भारत ने 'सर्जिकल स्ट्राईक' (सितंबर 2016) करके शायद देख लिया था कि पाकिस्तान की प्रतिक्रिया क्या होगी। उस समय तो हमला शायद छोटे और स्थानीय स्तर पर था, तो 'कुछ ऐसा नहीं हुआ' कहने का सहारा लेना उपयोगी साबित हुआ।
लेकिन, इस बार तो भारतीय विमान न सिर्फ़ पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर बल्कि पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह प्रांत के बालाकोट इलाक़े तक आ पहुंचे। कोई कैम्प तबाह हुआ या नहीं - ये बाद की बात है, असल चिंता 'दुश्मन' के विमानों का देश की हवाई सीमाओं में दाख़िल होना है।
प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की सरकार के लिए ये कितनी बड़ी चुनौती है? और इससे पाकिस्तान कैसे निपटेगा? उनके पास क्या विकल्प हैं?
पाकिस्तानी हवाई सीमाओं का उल्लंघन पिछले दस वर्षों में कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान ने स्पष्ट धमकियां दी हैं कि सरहद पार करना रेड लाईन को क्रॉस करना माना जाएगा, लेकिन इसके बावजूद अमरीकी सेना ने दो बार इसका बिल्कुल ख़्याल नहीं रखा।
2011 में देश की पश्चिमी सरहद पर पहले पुराने क़बायली इलाक़े महमंद एजेंसी में अमरीकी हेलिकॉप्टरों ने एक पाकिस्तानी चौकी पर हमला करके ग्यारह पाकिस्तानी सिपाहियों को मारा था।
इसके जवाब में पाकिस्तान ने अमरीका के माफ़ी मांगने तक अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद नैटो फौजों की रसद का रास्ता कई महीने तक रोके रखा। अफ़ग़ानिस्तान में पहुंचाए जाने वाले रसद का दो तहाई हिस्सा सड़क मार्ग से हो कर जाता था और ये सड़क पाकिस्तान से होकर गुज़रती है।
दूसरी बार अमरीका ने ही एबटाबाद जैसे बड़े शहर पर हमला किया और ओसामा बिन लादेन को मारने में वो कामयाब हुआ। इस पर भी विरोध और स्पष्टीकरण के अलावा पाकिस्तान कुछ ज़्यादा नहीं कर सका।
लेकिन भारत के साथ स्थिति थोड़ी अलग है। पाकिस्तानी सेना आज भी भारत को अपना दुश्मन नंबर वन मानती है। आम धारणा यही है कि भारत की तरफ़ से हुआ इतना बड़ा हमला नज़रअंदाज़ हरगिज़ नहीं किया जा सकता है। पश्चिम के बाद पूरब से भी सरहद का उल्लंघन आसानी से हज़म नहीं होगा।
सिब्ते अली सबा का कहा याद आता है:
दीवार क्या गिरी मेरी ख़स्ता मकान की
लोगों ने मेरे सेहन में रस्ता बना लिए…
शायद इमरान ख़ान सरकार के लिए यही समय है कुछ ऐसा करके दुनिया को दिखाने का कि आख़िर वो एक मुल्क है जिसकी कोई इज़्ज़त भी है। और मुल्क से ज़्यादा शायद ये पाकिस्तानी फ़ौज की इज़्ज़त का भी मामला है। इस ऐतबार से पाकिस्तान का बयान काफ़ी चिंता का कारण है कि वो "जवाब का हक़ रखता है और अपनी पसंद के वक़्त और स्थान पर जवाब देगा।"
जवाब देगा पाकिस्तान
विशेषज्ञों का मानना है कि एक जवाब तो यक़ीनन पाकिस्तान सैन्य तरीक़े से देगा। वो कश्मीर में होगा या कहीं और, इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसकी तैयारी यक़ीनन शुरू कर दी गई होगी।
नेशनल कमांड ऑथोरिटी जो कि मुल्क के परमाणु संपत्ति की ज़िम्मेदारी संभालती है, उसका इस संबंध में बैठक बुलाना काफ़ी ख़तरनाक क़दम है। जंग के विरोधी उम्मीद कर रहे हैं कि इमरान ख़ान और किसी बात पर अपना मशहूर यू-टर्न लें न लें, कम से कम जंग के मामले पर यू-टर्न ज़रूर ले लें।
उनका विचार है कि जंग कोई पिकनिक नहीं जिस पर जाया जाए। ये अलग बात है कि भारत ने इन्हें बंद गली में घेर लिया है। अब फ़ैसला इमरान ख़ान को करना है कि वो 'प्ले टू दी गैलरी' करते हैं या ज़्यादा परिपक्व पॉलिसी अख़्तियार करते हैं। पाकिस्तानी फ़ौज के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ़ ग़फ़ूर ने कह दिया कि "जवाब ज़रूर दिया जाएगा, और ये अलग होगा।"
राजनयिक फ्रंट पर कोशिशें
जंग की रणनीति के अलावा इमरान ख़ान ने राजनयिक फ्रंट पर भी कोशिशें तेज़ करने का ऐलान किया है। फ़ैसला हुआ है कि विश्व के नेताओं को भी भारत की 'ग़ैर-ज़िम्मेदाराना' पॉलिसी के बारे में आगाह किया जाएगा। यही बेहतरीन रणनीति हो सकती है।
हालांकि, भारत की तरफ़ से बालाकोट कार्रवाई से पूर्व कितने वैश्विक नेताओं को भरोसे में लिया गया इसकी जानकारी नहीं है। अगर इसमें अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की रज़ामंदी शामिल है तो फिर पाकिस्तान के पास एक चीन ही बच जाता है जिससे पाकिस्तान को किसी तरह के समर्थन की उम्मीद होगी।
हालांकि, आम ख़्याल यही है कि सैन्य हमले की पारंपरिक निंदा वाला बयान शायद सब ही दें। भारत तो कब से पाकिस्तान को राजनयिक तौर पर अलग-थलग करने की कोशिश कर रहा है।
इमरान ख़ान से बढ़कर कई लोगों का मानना है कि अब सवाल है कि बाजवा (पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा) डॉक्टरीन का क्या होगा? इस डॉक्टरीन के मुताबिक़ पाकिस्तानी फ़ौज के प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा स्थानीय अमन के समर्थक क़रार दिए गए। इस पॉलिसी के तहत भारत के साथ समस्याओं को एक तरफ़ रखकर दोनों देश अच्छे संबंधों की कोशिश करेंगे। अब क्या बाजवा डॉक्टरीन पुरानी कहानी बन जाएगा?
जंग और कूटनीतिक मोर्चों पर जो भी हो, असल चिंता की बात इमरान ख़ान और जनता के लिए मुल्क की ख़राब आर्थिक स्थिति है। इस जंगी जुनून से अर्थव्यवस्था के और बदतर होने की सूरत में इमरान ख़ान के पास अब क्या विकल्प बचते हैं। क्या ये मुल्क मौजूदा वक़्त में जंग का बोझ बर्दाश्त कर सकता है?
मंगलवार को संसद में भी तमाम सियासी दलों ने सरकार को पूर्ण समर्थन की बात दोहराई है। दोनों तरफ़ से आ रहे बयानों से नहीं लगता है कि हालात में बेहतरी जल्द आएगी। इस मामले पर दुनिया की ताक़तों की ख़ामोशी भी समझ से परे है।