उत्तरकाशी में सुरंग में 41 कामगारों के 17 दिनों तक फँसे रहने की घटना पिछले दो सप्ताह से लगातार सुर्ख़ियों में रही है। यह सवाल भी उठता रहा है कि क्या मज़दूरों की सुरक्षा के बेहतर इंतज़ाम किए जा सकते थे? क्या इस हादसे को टालने के लिए कुछ किया जा सकता था?
बीबीसी ने सरकारी वेबसाइट infracon।nic।in की साइट पर इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की। इस परियोजना के प्रपोज़ल से इन सवालों के जवाब कुछ हद तक मिल सकते हैं।
जून 2018 में तैयार किए गए सिल्क्यारा परियोजना का आरएफ़पी (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोज़ल) निकालकर बीबीसी ने जानने की कोशिश की कि आख़िरकार नेशनल हाईवे एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट कॉर्पोरेशन NHIDCL वहाँ किस तरह की सुरंग बनाना चाहता था।
परियोजना की बढ़ी लागत : इस जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इस परियोजना का मक़सद सिल्क्यारा मोड़ पर बरकोट की दो लेन की बाय-डायरेक्शन टनल बनाना, उसके ऑपरेशन और मेंटेनेंस के अलावा नेशनल हाइवे 134 के बीच में धरासू-यमुनोत्री सेक्शन के 25.4 और 51 किलोमीटर के बीच में पड़ने वाले अप्रोच रोड और एस्केप पैसेज (बाहर निकलने के रास्ते) का निर्माण शामिल था।
2018 के अनुमानों के मुताबिक़ परियोजना 853 करोड़, 79 लाख रुपए की लागत से 48 महीनों में बनकर पूरी होनी थी।
सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की एस्टिमेट्स समिति की रिपोर्ट में दर्ज है कि इस परियोजना की लागत 2021 में बढ़कर 1383 करोड़ 78 लाख हो गई और इसमें लिखा है कि टनल, एस्केप पैसेज और अप्रोच रोड आठ जुलाई 2022 तक बन जाएंगे।
एस्केप टनल बनाना ज़रूरी था?
इस राहत कार्य में इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन (आइटीयूएसए) के प्रेजिडेंट अर्नाल्ड डिक्स भी मौजूद हैं वो रोज़ टनल के अंदर जाकर बचाव कार्य में अपनी विशेषज्ञता के ज़रिए टेक्निकल सहायता करते हैं।
तो क्या ऐसी सुरंग में एस्केप पैसेज यानी सुरक्षित बाहर निकालने का रास्ता बनाना ज़रूरी होता है?
अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "मेरी व्यक्तिगत राय है कि टनल के निर्माण के इस स्टेज पर एस्केप पैसेज होना ज़रूरी नहीं है क्योंकि आम तौर पर आप निर्माणाधीन टनल के ढहने की उम्मीद नहीं करते हैं।''
''आम तौर पर दुनिया भर में हम अपनी सुरंगें यह सोचकर नहीं बनाते हैं कि वो इस तरह ढह जाएँगी, हम लोग मेन टनल बनाने के अंत में एस्केप टनल बनाते हैं ताकि अगर कोई घटना होती है तो टनल का इस्तेमाल करने वाले उससे निकल सकते हैं।"
यह पूछे जाने पर कि इस परियोजना में तो एस्केप टनल बनाने का प्रस्ताव था, उन्होंने कहा, "जहाँ तक मेरी जानकारी है फाइनल डिज़ाइन में वो है। लेकिन जब हम मेन टनल बना रहे हैं तो हम आम तौर पर ऐसा नहीं करते हैं। कुछ यूरोपियन देशों में हम एक सर्विस टनल बनाते हैं, जिसका इस्तेमाल एस्केप के लिए किया जा सकता है लेकिन वो उसका प्राथमिक उद्देश्य नहीं होता है।"
अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "लेकिन अब यहाँ ऐसी घटना हो गई है।"
बीबीसी ने अर्नाल्ड डिक्स को सिक्किम में बनकर लगभग तैयार हो चुकी सुरंग के बारे में बताया जिसमें एस्केप टनल भी है तो अर्नाल्ड डिक्स ने कहा, "मैंने वो टनल नहीं देखी है लेकिन हो सकता है कि भारत की काफ़ी जटिल जियोलॉजी के कारण आप एस्केप टनल बनाते हों लेकिन विदेश में हम ऐसा नहीं करते है।"
क्या हो रही है टनल ढहने के कारणों की जाँच?
इस बारे में इंटरनेशनल टनलिंग और अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन के प्रेजिडेंट अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "मुझे मालूम है कि एक बहुत गहन जांच होगी क्योंकि पूरी दुनिया घटना को देख रही है और भारत देश भी देख रहा है। मैं उसके बारे में विशेष रूप से नहीं जानता।"
हमने पूछा कि एक टनल एक्सपर्ट के तौर पर क्या वे इस घटना के कारणों से जाँच चाहेंगे?
इस पर अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "बिल्कुल, अन्यथा यह सब व्यर्थ है। अगर हम इस घटना से कुछ नहीं सीखते हैं तो फिर हमें क्या हासिल हुआ है? तो इतना पैसा खर्च करने से हमें क्या हासिल हुआ? सिर्फ स्ट्रेस और पैसे की बर्बादी और लोगों की ज़िन्दगी में स्ट्रेस हुआ?"
अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "जहाँ तक मेरी समझ है जांच टीम तो पहले दिन से ही जुट गई है। क्योंकि इसे सामान्य से इतना हटकर माना गया। जाँच टीम यहाँ है। मैं उस टीम में नहीं हूँ। कुछ आपदाओं में मैं जांच टीम में रहा हूँ। लेकिन इस घटना में मैं जांच टीम में नहीं हूँ। लेकिन इस घटना में मैं 41 लोगों के बचाव कार्य में लगा हूँ।"
क्या अलग तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए था?
इस बारे में डिक्स कहते हैं, "हम आम तौर पर चट्टान की बनावट को देखते हैं और उसके हिसाब से उस चट्टान के लिए सपोर्ट सिस्टम को बनाते हैं।
बचाव कार्य के लिए बिछाई जा रही पाइपलाइन के लिए हो रही ड्रिलिंग के बार-बार सरिये और लोहे के टुकड़ों से टकराने के बारे में अगर आप पढ़ रहे हैं तो वो निर्माण में इस्तेमाल हुए लोहे के गर्डर हैं।
आम तौर पर टनल बनाने के लैटिस गर्डर मतलब सरिये से बने गर्डर का इस्तेमाल किया जाता है, ये सिंगल पीस लोहे से बने हुए ISMB गर्डर से अलग होता है। इन दोनों तरह के गर्डर का मकसद सुरंग को गिरने से रोक कर रखना होता है।
तो दोनों में से बेहतर गर्डर कौन सा होता है? इस सवाल पर अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "आम तौर पर हम चट्टान के प्रकार और उसके हिसाब से उस चट्टान के लिए सपोर्ट सिस्टम तय करते हैं। जो मुझे दिख रहा है कि हिमालय में एक असामान्य स्थिति उत्पन्न हो रही है, जहाँ चट्टान की श्रेणी बदल रही है और इसकी जांच होना ज़रूरी है क्योंकि जो हिस्सा ढहा है, वो पहले कभी नहीं ढहा था और उसने ढहने का कोई संकेत भी नहीं दिया था।''
क्या इस टनल में एस्केप पैसेज था?
''हमारे सामने चुनौती यह पता लगाने की है कि इस पर्वत में ऐसा क्या है कि जिसने हमें इस हाल में पहुँचा दिया। इस सुरंग की इंजीनियरिंग ने उस तरह की मज़बूती नहीं दिखाई जैसी उम्मीद थी?
अगर टनल में ग्राउटिंग (दरारें ठीक करने का काम) जारी था तो क्या मज़दूरों को ग्राउटिंग होने के स्थान से टनल के और भीतर नहीं जाना चाहिए?
इस बारे में अर्नाल्ड डिक्स कहते हैं, "मुझे उसका स्ट्रेस नहीं होगा क्योंकि मुझे टनल के ढहने की उम्मीद नहीं होगी। आम तौर पर हम टनल में जगह-जगह तरह-तरह के काम करते हैं और आपस में तालमेल रखते हैं लेकिन मेरे अनुभव में मैंने ऐसा कभी नहीं देखा कि अगर टनल में अगर एक जगह कुछ काम हो रहा है तो वहीं दूसरे लोगों के जाने पर रोक होती हो।"
सिलक्यारा टनल परियोजना से जुड़े एक सरकारी दस्तावेज़ में एस्केप पैसेज बनाने का ज़िक्र था तो इस बारे में जब हमने इस बारे में एनएचआईडीसीएल के एमडी महमूद अहमद से पूछा कि क्या टनल की डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में भी एस्केप पैसेज के बारे में योजना थी या नहीं?