जंगल के जनक अब्दुल करीम

मंगलवार, 27 सितम्बर 2011 (15:05 IST)
दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो बिना किसी हो-हल्ले के पर्यावरण, समाज तथा जनहित में पूरी लगन और मेहनत से काम कर रहे हैं। उन्हें न तो पैसा कमाने की भूख है, न शोहरत की लालसा। उनके लिए सर्वोपरि है तो बस जनहित। ऐसे ही एक शख्स हैं केरल के अब्दुल करीम। केरल का कासरगोड नामक इलाका कुछ साल पहले तक बंजर एवं पथरीली जमीन वाला था। यहां दूर-दूर तक उजाड़ पसरा था और पानी का तो नामोनिशान था।

सत्तर के दशक में अब्दुल करीम ने ऐसे इलाके में पेड़ लगाने के लिए अपनी जमा पूंजी लगा दी और अपनी जिंदगी भी। उसी का परिणाम है कि अब उस बंजर भूमि पर हरा-भरा जंगल है।

अब्दुल ने लहलहाते जंगल का सपना देखा और लग गए उसे साकार करने में। लोगों ने उस समय उनकी इस सनक का मजाक उड़ाया, कहा - 'कहीं पत्थर में भी फूल खिलते हैं!' लेकिन अब्दुल ने किसी भी की परवाह नहीं की। वे अपने काम में लगे रहे। अब्दुल ने गड्‍ढे खोदकर 'मारुथू' के पौधे बोए। कुछ किलोमीटर दूर स्थित कुएं से बाइक पर पानी की कैनें ढोकर, पौधों में पानी दिया, प वे असफल रहे। फिर भी अब्दुल ने हार नहीं मानी। वे वर्ष-दर-वर्ष प्रयास करते गए। शुरुआती सालों में तो कुएं में पानी की कमी का भी उन्हें सामना करना पड़ा, परंतु उन्हें विश्वास था कि यदि इरादे मजबूत हों तो पत्थर पर भी फूल खिल सकते हैं।

अब्दुल ने तीसरे साल में जब मारुथू के पौधों की कोपलों को फूटते देखा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उधर कुएं में भी जलस्तर बढ़ने लगा था। फिर तो पौधों की संख्‍या लगातार बढ़ती गई। प्रकृति ने उनकी मेहनत के आगे सिर झुका दिया। धीरे-धीरे उनका यह प्रयास जंगल का रूप धारण करने लगा। पेड़ों से झड़कर गिरे पत्नों ने भूमि पर उपजाऊ परत बना दी। पेड़ों की जड़ों ने पत्थरों का दिल चीरा। पथरीली जमीन को टूटने पर मजबूर किया। पेड़ों की संख्‍या बढ़ने से आसपास के इलाकों का जलस्तर भी बढ़ने लगा।

आज दुनिया भर में इस पथरीली जमीन में उगे 32 एकड़ के हरे-भरे जंगल को पर्यावरण में चमत्कार माना जाता है। अब अब्दुल को नया नाम मिला है 'फॉरेस्ट मेकर अब्दुल करीम।' उनके इस जंगल में कई औषधीय पौधे, जंगली पौधे, पक्षी, कीड़े-मकौड़े व छोटे-मोटे वन्य जीव हैं। अब तो वहां कई वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, आयुर्वेद के विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान और अध्ययन के लिए पहुंच भी रहे हैं। अब्दुल बीज व औषधीय पौधे भी वहां आने वाले लोगों को भेंट करते हैं, ता‍कि लोग अधिक से अधिक जंगल लगाने को प्रेरित हों। अब्दुल अभी भी उस जंगल में घर बनाकर रहते हैं। उनके घर के इर्द-गिर्द प्लास्टिक और पेपर का कतरा भी नहीं है। शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, जंगल की सैर, मानसिक शांति, स्वस्थ जीवन ही अब्दुल अपने लिए पुरस्कार मानते हैं।

अब्दुल करीम जैसे लोग प्रशंसा और पुरस्कारों के वास्तविक हकदार हैं, किंतु दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे लोगों को न तो समाचार चैनलों पर लोग देखना पसंद करते हैं, न ही ये अखबारों के चिकने पन्नों की खबरें बनते हैं।

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