अपने होने का उत्सव मनाइए

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कहीपढ़ि हम वो नहीं रहे जो हम पैदा हुए थे, जो हम पैदा हुए वो कुछ दिव्य-सा, अलौकिक-सा था, बहुत सहज और बहुत प्राकृतिक-सा... पहाड़ी झरने या फिर जंगल में खिले किसी फूल की तरह का, बिना किसी बनावट, किसी प्रयास के... बस होने के अहसास, उसकी खुशी से ओतप्रोत...।

उसे हम लौटा नहीं सकते, कोशिश करेंगे तब भी लौटा नहीं पाएँगे, तभी तो हमें वो निर्द्वंद्व खुशी, वो स्वाभाविक उल्लास और वो होने की सहज अनुभूति बड़े होने पर महसूस नहीं होती है, जो हमने कभी बचपन में महसूस की थी। ये वो दौर हुआ करता था, जब हम बिना किसी बात के खुश रहा करते थे। इस पीढ़ी के बच्चों को अब वो खुशी हासिल नहीं है, क्योंकि वे बहुत छोटी उम्र से दुनियावी चीजों का हिस्सा हो जाते हैं। हमारी बुद्धि और सामाजिकता, हमसे वो स्वाभाविक खुशी छीन लेती है। उस खुशी की जगह ले लेती है भौतिक या दुनियावी चीजें।

खुश होने के लिए हमें किसी कारण की जरूरत महसूस होती है जबकि खुशी और दुःख जैसी मूल भावनाएँ इंसान में जन्मजात होती हैं, तभी तो जब बच्चे की बात नहीं मानी जाती है तो या तो वह तोड़-फोड़ करता है या फिर गुस्सा करते हुए रोता है। या फिर जब हम उसे हँसाने की कोशिश करते हैं तो वो खूब खुलकर हँसता है... इससे ये सिद्ध होता है कि दूसरी अन्य भावनाओं की तरह ही इंसान में सहजता की भावना भी विद्यमान रहती है, जो अपने होने को लेकर खुशी का अहसास होती है, लेकिन समय के साथ-साथ जब दूसरी और चीजें उसके स्वभाव में प्रवेश करती हैं तो खुश होने की ये कला वह भूल जाता है।

असल में ये जन्मजात हरेक इंसान में होती है, लेकिन समय के साथ-साथ ये धुँधली होती चली जाती है और युवावस्था तक आते-आते ये खत्म हो जाती है। दुनियादारी, उपलब्धियाँ, संघर्ष, स्वार्थ और हार-जीत की दौड़ में ये अहसास पता नहीं कहीं गुम हो जाते हैं। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़, सफलता पाने के लिए अपनाए जाते तमाम हथकंडे और खुद के हर हाल और हर स्तर पर बेहतर होने को दिखाने के लिए हम छल-प्रपंचों का सहारा लेते हैं और यहीं उस स्वाभाविक, सहज और जन्मजात खुशी का अंत है।

किसी गंभीर बीमारी या फिर दुर्घटना से बाहर आने के तुरंत बाद हमें जीवन का जो अर्थ समझ आता है, वो थोड़ी ही देर में गुम हो जाता है और हम ये भूल जाते हैं कि जीवन एक वरदान है। कुछ समय तक हमारे लिए अपना जीवन अमूल्य होता है, हम उसके होने का उत्सव मनाते हैं, लेकिन जल्दी ही हम फिर से उस तटस्थ "मैं" की तरफ प्रवृत्त हो जाते हैं, जो उम्र बढ़ने के साथ ही हमारा स्थायी भाव हो चला है। हकीकत में भावनाओं पर नियंत्रण कर लेना समाज में अच्छा माना जाता है।

दुख हो या सुख जीवन पर सबसे ऊपर है, अनमोल है और सिर्फ उसका होना ही हमारी खुशी के लिए पर्याप्त है। यही खुशी का मूल है और महज इसे ही खुशी की वजह होना चाहिए। खुश होने के लिए किसी भौतिक उपलब्धि और किसी सफलता की जरूरत नहीं होती है। अस्तित्व में होना ही जीवन की खुशी है। इस दौर में अपना काम निकालने और हमेशा आगे रहने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले लोग स्मार्ट माने जाते हैं और ये स्मार्टनेस एक तरह से जीवन मूल्य की तरह स्थापित हो चला है। ऐसे में सहजता से खुश होने का कोई महत्व नहीं दिया जाता है।

बल्कि वो बिना बात के खुश रहने वालों को गैर महत्वाकांक्षी और इस नाते असफल करार दिया जाता है। जिस समय में असंत‍ुष्टि को एक गुण की तरह स्थापित किया जाता हो, उसमें संतुष्ट और खुश रहने की क्या कीमत की जाती होगी ये आसानी से समझा जा सकता है। जिस दौर में खुश होने के लिए अव्वल रहना, हमेशा दूसरों से बेहतर होना, बहुत सारा नाम और बहुत सारा पैसा होना जरूरी हो, वहां खुशी सहज स्वभाव कैसे हो सकता है।

जबकि दुनिया का कोई विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल, टीचर, प्रोफेसर या कोर्स हमें खुश रहना नहीं सिखा सकता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि बुद्धि बढ़ाने के लिए, स्टेमिना बढ़ाने के लिए, स्वस्थ रहने के‍ लिए, सफलता और समृद्धि पाने यहां तक कि उम्र बढ़ाने तक के लिए अलग-अलग उपाय हैं। चाहे वैज्ञानिक हो या फिर गैर-वैज्ञानिक, लेकिन इन सब चीजों का जो लक्ष्य है - खुशी - उसे पाने के लिए अभी तक किसी ने कोई उपाय ईजाद नहीं किया। होता यह है कि खुद को खुश रखना किसी भौतिक उपलब्धि से नहीं जुड़ता है, इसलिए इसे हमने जीवन के लिए गैरजरूरी मान लिया है और ये मान लिया है कि जो कुछ हम अपने प्रयासों से पाते हैं, संघर्ष कर हासिल करते हैं।

खुश रहना या खुद को खुश करना अपने आपमें एक कला है, जिसे हम खोते जा रहे हैं वही खुशी है, जबकि बात इसकी ठीक उल्टी है। दुनिया की हर कला को सीखने के लिए गुरुओं की जरूरत होती है, लेकिन खुशी एक ऐसी कला है, जो इंसान में जन्मजात हुआ करती है। बस खुशी की कला का न कोई शास्त्र है और न ही सिद्धांत...।

हमारे जीवन का मूल और हमारे सारे कर्मों का लक्ष्य है खुशी पाना और वो खुशी किसी भौतिक उपलब्धि की मोहताज नहीं है। हमार अपना होना ही खुशी का कारण है। तो जब कभी हम बिना किसी वजह के खुश होते हैं, वही हमारी असली और अपनी खुशी होती है। जो खुशी बाहरी और वक्ती चीजों से मिलती है, उसका काल भी संक्षिप्त होता है और तीव्रता भी सीमित...।

खुशी का संबंध भौतिक या स्थूल चीजों से नहीं है। खुशी को देखना और महसूस करना है तो किसी बच्चे को शैतानी करते हुऐ देखें ... उसे कुछ भी हासिल नहीं होता है, फिर भी वो खुश होता है, आनंद में रहता है।

क्योंकि उसमें कोई कृत्रिमता नहीं है, बस प्राकृतिक सहजता है। ये थोड़ा मुश्किल है... दुनिया है और यहां का कोई दस्तूर भी है, लेकिन कोई भी मुश्किल चीज असंभव नहीं होती है। बल्कि असल में तो अपने होने को हमेशा ही उत्सव की तरह मनाने की प्रैक्टिस हमें इस तनाव और प्रतिस्पर्धा भरे जीवन में राहत दे सकती है। तो खुश होने के लिए बाहरी कारणों का इंतजार न करें। जो भी है उस क्षण से खुशी का आगाज करें।

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