मैं हूँ पूजा...

मैं तमाम लोगों की दिनचर्या की शुरुआत हूं। मैं शुभ कार्यों का प्रस्‍थान बिंदु हूं। मैं आस्था का प्रक्रियात्मक ‍विस्तार हूं। मैं सुकून देती हूं, मैं भरोसा दिलाती हूं, मैं अनंत के सामने नत होने का तरीका हूं। जी हां, मैं पूजा हूं। अपने इष्ट को याद करने का तरीका।

इंसान का अस्तित्व जब से है, तभी से उसमें पूजा, अर्चना, संध्या वंदन यानी अपने इष्ट, अपने ईश्वर को याद करने का सिलसिला मौजूद है। अलग-अलग धर्म के लोग अलग-अलग ढंग से पूजा करते हैं, लेकिन सबमें निहित भावना एक ही है। अपनी और अपनों की सलामती और सफलता की कामनाओं के लिए उस अदृश्य शक्ति के चरण वंदन, जिसे हमने भले ही देखा नहीं है, मगर जिसे हम मानते हैं। दुनिया में ऐसी कोई सभ्यता, कोई संस्कृति नहीं है, जहां मैं मौजूद नहीं रही होऊं। चाहे लोग मंदिर बनाकर पूजा करते रहें, चाहे पैगोड़ा बनाकर, चाहे किसी और तरीके से, लेकिन सभी सभ्यताओं में उस अदृश्य ताकत को चाहे, वह कुदरत हो या कुदरत से परे, उसकी सत्ता स्वीकार करते रहे हैं।

शायद मेरे बिना इंसान अपने ‍अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता था। जब योरप में पुनर्जागरण काल आया, जब विज्ञान की ताकत बढ़ी तो कुछ लोगों ने मुझे जिंदगी से, समाज से और बड़े अर्थों में दुनिया से खारिज करने की कोशिश की।

मैदरअसईश्वर और इंसान के बीच का वह पुल हूं, जिसे होकर इंसान ईश्वर तक पहुंचता है। मैं ही उनका ईश्वर से साक्षात्कार करने कसाधहूंमेरी दुनिया विविधताओं से भरी है। मैं हिन्दुओं में किसी और तरह से व्यक्होतहूमुस्लिमोबीमुझे अंजाम देने कजरियभिन्होतहैमैं भौतिक भी हूं और आध्यात्मिक भी। मैं साइंस भी हूं और आर्ट भी। मेरा रूप, आकार और मुझे व्यक्त करने का तरीका बहुत सारी चीजों पर निर्भर होता है

मसलन भाषा, भूगोल परिस्थितियां वगैरह-वगैरह, लेकिन इन सबमें एक अंतर्निहित सूत्र ईश्वर के प्रति आदर व्यक्त करना ही होता है। ईश्वर मतलब वह सत्ता, जिसकताकहम सबके अस्तित्व का आधार है, जिसकी ताकत के बारे में हम जो भी जानते हैं, उसके प्रति सिर्फ श्रद्धाभाव ही रखतहैं।

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