ज्वर बंद हो जाएगा।
 
*सिरदर्द- सिरदर्द होने पर दोनों हाथों की केहुनी के ऊपर धोती के किनारे अथवा रस्सी से खूब कसकर बांध देना चाहिए। इससे 5-7 मिनट में ही सिरदर्द जाता रहेगा। केहुनी पर इतने जोर से बांधना चाहिए कि रोगी को हाथ में अत्यंत दर्द मालूम हो। सिरदर्द अच्छा होते ही बांहें खोल देनी चाहिए। 
 
*एक दूसरे प्रकार का सिरदर्द होता है जिसे साधारणत: 'अधकपाली' या 'आधासीसी' कहते हैं। कपाल के मध्य से बाईं या दाहिनी ओर आधे कपाल और मस्तक में अत्यंत पीड़ा मालूम होती है। प्राय: यह पीड़ा सूर्योदय के समय आरंभ होती है और दिन चढ़ने के साथ-साथ यह बढ़ती जाती है। दोपहर के बाद घटनी शुरू होती है और शाम तक प्राय: नहीं ही रहती। इस रोग का आक्रमण होने पर जिस तरफ के कपाल में दर्द हो, ऊपर लिखे अनुसार उसी तरफ की केहुनी के ऊपर जोर से रस्सी बांध देनी चाहिए। थोड़ी ही देर में दर्द शांत हो जाएगा और रोग जाता रहेगा। दूसरे दिन यदि फिर दर्द शुरू हो और रोज एक ही नासिका से श्वास चलते समय शुरू होता हो तो सिरदर्द मालूम होते ही उस नाक को बंद कर देना चाहिए और हाथ को भी बांध रखना चाहिए। अधकपाली सिरदर्द में इस क्रिया से होने वाले आश्चर्यजनक फल को देखकर आप चकित रह जाएंगे। 
 
*शिर:पीड़ा- शिर:पीड़ाग्रस्त रोगी को प्रात:काल शय्या से उठते ही नासापुट से शीतल जल पीना चाहिए। इससे मस्तिष्क शीतल रहेगा, सिर भारी नहीं होगा और सर्दी नहीं लगेगी। यह क्रिया विशेष कठिन भी नहीं है। एक बरतन में ठंडा जल भरकर उसमें नाक डुबाकर धीरे-धीरे गले के भीतर जल खींचना चाहिए। क्रमश: अभ्यास से यह क्रिया सहज हो जाएगी। शिर:पीड़ा होने पर चिकित्सक रोगी के आरोग्य होने की आशा छोड़ देता है, रोगी को भी भीषण कष्ट होता है; परंतु इस उपाय से काम लेने पर निश्चय ही आशातीत लाभ पहुंचेगा। 
 
*उदरामय, अजीर्णादि- भोजन, जलपान आदि जब जो कुछ खाना हो, वह दाहिनी नाक से श्वास चलते समय खाना चाहिए। प्रतिदिन इस नियम से आहार करने से वह बहुत आसानी से पच जाएगा और कभी अजीर्ण का रोग नहीं होगा। जो लोग इस रोग से कष्ट पा रहे हैं, वे भी यदि इस नियम के अनुसार रोज भोजन करें तो खाई हुई चीज पच जाएगी और धीरे-धीरे उनका रोग दूर हो जाएगा। भोजन के बाद थोड़ी देर बाईं करवट सोना चाहिए। जिन्हें समय न हो, उन्हें ऐसा उपाय करना चाहिए कि जिससे भोजन के बाद 10-15 मिनट तक दाहिनी नाक से श्वास चले अर्थात पूर्वोक्त नियम के अनुसार रुई द्वारा बाई नाक बंद कर देनी चाहिए। गुरुपाक (भारी) भोजन होने पर भी इस नियम से वह शीघ्र पच जाता है। 
 
*स्थिरता के साथ बैठकर एकटक नाभि मंडल में दृष्टि जमाकर नाभि कंद का ध्यान करने से एक सप्ताह में उदरामय रोग दूर हो जाता है। 
*श्वास रोककर नाभि को खींचकर नाभि की ग्रंथि को 100 बार मेरूदंड से मिलाने से आमादि उदरामयजनित सब तरह की पीड़ाएं दूर हो जाती हैं और जठराग्नि तथा पाचन शक्ति बढ़ जाती है। 
*प्लीहा- रात को बिछौने पर सोकर और सवेरे शय्या के समय हाथ और पैरों को सिकोड़कर छोड़ देना चाहिए। फिर कभी इस करवट और कभी उस करवट टेढ़ा-मेढ़ा शरीर करके सारे शरीर को सिकोड़ना और फैलाना चाहिए। प्रतिदिन 4-5 मिनट ऐसा करने से प्लीहा-यकृत (तिल्ली-लिवर) रोग दूर हो जाएगा। सर्वदा इसका अभ्यास करने से प्लीहा-यकृत रोग की पीड़ा कभी नहीं भोगनी पड़ेगी। 
 
*दंतरोग- प्रतिदिन जितनी बार मल-मूत्र का त्याग करो, उतनी बार दांतों की दोनों पंक्तियों को मिलाकर जरा जोर से दबाए रखो। जब तक मल या मूत्र निकलता रहे, तब दांतों से दांतों को मिलाकर इस प्रकार दबाए रहना चाहिए। 2-4 दिन ऐसा करने से कमजोर दांतों की जड़ मजबूत हो जाएगी। सदा इसका अभ्यास करने से दंतमूल दृढ़ हो जाता है और दांत दीर्घकाल तक काम देते हैं तथा दांतों में किसी प्रकार की बीमारी होने का कोई डर नहीं रहता।
 
*स्नायविक वेदना- छाती, पीठ या बगल में- चाहे जिस स्थान पर स्नायविक वेदना या अन्य किसी प्रकार की वेदना हो, वेदना मालूम होते ही जिस नासिका से श्वास चलता हो, उसे बंद कर देना चाहिए, 2-4 मिनट बाद अवश्य ही वेदना शांत हो जाएगी। 
 
*दमा या श्वासरोग- जब दमे का जोर का दौरा हो, तब जिस नासिका से नि:श्वास चलता हो, उसे बंद करके दूसरी नासिका से श्वास चला देना चाहिए। 10-15 मिनट में जोर कम हो जाएगा। प्रतिदिन इस प्रकार करने से महीने भर में पीड़ा शांत हो जाएगी। दिन में जितने ही अधिक समय तक यह क्रिया की जाएगी, उतना ही शीघ्र यह रोग दूर होगा। दमा के समान कष्टदायक कोई रोग नहीं, दमा का जोर होने पर यह क्रिया करने से बिना किसी दवा के बीमारी अच्‍छी हो जाती है। 
 
*वात- प्रतिदिन भोजन के बाद कंघी से सिर वाहना चाहिए। कंघी इस प्रकार चलानी चाहिए जिसमें उसके कांटे सिर को स्पर्श करें। उसके बाद वीरासन लगाकर अर्थात दोनों पैर पीछे की ओर मोड़कर उनके ऊपर दबाकर 15 मिनट बैठना चाहिए। प्रतिदिन दोनों समय भोजन के बाद इस प्रकार बैठने से कितना भी पुराना वात क्यों न हो, निश्चय ही अच्‍छा हो जाएगा। इस प्रकार बैठकर पान खाने में भी कोई हर्ज नहीं। अगर स्वस्थ आदमी इस नियम का पालन करे तो उसके वात रोग होने की कोई आशंका नहीं रहेगी। कहना न होगा कि रबर की कंघी का व्यवहार नहीं करना चाहिए। 
 
*नेत्ररोग- प्रतिदिन सवेरे बिछौने से उठते ही सबसे पहले मुंह में जितना पानी भरा जा सके, उतना भरकर दूसरे जल से आंखों को 20 झपटा मारकर धोना चाहिए।
*प्रतिदिन दोनों समय भोजन के बाद हाथ-मुंह धोते समय कम से कम 7 बार आंखों में जल का झपटा देना चाहिए। 
* जितनी बार मुंह में जल डालो, उतनी ही बार आंख और मुंह को धोना मत भूलो। 
*प्रतिदिन स्नान के वक्त तेल मालिश करते समय सबसे पहले दोनों पैरों के अंगूठों के नखों को तेल से भर देना चाहिए और फिर तेल लगाना चाहिए। 
 
*ये कुछ नियम नेत्रों के लिए विशेष लाभदायक हैं। इनसे दृष्टिशक्ति सतेज होती है, आंखें स्निग्ध रहती हैं और आंखों में कोई बीमारी होने की आशंका नहीं रहती। नेत्र मनुष्य के परम धन हैं अतएव प्रतिदिन नियम पालन में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए।
 
- स्वर विज्ञान और बिना औषध रोगनाश के उपाय
(लेखक- परिव्राजकाचार्य परमहंस श्रीमत्स्वामी निगमानन्दजी सरस्वती)
- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक और अन्य स्रोतों से साभार

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