दिलचस्प बात है कि भारत की दो महान शख्सियतों भीमराव आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच कभी नहीं बनी। दोनों के बीच कई मुलाकातें हुई लेकिन वो अपने मतभेदों को कभी पाट नहीं पाए।
आज़ादी से दो दशक पहले आंबेडकर और उनके अनुयायियों ने ख़ुद को स्वतंत्रता आंदोलन से अलग कर लिया था। वो अछूतों के प्रति गांधी के अनुराग और उनकी तरफ से बोलने के उनके दावे को जोड़-तोड़ की रणनीति मानते थे।
जब 14 अगस्त 1931 को गांधी से उनकी मुलाक़ात हुई, तो गांधी ने उनसे कहा "मैं अछूतों की समस्याओं के बारे में तब से सोच रहा हूँ जब आप पैदा भी नहीं हुए थे। मुझे ताज्जुब है कि इसके बावजूद आप मुझे उनका हितैशी नहीं मानते?"
धनंजय कीर आंबेडकर की जीवनी 'डॉक्टर आंबेडकर: लाइफ़ एंड मिशन' में लिखते हैं, "आम्बेडकर ने गांधी से कहा अगर आप अछूतों के ख़ैरख़्वाह होते तो आपने कांग्रेस का सदस्य होने के लिए खादी पहनने की शर्त की बजाए अस्पृश्यता निवारण को पहली शर्त बनाया होता।"
"किसी भी व्यक्ति को जिसने अपने घर में कम से कम एक अछूत व्यक्ति या महिला को नौकरी नहीं दी हो या उसने एक अछूत व्यक्ति के पालनपोषण का बीड़ा न उठाया हो या उसने कम से कम सप्ताह में एक बार किसी अछूत व्यक्ति के साथ खाना न खाया हो, उसे कांग्रेस का सदस्य बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी। आप ने कभी भी किसी ज़िला कांग्रेस पार्टी के उस अध्यक्ष को पार्टी से निष्कासित नहीं किया जो मंदिरों में अछूतों के प्रवेश का विरोध करते देखा गया हो।"
26 फ़रवरी 1955 में जब बीबीसी ने आंबेडकर से गांधी के बारे में उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा, ''मुझे इस बात पर काफ़ी हैरानी होती है कि पश्चिम के देश गांधी में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं?''
उन्होंने कहा, "जहाँ तक भारत की बात है तो वो देश के इतिहास का एक हिस्सा भर हैं, नए युग का निर्माण करने वाले व्यक्ति नहीं। गांधी की यादें इस देश के लोगों के ज़हन से जा चुकी हैं।"
शुरू से ही भेदभाव का शिकार हुए आंबेडकर
बचपन से ही अपनी जाति के कारण आंबेडकर को लोगों के भेदभाव का शिकार होना पड़ा। 1901 में जब वो अपने पिता से मिलने सतारा से कोरेगाँव गए तो स्टेशन से बैलगाड़ी वाले ने उन्हें ले जाने से इनकार कर दिया। दोगुने पैसे देने पर वो इस बात के लिए राज़ी हुआ कि नौ साल के आंबेडकर और उनके भाई बैलगाड़ी चलाएंगे और वो पैदल उनके साथ चलेगा।
1945 में वायसराय की काउंसिल के लेबर सदस्य के रूप में भीमराव आंबेडकर उड़ीसा (आज का ओडिशा) के पुरी में मौजूद जगन्नाथ मंदिर गए तो उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। उसी साल जब वो कलकत्ता (आज का कोलकाता) में मेहमान के तौर पर एक शख़्स के यहां गए तो उसके नौकरों ने ये कहते हुए उन्हें खाना परोसने से इंकार कर दिया कि वो महार जाति से हैं।
शायद यही सब कारण थे जिनकी वजह से आंबेडकर ने अपनी जवानी के दिनों में जाति व्यवस्था की वकालत करने वाली मनुस्मृति को जलाया था।
भारत के सबसे पढ़े-लिखे शख़्स
आंबेडकर अपने ज़माने में भारत के संभवत: सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। उन्होंने मुंबई के मशहूर एलफ़िस्टन कॉलेज से बीए की डिग्री ली थी। बाद में उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से उन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी।
शुरू से ही वो पढ़ने, बागवानी करने और कुत्ते पालने के शौक़ीन थे। कहा जाता है कि उस ज़माने में उनके पास देश में क़िताबों बेहतरीन संग्रह था। मशहूर क़िताब 'इनसाइड एशिया' के लेखक जॉन गुंथेर ने लिखा है कि "1938 में जब राजगृह में आंबेडकर से मेरी मुलाक़ात हुई थी तो उनके पास आठ हज़ार क़िताबें थीं। उनकी मौत के दिन तक ये संख्या बढ़ कर 35,000 हो चुकी थी।"
बाबासाहेब आंबेडकर के निकट सहयोगी रहे शंकरानंद शास्त्री अपनी क़िताब 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर' में लिखते हैं, "मैं रविवार 20 दिसंबर, 1944 को दोपहर एक बजे आंबेडकर से मिलने उनके घर गया। उन्होंने मुझे अपने साथ जामा मस्जिद इलाक़े में चलने के लिए कहा। उन दिनों वो पुरानी क़िताबें खरीदने का अड्डा हुआ करता था।"
"मैंने उनसे कहने की कोशिश की कि दिन के खाने का समय हो रहा है लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। जामा मस्जिद में उनके होने की ख़बर चारों तरफ़ फैल गई और लोग उनके चारों ओर इकट्ठा होने लगे। इस भीड़ में भी उन्होंने विभिन्न विषयों पर क़रीब दो दर्जन क़िताबें ख़रीदीं। वो अपनी क़िताबें किसी को भी पढ़ने के लिए उधार नहीं देते थे। वो कहा करते थे कि अगर किसी को उनकी किताबें पढ़नी हैं तो उसे उनके पुस्तकालय में आकर पढ़ना चाहिए।"
क़िताबों के लिए दीवानापन
करतार सिंह पोलोनियस ने चेन्नई से प्रकाशित होने वाले 'जय भीम' के 13 अप्रैल, 1947 के अंक में लिखा था, "एक बार मैंने बाबा साहेब से पूछा था कि आप इतनी सारी क़िताबें कैसे पढ़ पाते हैं। उनका जवाब था, लगातार क़िताबें पढ़ते रहने से उन्हें ये अनुभव हो गया था कि किस तरह क़िताब के मूलमंत्र को आत्मसात कर उसकी फ़िज़ूल की चीज़ों को दरकिनार कर दिया जाए।"
"उन्होंने मुझे बताया था कि तीन क़िताबों का उनके ऊपर सबसे अधिक असर हुआ था। पहली थी 'लाइफ़ ऑफ़ टॉलस्टाय', दूसरी विक्टर ह्यूगो की 'ले मिज़राब्ल' और तीसरी थॉमस हार्डी की 'फ़ार फ़्रॉम द मैडिंग क्राउड।' क़िताबों को लेकर उनका प्यार इस हद तक था कि वो सुबह होने तक क़िताबों में ही लीन रहते थे।"
आंबेडकर के एक और अनुयायी नामदेव निमगड़े अपनी क़िताब 'इन द टाइगर्स शैडो: द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन आंबेडकराइट' में लिखते हैं, "एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप इतना लंबे समय तक पढ़ने के बाद अपना 'रिलैक्सेशन' यानि मनोरंजन किस तरह करते हैं। उनका जवाब था कि मेरे लिए 'रिलैक्सेशन' यानि मनोरंजन का मतलब एक विषय को छोड़ दूसरे विषय की क़िताब पढ़ना।"
निमगड़े लिखते हैं, "रात में आंबेडकर क़िताब पढ़ने में इतना खो जाते थे कि उन्हें बाहरी दुनिया का उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था। एक बार देर रात मैं उनकी स्टडी में गया और उनके पैर छूए। किताबों में डूबे आंबेडकर बोले, 'टॉमी ये मत करो।' मैं थोड़ा अचंभित हुआ। जब बाबा साहेब ने अपनी नज़रें उठाई और मुझे देखा तो वो झेंप गए। वो पढ़ने में इतने ध्यानमग्न थे कि उन्होंने मेरे स्पर्श को कुत्ते का स्पर्श समझ लिया था।"
टॉयलेट में अख़बार और क़िताबें पढ़ना था पसंद
आंबेडकर के लाइब्रेरियन के रूप में काम करने वाले देवी दयाल ने अपने लेख 'डेली रुटीन ऑफ़ डॉक्टर आंबेडकर' में लिखा है, "आंबेडकरअपने शयनकक्ष को अपनी समाधि समझते थे। बाबासाहेब अपने बिस्तर पर अख़बार पढ़ना पसंद करते थे। एक-दो अख़बारों को पढ़ने के बाद वो बाक़ी अख़बारों को अपने साथ टॉयलेट ले जाते थे। कभी-कभी वो अख़बार और क़िताबें टॉयलेट में छोड़ देते थे। मैं उनको वहाँ से उठा कर उनकी तय जगह पर रख देता था।"
आंबेडकर की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर लिखते हैं, "आंबेडकर पूरी रात पढ़ने के बाद भोर के वक्त सोने के लिए जाते थे। सिर्फ़ दो घंटे सोने के बाद वो थोड़ी कसरत करते थे। उसके बाद वो नहाने के बाद नाश्ता किया करते थे।"
"अख़बार पढ़ने के बाद वो अपनी कार से कोर्ट जाते थे। इस दौरान वो उन क़िताबों को पलट रहे होते थे जो उस दिन उनके पास डाक से आई होती थीं। कोर्ट समाप्त होने के बाद वो क़िताब की दुकानों का चक्कर लगाया करते थे और जब वो शाम को घर लौटते थे तो उनके हाथ में नई क़िताबों का एक बंडल हुआ करता था।
जहाँ तक बागवानी का सवाल है दिल्ली में उनसे अच्छा और देखने वाला बगीचा किसी के पास नहीं था। एक बार ब्रिटिश अख़बार डेली मेल ने भी उनके गार्डन की तारीफ़ की थी। वो अपने कुत्तों को भी बहुत पसंद करते थे। एक बार उन्होंने बताया था कि किस तरह उनके पालतू कुत्ते की मौत हो जाने के बाद वो फूट-फूट कर रोए थे।
खाना बनाने के शौकीन
कभी-कभी छुट्टियों में बाबासाहेब खुद खाना भी बनाते थे और लोगों को अपने साथ खाने के लिए आमंत्रित करते थे।
देवी दयाल लिखते हैं, "3 सिंतबर, 1944 को उन्होंने अपने हाथ से खाना बनाया। उन्होंने सात पकवान बनाए। इसे बनाने में उन्हें तीन घंटे लगे। उन्होंने खाने पर दक्षिण भारत अनुसूचित जाति फ़ेडेरेशन की प्रमुख मीनांबल सिवराज को बुलाया। वो ये सुन कर दंग रह गईं कि भारत की एक्ज़क्यूटिव काउंसिल के लेबर सदस्य ने उनके लिए अपने हाथों से खाना बनाया है।" बाबा साहेब को मूली और सरसों का साग पकाने का बहुत शौक था।
उनके साथी रहे सोहनलाल शास्त्री अपनी क़िताब 'बाबा साहेब के संपर्क में पच्चीस वर्ष' में लिखते हैं, "हम दोनों साग को खूब सारे तेल में पकाया करते थे क्योंकि उन्हें पंजाबी स्टाइल में साग बनाना पसंद था। उन्हें अपने राज्य महाराष्ट्र पर भी गर्व था। कांग्रेस पार्टी के नेताओं में लोकमान्य तिलक को वो सबसे अधिक मानते थे।"
"उनका कहना था कि तिलक से अधिक तकलीफ़ किसी कांग्रेस नेता ने नहीं झेली। तिलक को छह फ़ीट चौड़ी और आठ फ़ीट लंबी कोठरी में रखा जाता था और वो ज़मीन पर सोया करते थे, जबकि जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और गांधी ने ए-क्लास से नीचे कोई सुविधा कभी स्वीकार नहीं की। अपने समकक्ष लोगों में गोविंद वल्लभ पंत के लिए उनके मन में बहुत इज़्ज़त थी। उनकी नज़र में पंत महाराष्ट्र के मूल निवासी थे। उनके पूर्वज 1857 में नाना साहेब के विद्रोह के दौरान उत्तर भारत में आ कर बस गए थे।"
पार्टियों में समय बरबाद करने के सख़्त ख़िलाफ़
1948 में आंबेडकर को श्रीलंका के स्वतंत्रता दिवस पर हो रहे समारोह में वहां के उच्चायोग ने आमंत्रित किया था। इस समारोह में लॉर्ड माउंटबैटन और जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे।
एन सी रट्टू अपनी किताब 'रेमिनेंसेंसेज़ एंड रिमेंबरेंस ऑफ़ डाक्टर बीआर आंबेडकर' में लिखते हैं, "जब मैंने बाबासाहेब से पूछा कि आप इस समारोह में क्यों नहीं जा रहे तो उनका जवाब था मैं वहाँ अपना बहुमूल्य समय बर्बाद नहीं करना चाहता। दूसरे मुझे शराब पीने का शौक नहीं हैं जो इस तरह की पार्टियों में सर्व की जाती है।"
"आम्बेडकर को न तो नशे की किसी चीज़ का शौक था और न ही वो धूम्रपान किया करते थे। एक बार जब उन्हें
खाँसी हो रही थी तो मैंने उन्हें पान खाने का सुझाव दिया। उन्होंने मेरे अनुरोध पर पान खाया ज़रूर लेकिन अगले ही सेकेंड उसे ये कहते हुए थूक दिया कि ये बहुत कड़वा है। वो बहुत साधारण खाना खाते थे जिसमें बाजरे की एक रोटी, थोड़ा चावल, दही और मछली के तीन टुकड़े हुआ करते थे।''
साथी को ओवरकोट ओढ़ाया
घर पर काम में आंबेडकर की मदद करने के लिए सुदामा नाम के एक व्यक्ति रखा गया था। एक दिन सुदामा जब देर रात फ़िल्म देख कर लौटे तो उन्होंने सोचा कि उनके घर के अंदर घुसने से बाबासाहेब के काम में विघ्न पड़ेगा। उन्हें पता था कि बाबासाहेब क़िताब पढ़ने में तल्लीन होंगे।
वो दरवाज़े के बाहर ही ज़मीन पर सो गए। आधी रात के बाद जब आंबेडकर ताज़ी हवा लेने बाहर निकले तो उन्होंने दरवाज़े के बाहर सुदामा को सोते हुए पाया। वो बिना आवाज़ किए अंदर चले गए। जब अगले दिन सुबह सुदामा की नींद खुली तो उन्होंने पाया कि बाबासाहेब ने उनके ऊपर अपना ओवरकोट डाल दिया है।
बिड़ला के दिए पैसों को अस्वीकार किया
31 मार्च 1950 को मशहूर उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला के बड़े भाई जुगल किशोर बिड़ला आंबेडकर से मिलने उनके निवासस्थान पर आए। कुछ दिनों पहले बाबासाहेब ने मद्रास में पेरियार की उपस्थिति में हज़ारों लोगों के सामने भगवतगीता की आलोचना की थी।
बाबासाहेब के सहयोगी रहे शंकरानंद शास्त्री 'माई एक्सपीरिएंसेज़ एंड मेमोरीज़ ऑफ़ डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर' में लिखते हैं, "बिड़ला ने उनसे सवाल किया आपने गीता की आलोचना क्यों की जो कि हिंदुओं की सबसे जानीमानी धार्मिक क़िताब है? उनको इसकी आलोचना करने के बजाए हिंदू धर्म को मज़बूत करना चाहिए।"
"जहां तक छुआछूत को दूर करने की बात है तो वो इसके लिए दस लाख रुपए देने के लिए तैयार हैं। इसका जवाब देते हुए आंबेडकर ने कहा, मैं अपने आप को किसी को बेचने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ। मैंने गीता की इसलिए आलोचना की थी, क्योंकि इसमें समाज को बांटने की शिक्षा दी गई है।"
वायसराय के सामने हमेशा भारतीय कपड़ों में जाते थे आंबेडकर
बाबासाहेब अक्सर नीला सूट पहना करते थे लेकिन कुछ ख़ास मौकों पर वो अचकन, चूड़ीदार पजामा और काले जूते निकालते थे। लेकिन, जब भी वो वायसराय से मिले जाते थे, वो हमेशा भारतीय कपड़े ही पहनते थे।
घर पर वो साधारण कपड़े पहना करते थे। गर्मी में वो चार हाथ की लुंगी कमर में लपेट लेते थे। उसके ऊपर वो घुटनों तक का कुर्ता पहनते थे। विदेश में रहने के दौरान से ही वो नाश्ते में दो टोस्ट, अंडे और चाय लिया करते थे।
देवी दयाल लिखते हैं कि जब वो नाश्ता करते थे तो बाईं तरफ़ उनके अख़बार खुले रहते थे। उनके हाथ में एक लाल पेंसिल रहती थी जिससे वो अख़बारों की मुख्य ख़बरों पर निशान लगाया करते थे।
घर के बाहर खाना खाने के ख़िलाफ़
बाबासाहेब मौज-मस्ती के लिए कभी बाहर नहीं जाते थे। उनके सहयोगी रहे देवी दयाल लिखते हैं, "हाँलाकि, वो जिमखाना क्लब के सदस्य थे लेकिन वो शायद ही वहां गए हों। जब भी वो कार से अपने घर लौटते थे तो वो सीधे अपनी पढ़ने की मेज़ पर जाते थे। उनके पास अपने कपड़े बदलने का भी समय नहीं रहता था।"
"एक बार वो एक फ़िल्म 'अ टेल ऑफ़ टू सिटीज़' देखने गए। उसे देखते समय उनके मन में कोई विचार कौंधा और वो फ़िल्म बीच में ही छोड़ कर घर लौट कर उन विचारों को लिखने लगे। वो घर के बाहर खाना नहीं पसंद करते थे।"
"जब भी कोई उन्हें बाहर खाने पर ले जाना चाहता था, उनका जवाब होता था अगर तुम मुझे दावत ही देना चाहते हो, तो मेरे लिए घर पर ही खाना ले आओ। मैं घर से बाहर जाने वाला नहीं।"
"बाहर जाने, वापस आने और व्यर्थ की बातों में मेरा कम से कम एक घंटा बरबाद होगा। इस समय का इस्तेमाल मैं कुछ बेहतर काम के लिए करना चाहूँगा।"
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में बाबासाहेब ने वायलिन सीखना शुरू किया था। उनके सचिव रहे नानक चंद रत्तू अपनी क़िताब 'लास्ट फ़िउ इयर्स ऑफ़ डॉक्टर आंबेडकर' में लिखते हैं कि एक दिन उन्होंने आंबेडकर के बंद कमरे में चुपके से झांककर एक अद्भुत नज़ारा देखा था।
वो बताते हैं, "बाबासाहेब दुनिया की चिंताओं से दूर अपने आप में मग्न कुर्सी पर बैठे वायलिन बजा रहे थे। मैंने जब ये बात घर में काम करने वाले लोगों को बताई तो सभी ने बारी-बारी से जा कर वो अद्भुत नज़ारा देखा।"