आखिर वही हुआ जिसका कि अंदेशा था। अपनी सरकार के पांच साल के कार्यकाल के दौरान निरंतर आपसी कलह में उलझी रही भारतीय जनता पार्टी को उसकी यही कमजोरी विधानसभा चुनावों में ले डूबी।
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की एकाधिकारवादी कार्यशैली, सत्ता और संगठन के बीच चरम पर पहुँच चुकी संवादहीनता और पार्टी के नेताओं की आपसी खींचतान से पार्टी अंत तक निजात नही पा सकी और इन्ही कारकों ने उसको सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
भाजपा के नेताओं के बीच कटुता कितनी बढ गई थी इसका अंदाजा भाजपा से बगावत कर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडे डॉ किरोडीलाल मीणा के इस बयान को देखें। चुनावों के बाद किरोडी ने कहा कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर में रावण सा अहंकार आ गया था। ये लोग पार्टी के साथ ही डूब जाएँगे।
दरअसल इन चुनावों में भाजपा की हार की एक बडी वजह उसके नेताओं की बगावत रही है। इनमें सबसे ज्यादा नुकसान उसे डॉ. किरोडीलाल मीणा जैसे जमीनी राजनीति से जुडे नेताओं की बगावत से हुआ है। पार्टी में नेताओं की बगावत के पीछे मुख्यतः मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की जिद और उनकी पसंद नापसंद कारण रही।
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कुछ समय पहले कहा था कि इस बार चुनावों मे जिस तरह पार्टी हितों से उपर निजी पसंद को महत्व दिया गया है वैसा पहले कभी नही देखा गया। टिकटों के बँटवारे में इस बार सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की ही चली। उन्होने उन सभी नेताओं को दरकिनार कर दिया जिनको वो पसंद नही करती थीं।
इसमें मुख्यमंत्री ने किरोडीलाल से लेकर पिछले चुनावों में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले सांचोर के विधायक जीवाराम चौधरी तक को नही बख्शा। लिहाजा इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। ये नेता तो जीतकर आ गए लेकिन इन्होने भाजपा को पटखनी जरूर दे दी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा अपनी आंतरिक कलह पर काबू नही पा सकी।
राजनीतिशास्त्री प्रो अヒण चतुर्वेदी कहते हैं कि आंतरिक कलह ने इस पार्टी का सबसे ज्यादा नुकसान किया। इसमें किरोडीलाल ने भाजपा को सबसे ज्यादा क्षति पहुँचाई। वही वसुंधरा राजे का अधिनायकवादी नेत्रत्व भी जनता ने अस्वीकार कर दिया।
विश्लेष्कों का मानना है कि कलह से कांग्रेस भी अछूती नही रही, लेकिन यहाँ नेताओं की आपसी लडाई भाजपा से कम थी। यही वजह रही कि वसुंधरा राजे सरकार के खिलाफ इतने गंभीर मुद्दे होने के बावजूद कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर रह गई। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी सहित कई बड़े नेताओं की हार का कारण भी पार्टी की आंतरिक खींचतान को माना जा रहा है।
इन चुनावों में जातिवाद ने सबसे अहम भूमिका निभाई। कांग्रेस का ९६ सीटों पर रूक जाना और भाजपा का 78 सीटें ले आना इन चुनावों में चले घोर जातिवाद की ओर इशारा करता है। बड़ी जातियों की दबंगता तो दिखी ही, वही इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह भी देखी गई कि बहुमत वाली जातियों के इलाके में उनके खिलाफ छोटी जातियां जबरदस्त तरीके से लामबंद हुई हैं। इस प्रयोग में उन्हे बस्सी और राजगढ़ सरीखे कई विधानसभा क्षेत्रों में कामयाबी भी मिली है।
जातिवाद के इस खेल में जहाँ बागियों ने अपनी पार्टियों के गणित को गड़बड़ा दिया वहीं बहुजन समाज पार्टी ने छः सीटें हासिल करके संकेत दे दिए कि आने वाले समय में उसकी राजस्थान में भी राजनीतिक ताकत बढ़ने जा रही है। बसपा को पिछले चुनावों में मात्र दो सीटें मिली थी।
इन चुनावों ने हालाँकि कांग्रेस को फिर से सत्तासीन कर दिया है लेकिन यह भी साफ तौर पर चेता भी दिया है कि इस पार्टी की नींव कमजोर हो रही है और उसने आने वाले सालों में अपने घर को मजबूत करने की ओर ध्यान नही दिया तो राजस्थान में भी उसकी हालत उत्तरप्रदेश और बिहार जैसी होते समय नही लगेगा। कांग्रेस के पक्ष मे चुनावों से पहले माहौल होते हुए भी वह इसको अपने पक्ष में नही भुना सकी।
यही नहीं, उसके प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सीपी जोशी सहित मुख्यमंत्री पद के ज्यादातर दावेदार चुनावी रण में खेत रहे। बहरहाल, तेरहवी विधानसभा चुनावोंके नतीजे चाहे जो रहे हो, यह चुनाव राजस्थान की राजनीति में आ रहे बदलावों की आहट को जरूर रेखांकित कर गए है।
राजस्थान को सामंती मानसिंकता वाला प्रदेश माना जाता रहा है राजनीतिक विश्लेषक प्रो अरुण चतुर्वेदी का मानना है कि राजस्थान में इस बार मतदाता ने जहाँ सामंती मानसिकता वाले नेतृत्व को पूरी तरह नकार दिया है, वहीं मध्यवर्गीय मानी जाने वाली जातियों का प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर प्रभावी उद्भव हुआ है।