भारत में धुंध से होने वाली ट्रेनों की देरी को क्यों नहीं टाला जा सका है?

BBC Hindi

बुधवार, 17 जनवरी 2024 (07:40 IST)
चंदन कुमार जजवाड़े, बीबीसी संवाददाता
कई ट्रेनें ऐसी हैं जो एक दिन बाद भी अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच रही हैं। इनमें राजधानी एक्सप्रेस, वंदे भारत और शताब्दी एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें भी शामिल हैं।
 
भारत सरकार का दावा है कि साल 2023-24 के बजट में उसने रेलवे को दो लाख 40 चालीस हज़ार करोड़ रुपए दिए हैं जो कि साल 2013-14 में यूपीए सरकार के दौरान दी गई रक़म से नौ गुना ज़्यादा है।
 
लेकिन इसके बाद भी मुसाफ़िरों को अब तक कोहरे से कोई राहत मिलती नहीं दिख रही है। कोहरे का असर उत्तर भारत के ज़्यादातर हिस्सों के साथ-साथ पूर्वी और पश्चिमी भारत में भी देखा जाता है।
 
केंद्र सरकार इस समस्या का हल निकालने के लिए हर साल कम डिमांड वाली ट्रेनें रद्द करके अहम ट्रेनों को समय पर चलाने की कोशिश करती है।
 
उत्तर रेलवे ने बीते नवंबर में ही एहतियातन 62 ट्रेनों को रद्द करने का फ़ैसला किया था। इसके साथ ही 46 अन्य ट्रेनों के फेरे कम किए गए थे और छह ट्रेनों को निर्धारित रूट से कम दूरी तक चलाने का फ़ैसला किया गया।
 
24 घंटे की देरी से चलती ट्रेनें
13 जनवरी को नई दिल्ली से चलने वाली 12394 संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस 27 घंटे से भी ज़्यादा लेट होकर 15 जनवरी को पटना पहुँची है। 13 जनवरी की 12314 सियालदह राजधानी ट्रेन नई दिल्ली से चलकर 24 घंटे से भी ज़्यादा देरी से 15 जनवरी को सियालदह पहुँची है।
 
इसी दिन की 12302 हावड़ा राजधानी ट्रेन भी 23 घंटे की देरी से 15 जनवरी को हावड़ा पहुँची है। जबकि 13 जनवरी की नई दिल्ली-राजेंद्र नगर तेजस राजधानी ट्रेन 22 घंटे से भी ज़्यादा देरी से 15 जनवरी को राजेंद्र नगर (पटना) पहुंची है।
 
भारत में इस तरह के एहतिहयान क़दम रेलवे के अन्य ज़ोन में भी उठाए जाते हैं। लेकिन इसके बावज़ूद भी दर्जनों ट्रेनें इस साल भी कोहरे के मौसम में घंटों की देरी से चल रही हैं। इनमें राजधानी एक्सप्रेस, शताब्दी एक्सप्रेस और वंदे भारत ट्रेनें भी शामिल हैं।
 
13 जनवरी को नई दिल्ली से जयनगर के बीच चलने वाली 12562 स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस से क़रीब 24 घंटे की देरी से चल रही है।
 
12368 विक्रमशीला एक्सप्रेस 13 जनवरी को दिल्ली के आनंद विहार से चलने वाली 15 जनवरी को क़रीब 24 घंटे की देरी से भागलपुर पहुंच रही है।
 
इसी दिन 12304 नई दिल्ली से हावड़ा के बीच चलने वाली पूर्वा एक्सप्रेस भी क़रीब 24 घंटे की देरी से मंज़िल तक पहुँची है।
 
ट्रेनों की रफ़्तार पर ब्रेक क्यों?
कोहरे के दौरान भारतीय रेल में पटरी पर ट्रेनें अपनी निर्धारित गति से क्यों नहीं चल पाती हैं? इसका सीधा सा जवाब यह है कि हर ट्रेन को पटरी के किनारे मौजूद सिग्नल के मुताबिक़ चलना होता है। कोहरे के दौरान विज़िबिलिटी कम होने से इन सिग्नल को देखना ट्रेन के पायलट के लिए आसान नहीं होता है।
 
ऐसे में अगर किसी सिग्नल में लाल बत्ती जल रही हो तो पायलट क़रीब पहुँच कर ही उसे देख पाएगा और फिर उसके लिए समय पर ब्रेक लगाना मुश्किल होगा।
 
ऐसे में कोहरे की वजह से कभी भी बड़ा रेल हादसा हो सकता है। इसलिए कोहरे के मौसम में ट्रेन की अधिकतम गति सीमा काफ़ी कम कर दी जाती है। इससे ट्रेनें देरी से अपनी मंज़िल तक पहुँच पाती हैं।
 
अगर रेलवे के किसी रूट पर एबसोल्यूट ब्लॉक सिस्टम हो यानी दो स्टेशनों को बीच एक समय में केवल एक ट्रेन चल रही हो तो ट्रेन को अधिकतम स्पीड में चलाया जा सकता है, क्योंकि ट्रैक पर कोई दूसरी ट्रेन होगी।
 
लेकिन भारत में एक के पीछे एक ट्रेन चलती हैं। यानी ट्रेनें सिग्नल से सिग्नल के बीच चलती हैं।
 
ऐसी स्थिति में एक ट्रेन लेट चल रही हो तो उसके पीछे की सभी ट्रेनें भी लेट हो जाती हैं। इसलिए कैसकेडिंग इफ़ेक्ट की वजह से रूट की सभी ट्रेनों पर असर पड़ता है। यानी कोहरे का व्यापक असर रेलवे की कई ट्रेनों को सीधा प्रभावित करता है।
 
उत्तर रेलवे के प्रवक्ता दीपक कुमार कहते हैं, “एक बार लेट हो जाने के बाद अगर ट्रेनें ऐसे इलाक़े में आ जाती हैं, जहाँ कोहरे का असर नहीं हो तो भी हमारे पास उस टाइम को मेकअप करने का ज़्यादा समय नहीं होता है।”
 
उनके मुताबिक़ अगर दिल्ली से मुंबई के बीच चलने वाली ट्रेन लेट हो जाए तो इस देरी को कम करने के लिए महज़ आधे घंटे का समय होता है। जबकि ढाई घंटे की फ़्लाइट के पास क़रीब 45 मिनट समय ऐसा होता है जिसमें फ़्लाइट की देरी को मैंटेंन कर समय पर लैंडिंग हो सकती है।
 
ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या भारत में कोहरे की वजह के मुसाफ़िरों को हर साल होने वाली इस समस्या का कोई समाधान नहीं है?
 
फ़ॉग सेफ़्टी डिवाइस
भारतीय रेल में कुछ सालों से फ़ॉग यानी कोहरे मौसम में ट्रेनों में फ़ॉग सेफ़्टी डिवाइस का इस्तेमाल शुरू किया गया है। इसका मक़सद कोहरे के मौसम में ट्रेनों के परिचालन को सुरक्षित रखना है।
 
उत्तर रेलवे के प्रवक्ता दीपक कुमार के मुताबिक़, “उत्तर रेलवे से गुज़रने वाली क़रीब 1200 ट्रेनों में फ़ॉग सेफ़्टी डिवाइस लगाए गए हैं। यह डिवाइस इंजन में लगाया जाता है जो लोको पायलट को बताता है कि रूट पर कितनी दूरी पर सिग्नल है। फिर ड्राइवर सिग्नल देखकर ट्रेन की गति या उसमें ब्रेक लगाना तय करता है।”
 
दरअसल फ़ॉग सेफ्टी डिवाइस लोको पायलट को बताता है कि रूट पर आगे कितनी दूरी पर रेलवे का अगला सिग्नल है।
 
पायलट के लिए ट्रैक पर हर सिग्लन देखना ज़रूरी है और कोहरे के मौसम में विज़िबिलिटी कम होने की वजह से ट्रेन को धीमा रखकर ही सिग्लन को सावधानी से देखना होता है।
 
इसी जनवरी महीने की रेल मंत्रालय की एक प्रेस रिलीज़ के मुताबिक़ इस साल भारतीय रेल में क़रीब 20 हज़ार ‘फ़ॉग पास डिवाइस’ का इस्तेमाल हो रहा है।
 
दावा किया गया है कि इसका मक़सद कोहरे के मौसम में ट्रेन सेवा को भरोसेमंद बनाना, ट्रेनों को समय पर चलाना और मुसाफ़िरों की सुरक्षा है। हालाँकि, इस डिवाइस से ट्रेनों को समय पर चला पाना बहुत संभव होता नहीं दिखता है।
 
रेलवे बोर्ड के पूर्व मेंबर ट्रैफ़िक देवी प्रसाद पांडे के मुताबिक़, धुंध की वजह से ट्रेनों के सही परिचालन का एकमात्र उपाय कैब (सीएबी) सिंग्नलिंग सिस्टम है। इसमें पायलट को ट्रैक के किनारे लगे सिग्नल नहीं देखने होते हैं, यह एक मशीन के ज़रिए लोको पायलट को ट्रैक और रूट के सिग्नल की जानकारी देता है। हालाँकि इसकी भी अपनी सीमा है।
 
दरअसल, रेलवे में एक ही रूट के अलग-अलग सेक्शन पर अलग-अलग वजहों से ट्रेनों की गति सीमा तात्कालिक रूप से भी निर्धारित होती है। इसके लिए रूट पर कई जगहों पर पटरी के किनारे लिखित रूप में भी गति सीमा की सूचना दी जाती है।
 
इसके पीछे ट्रैक मेंटेनेंस, ज़मीन का किसी वजह से कमज़ोर होना, पटरी के आसपास कोई निर्माण कार्य चलना या किसी वजह से ट्रैक के आसपास भीड़ की मौजूदगी भी हो सकती है। कई बार रेलवे फाटक के पहले सी।फा। यानी सीटी फाटक लिखा होता है, जिसे देखकर लोको पायलट को ट्रेन की सीटी बजानी होती है।
 
ऐसी स्थिति में कैब सिग्नलिंग सिस्टम की अपनी सीमा है। सर्दियों के मौसम में कई बार विज़िबिलिटी 20-30 मीटर या उससे भी कम रह जाती है। ऐसें में ट्रेनों को ज़्यादा रफ़्तार देना हादसे की वजह बन सकता है।
 
बेहतर तक़नीक
ऐसा नहीं है कि कोहरे का असर केवल भारत के कुछ इलाक़ों में सर्दियों के दौरान देखने को मिलता है। यह कोरिया, जापान और चीन जैसे तकनीकी तौर पर विकसित देशों के अलावा यूरोप में भी खूब देखने को मिलता है। लेकिन वहाँ सिग्लनिंग की बेहतर तकनीक के सहारे ट्रेनों का परिचालन होता है।
 
रेलवे बोर्ड के पूर्व मेंबर ट्रैफ़िक गिरीश पिल्लई कहते हैं, “दुनियाभर में सिग्लनिंग की जो आधुनिक तकनीक अपनाई गई है, कोहरे के मौसम के लिए वही तकनीक काम कर सकती है। अलग-अलग देशों में इसका नाम अलग-अलग है। भारत में भी ऐसी एक तकनीक पर काम चल रहा है।”
 
दरअसल इस तकनीक में एक मशीन रेलवे ट्रैक पर मौजूद सिग्नल के पास लगा होती है और एक इंजन या मोटर कोच में। यह लोको पायलट को जीपीएस जैसी तकनीक के ज़रिए सिग्नल की जानकारी वास्तविक समय में या लाइव मुहैया कराता है।
 
यानी यह एक तरह का ट्रेन प्रोटेक्शन वॉर्निंग सिस्टम है जो ट्रेन के पायलट को इंजन में यह जानकारी देता है कि आगे का सिग्लन लाल, हरा या पीला है। यानी इससे पायलट को ट्रैक के किनारे लगे सिग्नल को देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इसलिए यह सिस्टम कोहरे के समय भी काम में आ सकता है।
 
यह तकनीक अलग अलग ट्रेनों में लगी होती है। इससे एक ही ट्रैक पर अगर चलती हुई दो ट्रेनें एक दूसरे के काफ़ी क़रीब आ जाएं तो उसमें ब्रेक लग जाता है और ट्रेनों के टक्कर को रोका भी जा सकता है।
 
भारत में रेल हादसों को रोकने के लिए जिस एंटी कॉलिजन तकनीक को अपनाया गया है उसका नाम ‘कवच’ है। यह भारत की बनाई गई अपनी तकनीक है। इसमें एक ही ट्रैक पर अगर दो ट्रेनें मौजूद हों तो यह सिस्टम क़रीब दो किलोमीटर पहले ही ट्रेन के पायलट को इसकी सूचना दे देता है।
 
इस तरह से लोको पायलट ट्रेन को समय पर ब्रेक लगाकर ट्रेन को रोक सकता है। यह सिस्टम रूट पर आगे रेड, ग्रीन या येलो सिग्नल की जानकारी भी लोको पायलट को देता है। यदि लोको पायलट ट्रेन को ब्रेक न लगाए तो भी यह सिस्टम सुरक्षित दूरी पर ट्रेन को ख़ुद ब्रेक लगा देता है।
 
साल 2022 में रेलवे ने इस सिग्नलिंग को अपनाने की घोषणा की थी। रेलवे के मुताबिक़ पिछले साल के बजट में इसके लिए क़रीब 13 हज़ार करोड़ रुपये की मंज़ूरी भी दी गई है। भारतीय रेल क़रीब 68 हज़ार रूट किलोमीटर तक फैला हुआ है।
 
रेलवे की योजना इस सिस्टम को शुरू में 34 हज़ार रूट किलोमीटर पर लगाने की है। जिसमें हर साल क़रीब चार से पाँच हज़ार रूट किलोमीटर पर यह सिस्टम लगाए जाने की योजना बनाई गई थी। इसके लिए भारतीय रेल के क़रीब 8000 इंजनों में भी कवच की मशीन लगाई जानी है।
 
यानी फ़िलहाल जब तक भारत में कोहरे के असर वाले इलाक़ों में यह तकनीक नहीं लगाई जाती है, तब तक मुसाफ़िरों और रेलवे की समस्या कम होने की संभावना भी कम ही दिखती है।

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